“क्या कर रही हैं माँजी ? इतनी देर से देख रही हूँ, आप बार-बार आँख बन्द करती हैं और खोलती हैं, क्या है ? कोई बात है क्या ?”
“अरे नहीं बेटा !
कोई बात नहीं, बस कुछ सिलन टूट गई है, उसी को सिलने में लगी हूँ, पर सिल ही नहीं पा रही ।”
“बिना सुई धागे के ।”
“तुम्हें दिख नहीं रहा बस, है सुई धागा ।”
“ तो लाइए न, मैं सिल देती हूँ”
“हुँह ! अरे बेटा ये कोई कपड़ा नहीं जो तुमसे सिलवा लूँ, ये तो फटे हुए मन की दास्ताँ है ।जब ये फट रहा था तो मैंने इसे फटने दिया, अब सीना भी तो मुझे ही पड़ेगा ।”
“ओह ! माँ जी मन का फटना तो सुना था सिलाई तो नहीं सुनी ।”
“सही कह रही हो बेटा । अब इसे सिल तो पाऊँगी नहीं न ये पहले जैसा हो ही सकता है, सोचती हूँ, ज़िंदा रहने के लिए कुछ टाँके ही लगा दूँ ।”
**जिज्ञासा सिंह**