टाँके..लघुकथा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
टाँके..लघुकथा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

टाँके

   क्या कर रही हैं माँजी ? इतनी देर से देख रही हूँआप बार-बार आँख बन्द करती हैं और खोलती हैंक्या है ? कोई बात है क्या ?”

अरे नहीं बेटा !

कोई बात नहींबस कुछ सिलन टूट गई हैउसी को सिलने में लगी हूँपर सिल ही नहीं पा रही ।

“बिना सुई धागे के ।”

“तुम्हें दिख नहीं रहा बस, है सुई धागा ।”

“ तो लाइए न,  मैं सिल देती हूँ

हुँह ! अरे बेटा ये कोई कपड़ा नहीं जो तुमसे सिलवा लूँये तो फटे हुए मन की दास्ताँ है ।जब ये फट रहा था तो मैंने इसे फटने दिया, अब सीना भी तो मुझे ही पड़ेगा 

ओह ! माँ जी मन का फटना तो सुना था सिलाई तो नहीं सुनी 

सही कह रही हो बेटा । अब इसे सिल तो पाऊँगी नहीं  ये पहले जैसा हो ही सकता हैसोचती हूँज़िंदा रहने के लिए कुछ टाँके ही लगा दूँ ।”


**जिज्ञासा सिंह**