“मेरी दादी तो कमाल हैं माशा अल्ला !
आज भी इतनी दुरुस्त हैं, कि क्या कहने ?
हुनरमंदी तो उनसे सीखनी चाहिए । अभी जब बेटी को लेकर घर गई थी मायके.. उनके पास.. अम्मी तो हाथ पे हाथ धरे बैठी दिखें और दादीजान कभी टोपियाँ, कभी जुराबें, कभी स्वेटर बनाती ही रहीं.. उन पंद्रह दिनों में मेरे लिए एक जोड़ा दस्ताना भी बुन दिया.. हद तो तब हो गई जब दादा साहब को भेज सिलाई मशीन ठीक कराई और पाँच फ़िराकें सिल डालीं, मेरी गुड़िया की.. पहना- पहना के दादा साहब को ऐसे दिखाएँ कि मैं भी न खुश होऊँ अपनी गुड़िया को देखकर.. याऽऽर ! क्या कहूँ ? अल्ला ताला उन्हें ऐसे ही उमर नेमत करे और हम इतनी ही ज़िंदादिल दादी देखते रहें !
“आमीन !..
कुसुम ने ज़ेबा की बातें सुन ख़ुशी का एलार्म बजाया.. और गहरी साँस लेते हुए कुछ सोचकर, बोली अम्मी कैसी हैं ?”
“ अरे दोस्त अम्मी का क्या कहूँ ? वो तो उमरदराज़ बुढ़िया की तरह पचपन साल की उमर में ही हो रही हैं, हर वक़्तख़ाली बैठी दादी को ही नख़रेबाज़ बताती हैं । मैंने बहुत समझाया,पर वह कहाँ सुनने वालीं ? वही पुरानी आदत ?”
“उसी घर में में दादी नई-नई चीज़ें यूट्यूब से सीख के बुढ़ापे की कढ़ाई करती रहती हैं और अम्मी कोफ़्त में बूढ़ी हुई जारही हैं ।”
**जिज्ञासा सिंह**