कहानी.. जंगली घास

“लखनऊ कनेक्शन वर्ल्डवाइड” पत्रिका में प्रकाशित कहानी जंगली घास





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“ऐ मौत आज तू इतनी शांत कैसे है?

मौत! तू कभी तो एक क्षण में आ धमकती है, कभी वर्षों मलमल के गद्दे पर सड़ा देती है, क्या कहें तुझसे? तुझसे बड़ा खिलाड़ी नहीं देखा!”

 

 सिंदूरी ज़मीन पर मरी हुई पड़ी है, दोनों बच्चे उसके शरीर से चिपके हुए हैं, ग्यारह महीनें का मुन्ना ब्लाउज़ को ऊपर करके उसके मरे हुए स्तनों में दो बूँद जीवन खोज रहा है, तीन साल की बिट्टन को थोड़ा-थोड़ा अहसास है, कि माँ अब कभी नहीं लौटेगी.. सामने लोगों की भीड़ में खड़ी केंवली आँटी की आँखों का आँसू बिट्टन को यह बता रहा है, कि माँ के साथ कोई बड़ी अनहोनी हो गई है, आख़िर बचपन से ही वो ऐसी घटनाओं की आदी जो हो चुकी है।

 

 लूना अपनी नौकरानी की हुई अचानक मौत पर उसका अंतिम दर्शन करने उसकी झुग्गी पर आई है, उसे तो सिंदूरी की मौत का पता ही नहीं चलता पर हाकिम सब्जीवाला सिंदूरी का पड़ोसी है, उसी ने आज सुबह, जब लूना सब्ज़ी लेने घर के बाहर निकली तो यह खबर सुनाई। लूना को विश्वास ही नहीं हुआ कि सिंदूरी अब इस दुनिया में नहीं है, सिंदूरी के मासूम बच्चों के दर्द से आहत वो अपने को उसकी झुग्गी पर आने से रोक नहीं पाई।

 

  अभी कल ही की तो बात है, जब उसने माली के न आने पर सिंदूरी से कहा था कि वो खुरपी लेके गमलों की गुड़ाई कर दे और जो ये घास के जैसे कटीले महीन पौधे उगे हैं, उन्हें जड़ से निकाल दे, तब जवाब देते हुए सिंदूरी ने कहा था.. 

 “मेमसाहब ये जंगली पौधे का बीज आपके गमले में कैसे उग गया? ये तो हमने बचपन में जंगल में बकरियाँ चराते बखत देखा था, इसे कितना भी काटो, जड़ से उखाड़ो, यह पता नहीं कैसे दोबारा उग आता है? उसने भी सिंदूरी की बात पर ग़ौर किया तो यही पाया कि वह सही ही कह रही है, क्योंकि ये जंगली पौधा कई बार साफ़ करने के बाद फिर कुछ ही दिनों में घास की तरह बढ़कर तेज़ी से उगता हुआ नज़र आ जाता है।सिंदूरी गमले की गुड़ाई करते वक्त बार-बार जंगली घास की ही बातें किए जा रही थी। कहते-कहते वह बताने लगी कि..

“मेमसाहब घास की ही तरह कुछ मरद भी जंगली होते हैं, जैसे हमारा मरद, जितनी बार पुलीस उसको सुधार करने के वास्ते जेल भेजती है, ओतनी बार वो जेल से एक नया कुकरम सीख कर आ जाता है।”

 

“क्या हुआ सिंदूरी?”

लूना ने जब उससे कुरेदकर पूँछा तो वह दुःखी मन से अपनी दुःखभरी दास्तान साझा करने लगी..

 

“मेम साहब पिछली बार जब बिट्टनिया के पापा जेल गए तब पुलीस वाला साहब हमको बताया था कि जेल में इसकी सारी हेकड़ी निकाल दी जाएगी। इस दुष्ट की जेल जाने पर ही बदमाशी ढीली पड़ेगी, ये सुधर कर आएगा। लेकिन ऊ जहरीली शराब के धन्धे में गया औ जब लौट के आया तौ जहरीली गोली खाने लगा, दुसरी बार ऊ भाँग-गाँजा रखने के आरोप में गया औ जब लौटा तौ नशा का इंजेक्शन लेने लगा। अबकी बार तौ जब वो हमको पटक के मार रहा था, किसी के भी बचाने पर हमें छोड़ नहीं रहा था तो हमारे पड़ोसी पुलीस बुला लिए थे, ऊ मौक़े पर ही धर लिया गया मेमसाहब! जाते बखत अंगारा जैसी आँख से घूर-घूर देख रहा था, अब पुलीस के सामने बोल तो सकता नहीं था, ग़ुस्से में गया है मेमसाहब! इस बार तौ आके हमारी जान ही ले लेगा। देखिएगा चाहे आप!

  

  हम सही कहते हैं मेमसाहब! हमारा मरद यही घास की तरह है, घास को ही देखो चाहे जितना काटी-छाँटी जाय फिर हरा होके नया रंग लेके उग आती है, जंगली घास तौ नन्हा-नन्हा जंगली फूल भी खिला देती है, भले ही ऊ फूल दो दिन म मुरझा जाय। पर हमारा मरद! हाय दैया! हमारा मरद! 

हमारा मरद तौ रंग की जगह बदरंग हो जाता है, ओहमा तौ कबहुँ फूल खिलबे नाहीं किया, जब खिला तब काँटा ही खिला। अब का कहें मेमसाहब?”

 

  “अरे तुम उसे समझाती क्यों नहीं? दुनिया के नियम धर्म की बात मुझे बताती हो कभी उसे भी समझाया करो, हो सकता है कुछ समझ में आ जाय, आख़िर तुम उसकी पत्नी हो, हर बात न सही कुछ तो मानेगा, मैं कह रही हूँ, इस बार जब वो आए तो उसे समझाना और जब वो न समझे तो मेरे पास लाना, मैं उससे बात करूँगी, मेरी भी न सुनी तो साहब से बात करवाऊँगी, साहब उसे अच्छी तरह समझा देंगे, नहीं समझा तो साहब के पास उसका भी उपाय है, आख़िर तुम्हारे साहब इतने बड़े वकील जो हैं।”

 

“वो तो ठीक है मेमसाहब! पर ऊ.. ऊऽ तौ!”

हिचकिचाती हुई सिंदूरी अपने होंठों को दाँतों से काटते और पैर के अँगूठे से फ़र्श को खुरचते हुए बोली, “ समझानाऽ.. समझाने की बात तो मेमसाहब कहिए ही न, हमारी तो लड़ाई ही इसी बात की है, ऊ कहता है कि मैं उसे समझाती क्यों हूँ? जब भी कोई ऐसी बात होती है तभी कहता है कि मैं उसे नीचा दिखाने के लिए ही उसके सामने बोलती हूँ। ऊ बड़ा घमंडी है मेमसाहब! जैसे ही साहब की बात करूँगी वो मेरे ऊपर घोर चढ़ाई कर-कर लड़ेगा कि तुम हमारी बात बाहर जाकर कहती हो, उल्टा-सीधा बकेगा। कोठी वालों को गाली देगा। साहब को भी नहीं छोड़ेगा, जो पाएगा वही मुँह से निकाल देगा, ताही से तो हम अपने कोठी वालों का नाम नहीं लेते उसके सामने।”

 

“ओह!”

लूना को ऐसी स्थितियों का अनुभव नहीं था, वह सिंदूरी की बातें सुन अचम्भित थी। रात को ख़ाना खाते वक्त उसने पति से सिंदूरी की परेशानी के बारे में बात की थी पति ने आश्वासन दिया था कि अब जब भी मैं घर पर रहूँ और सिंदूरी आए तो तुम ये बात छेड़ना, मैं उससे बात करूँगा और उसे समझाऊँगा कि उसे आगे क्या करना है? लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? कल लूना को अपनी सारी कहानी बताने के बाद सिंदूरी जब अपने घर पहुँची तो वहाँ जंगली घास का पौधा पहले से ज़्यादा बड़ा होकर, ज़हरीले काँटों के साथ उगा हुआ था पिछली जितनी भी डालें काटने के बारे में उसने अब तक विचार किया था उन सभी डालों में ज़हरीले काँटे जड़ तक झूल रहे थे, सिंदूरी ने सुना था कि कोई जंगली फूल होता है जो कीड़े-मकोड़ों को अपने गिरफ़्त में लेके खून चूस लेता है, परंतु आज उसके घर में उगा जंगली घास का पौधा उसका खून चूसने के लिए तैयार था। और वही हुआ जो सिंदूरी को डर था, घर पहुँचने से पहले ही उसका पति जेल से छूटकर नशे में धुत्त होकर, घर आ चुका था और सिंदूरी से प्रतिशोध लेने को तैयार बैठा था।

   

 लूना के सामने पड़ी, जंगली पौधे से चुसी   हुई सिंदूरी की लाश रात की हर कहानी बयान कर रही थी, उसका चेहरा कई जगह से फटा हुआ था, गले पर काला स्याह निशान, आँखें सूखे जमें खून से ढकीं और फूली हुईं, बुरी तरह उलझे बालों का झुण्ड, हाथ-पैर पर चोटों के अनगिनत घाव पति की दरिन्दगी की कहानी कह रहे थे। दरिन्दगी ऐसी कि एक जीते-जागते इन्सान को मौत तक ले गई। लाश से लिपटे दोनों बच्चे रोने के बाद सूखे पड़े, अपने कपोलों से मक्खियाँ उड़ा रहे थे, अथाह दर्द की कहानी कहतीं मासूम आँखें थककर बंद हुई जा रही थीं। 

 

जिज्ञासा सिंह

लखनऊ

 

अपना आसमान.. लघुकथा

 ऑर्डर-ऑर्डर-ऑर्डर!

    जज ने आनंदी के पक्ष में फ़ैसला सुनाया, आनंदी ने गौरव को कनखियों से देखा। गौरव उनसे अलग होकर दुखी नहीं था, 

होता भी क्यों? उसके जीवन में बहार जैसी रागिनी, पहले से जो थी। वकील को धन्यवाद कह, आनंदी बेटी के साथ चलकर गाड़ी में बैठ गई, सालों की ज़िल्लत आँखों से बहती कि, बेटी ने माँ की आँखों में निहारा, बोली,


“ माँ! आपकी आँखों में हमारा आसमान हँसता हुआ दिख रहा है।"

जिज्ञासा सिंह

दिव्य-दृष्टि.. लघुकथा


 “अच्छाऽ पाँच नेत्र!”

“हाँ हाँ पाँच नेत्र!”


“दो तो होते ही हैं, तीन भी देखा-सुना है, पर पाँच पहली बार देख रहा हूँ।”


“मेरे ही घर ऐसा बच्चा क्यों जन्म लिया है स्वामी जी?”


“क्योंकि तुम्हारे ही पिछले जन्म का पाप, पत्तरे में सबसे ऊपर रहा होगा? पर समझ लो!!  इसकी छाया तुम्हारे घर के साथ गाँव-क्षेत्र हर जगह पड़ेगी। ध्यान से सुनो! इन पाँचों नेत्रों का अर्थ न समझने पर अनर्थ भी हो सकता है।

“वो कैसे?”


“दो नेत्र तो इंसान को चाहिए ही देखने के लिए। परंतु अगर शिशु तीन नेत्रों के साथ पैदा होता है, तो उसे ईश्वरीय वरदान मान लेते हैं, पर ये पाँच नेत्र! अद्भुत है!”


“अद्भुत! अद्भुत क्यों है स्वामी जी?”


“अद्भुत ही नहीं; ये महाविनाश का द्योतक भी है, इस गाँव का अंत देखने के लिए पंचतत्वों ने शिशु के नेत्रों के रूप में जन्म लिया है, घोर अकाल आने वाला है, सृष्टि का विनाश होने वाला है। ये शिशु बालिका नहीं, देवी है देवी! महादेवी! इसे मनाओ! पूजा करो इसकी! विनती करो! ये अपने नेत्रों को न खोले! नहीं तो….?

इस अद्भुत जन्म के बारे में ही सुनके मैं यहाँ आया हूँ, अब से मेरा पांडाल यहीं आपकी ड्योढ़ी पर लगेगा।”


स्वामीजी के इतना कहते ही, झबरू की झोपड़ी की ड्योढ़ी पर अचानक स्वामीजी की जय-जयकार होने लगी। व्यवस्थापक हरकत में आ गए।


  “जय हो देवी माँ की! देवी माँ की जय हो!

 देवी को जन्म देने वाली ननमुनिया की जय!!”


  कल तक अछूत, ननमुनिया और उसकी नवजात बेटी की जय जयकार हो रही है, जिसके दाएँ कान से बाएँ कान तक पाँच नेत्र ऊपर नीचे उगे हुए हैं, ननमुनिया कराहती हुई, लत्ते में लिपटी मरणासन्न बेटी महात्मा के चरणों में लिटा देती है।


जिज्ञासा सिंह

उलझन (विश्व पर्यावरण दिवस)

“तुम्हीं हो न केशव! जो उस दिन.. अपने गेट पर खड़े नीम का पेड़ कटवा रहे थे.. मेरे मना करने पर दुनिया भर की सफ़ाई दी।"

"ये बड़ा आड़ा-तिरछा जा रहा है भाई साहब, जड़ घर में घुस रही है.. तुम तो तुम! भाभी जी भी मेरी बात काटने लगीं कि मेरे बच्चों को पेड़ की छाँव की वजह से घर में आते अँधेरे से उलझन होती है, बहुएँ भी पत्तियों के कूड़े से परेशान हैं, ऊपर से अभी छोटे वाले पोते ने बीन-बीन निमौरी अपने मुँह में ठूँस ली, भाई साहब! हमारे ही बचाने से थोड़ी न प्रकृति संरक्षण होगा हमें तो बड़ी उलझन हो रही है इस पेड़ से! 

"मित्र! उस दिन तो तुम्हारे परिवार को उलझन हो रही थी..
अब तुम्हीं दोनों  सुबह-शाम एक ही रोना रोते हो कि बड़ी गर्मी है.. बड़ी गर्मी है.. 
भला बताओ! पेड़ नहीं होंगे, बगिया फुलवारी, जल-जंगल नहीं होंगे तो हवा कहाँ से चलेगी? हवा नहीं होगी तो गर्मी तो होगी ही। जवान लोगों को तो हम बूढ़ों से भी उलझन है, तो क्या हम कुएँ में कूद जायँ?"

राजेश की बात का समर्थन करते हुए लालजी ने कहा.. 
"सही कह रहे हो यार! तुमने देखा नहीं कि मैंने तो अपने छोटे से घर में ही इतने पेड़- लगा रखे हैं कि मेरा बुढ़ापा आराम से उनकी सेवा में गुज़र रहा है, ऊपर से चिड़ियों का बसेरा.. लेकिन मजाल है.. घर में कोई एक पत्ता भी बिन मेरी मर्ज़ी के तोड़ ले, मैंने ऐसे नियम बनाए हैं, कि किसी घरवाले की उलझन उसे तोड़ नहीं पाती।"

पार्क में बैठी मित्रों की मंडली ताली बजाकर हँस पड़ी।

जिज्ञासा सिंह

सिर के बाल

“जुगनी ज़रा सुनना तो!”

कोई ग़ल्ती हो गई क्या साहब?


“ अरे नहीं.. मैं ये कह रहा था कि तुम काम करते वक्त इतना आँचल क्यों सिर से खिसकाती हो?.. अभी तुम्हारे सिर से ईंट गिर जाती, चोट लग सकती है न। यहाँ कोई पर्दे की बात नहीं.. काम करते वक्त अपना ध्यान रखना चाहिए। 


जुगनी कुछ जवाब देती.. उसके पहले ही बग़ल खड़ी नन्हकी मुस्कुराते हुए बोल उठी..


“अरे ऐसी कोई बात नहीं साहब.. 

ई शरमाती है न.. अपना सिर खोलने से।”

बहुत साल से मौरंग-मसाले का तसला और ईंट ढोते-ढोते इसके सिर के बाल जो उड़ गए हैं।”


**जिज्ञासा सिंह**

नया खर्चा

"रिक्शा खींचते-खींचते थकते नहीं तुम? कुछ बचत भी करते हो या बस्स.. 

"अरे मैडम क्या थकेंगे? क्या बचत करेंगे हम?  जैसे ही लल्ला का मुँह और पिंकी की फीस याद आती है, पाँव अपने आप और तेज पैडल मारने लगते हैं।”


मंहगाई का हाल तो आप लोगों को भी पता है, क्या आप लोग सब्जी नहीं खाते या गैस नहीं भराते? हम तो गरीब हैं ही . जितना कमाते हैं, उससे ज्यादा घर खर्च, ऊपर से रोज एक नया खर्चा।"


रिक्शेवाला बात ही कर रहा था कि फोन की घंटी बजने लगी, वो अपने घर बात करने लगा..


"अरे घबराओ मत! सवारी उतार दें बस। आ रहे हम। तुम घाव के जगह पर रूमाल लगा के अँगोछा से बाँध दो.. खून रुक जाएगा, तैयारी रखो, आते ही अस्पताल चलेंगे, रिक्शेवाले के सामने "नया खर्चा" मुँह फाड़े खड़ा था।


**जिज्ञासा सिंह**

आशीर्वाद

 "अरे काका ई हमारा बड़का पलंग कहाँ लिए जा रहे  हैं? और ई आपके पीछे हमारी आजी का जगन्नाथपुरी वाला गगरुआ लोटा लिए हरखू आ रहे हैं? हमें ज़रा बताओ तो सही, ये आपको किसने दिया? हम अभी घर के अंदर जाकर पूछते हैं।"

   बम्बा पे पानी भर रही लालती ने अपने घर से निकलते कन्हाई को दो लोगों के साथ घर का सबसे बड़ा पलंग लादे और पीछे हरखू लोहार को हाथ में लोटा लिए जाते देख, रोष प्रकट करते हुए जब टोंका.. तो उन दोनों ने कहा कि.. 

“ये तो आपके बापू नए घर की छत पड़ने पर हमें सरिया कटाई का इनाम दिए हैं बिटिया।” 

 लालती ने बाल्टी उठाई और घर की देहरी से ही "बापू-अम्मा" चिल्लाते हुए गुहार लगाने लगी, सामने खड़ी अम्मा ने अपना हाथ होठों पे रखते हुए चुप होने का इशारा किया।ये देख वो और भी ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगी।


"देखो अम्मा सब कुछ दान कर दे रहे ये बापू, आज नानी का दिया बड़का पलंग और आजी का लोटा गया। कल बुधई पंडित बड़की परात लिए जा रहे थे और बरेठा बाबा खोपड़ी पर बूढ़े बाबा वाली कुर्सी लादे हुए गए हैं आज सुबह, परसों तौ नन्हकू कहांर पानी भराई बाल्टी ले ही गए हैं, और ऊ जमुई बारी को कुछ नही दे पाए बापू तौ शीशम की बनी, आले में रक्खी खूंटी ही दान कर दिए। अम्मा जान लो बापू एक दिन घर बनवाई हमको तुमको भी दान कर देंगे।"


  बेटी के पीछे खड़े शिव बरन मुस्करा रहे थे। उसको गले से लगाया और बोले.. 

“बिटिया इतना बड़ा घर अपने गाँव में हम बना लिए है, ई गृहस्थी का चीज है, फिर बना लेंगे। ये हमारे कामगार हैं, इनके “आशीर्वाद” से कोई कमी नहीं होती जीवन में, बड़ी होगी तब समझोगी इन बातों का अर्थ।”


"हाँ-हाँ आप हम लोगों को भी दान कर दीजिए न बापू।"

"अरे बिटिया.. ई का कह रही?  ग़रीबों को देने से कभी कमी नहीं पड़ती घर में, भगवान चार गुना देते हैं।"


   आज बरसों बाद सुख-सुविधा से संपन्न, बिस्तर पर लेटी लालती को बापू की कही हर बात याद आ रही है और आँखों से आँसू लुढ़क-लुढ़क गालों को सहलाते हुए बह रहे हैं।

  सामने खड़ी सेविका समझा रही है, मेमसाहब सबके बाप को एक न एक दिन इस दुनिया से जाना होता है, फिर आपके बापू तो नब्बे बरस से ऊपर के थे, भरे-पूरे परिवार और हँसते-खेलते बच्चों को छोड़कर गए हैं।


**जिज्ञासा सिंह**