“बस चाक पर चढ़ा दूँ और बर्तन तैयार ।”
“आओ बैठो न।”
“तुम्हें रूप बदलना सिखाती हूँ ।”
“इस लोंदे के अनगिनत रूप । न जाने कितने पुतले, कितने बर्तन ।”
“कभी खिलौना बन बच्चों का मनोरंजन करेगा ।
दीपावली में लक्ष्मी-गणेश बन मन्दिर में बिराजेगा ।दीप बन जगमगाएगा ।
सुराही बन ठंडक देगा ।
बड़भूजा भार में चढ़ा लैया-चना भूनेगा ।
गमले में पौधे लग जाएँगे ।
आचमनी से भगवान को धूप दे दूँगी ।
और तो और अस्थिकलश भी बन जाएगा मेरा एक दिन.. इस मिट्टी के लोंदे से ।”
“न जाने कितने पुतले भगवान के, शैतान के, इंसान के बन जाएँगे ।”
“और एक दिन सभी को मिट्टी में मिल खुद लोंदा बन जाना है ।”
…छन्नी से सूखी मिट्टी छान, मिट्टी को मसल-मसल कर सानती हुई पत्नी ने पति से कहा ।”
कुम्हार मंद-मंद मुस्कुराता हुआ, “साँचे” में लोंदा डाल पुतला ढालने में तल्लीन हो गया ।
**जिज्ञासा सिंह**
जीवन का यही दर्शन कबीर जी अपने शब्दों में कह गये।
जवाब देंहटाएंमाटी कहे कुम्हार से,तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय/_
मिट्टी से अनगिन बुत गढने में माहिर कुम्हार सृष्टि के रचियता की तरह अनेक आकृतियां साँचे में ढालते हुये अपने जीवन के अन्तिम समय से अनभिज्ञ रह्ता
बहुत बहुत आभार आपका।
हटाएंबहुत सुंदर बोध युक्त सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत आभार भारती जी ।
हटाएंवाह ! सबसे बड़ा कुम्हार तो वो ऊपर वाला है जो कि अजब-ग़ज़ब खिलौने बनाता है.
जवाब देंहटाएंआपकी प्रासंगिक टिप्पणी ने सृजन को सार्थक कर दिया ।
जवाब देंहटाएंआभार आपका ।
बहुत बहुत आभार आपका !
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