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कोने की दुर्गंध

सुबह सुबह सोकर उठते ही राघव पूरे घर में नाक भौं सिकोड़े घूम रहा है, अनजानी सी गंध घर में दिनोदिन बढ़ती जा रही है ।
राघव रोज़ समझने की कोशिश में है, कि आखिर हवा में ये कैसी अजीब सी नाक को भेदती गंध भरी है, और वो गंध दिन प्रतिदिन उसके इर्द गिर्द बढ़ती जा रही है ।
    अहसास तो है उसे कि कभी तो उसने इससे मिलती जुलती गंध को महसूस किया है, पर अब उसे ये नहीं भा रही ।
  वह जोर से पत्नी को आवाज़ लगाता है और कहता है कि एक तो वैसे ही महीनों से धूप न निकलने से घर में सीलन सी भरी है, ऊपर से ये अजीब बिसैंध जैसी बदबू । तुम्हें तो पता ही है कि मुझे घर में इस तरह की कोई भी गंध बर्दाश्त नहीं । करती क्या हो सारा दिन ? घर साफ रक्खा करो । सौ बार बताया है । वो जो़र से दहाड़ा और रूम फ़्रेशनर लेकर घर में छिड़कने लगा । 
  पत्नी सकुचाते हुए अंदर कोने वाले कमरे की तरफ इशारा करती है कि अरे आप को पता नहीं न.. आप तो जाते नहीं उधर.. वो बाबू जी न कई दिनों से ठंढ के मारे कमरे से बाहर नहीं निकले हैं और नहाए नहीं हैं, उन्हीं की.. वहीं से..और नाक पे शॉल का कोना रख लेती है। राघव को गंध का परिचय मिल जाता है.. चिल्लाना छोड़, वो जल्दी जल्दी ऑफ़िस जाने के लिए तैयार होने लगता है...

**जिज्ञासा सिंह**