स्वप्निल लगातार बोले जा रहा था…
“तुम कहती हो कि मेरे अंदर धैर्य नहीं, बिलकुल भी संयम नहीं ! अरे तुम क्या जानो ? जनोगी-सुनोगी-समझोगी, तभी न ! कितना वर्कलोड होता है ऑफ़िस में. उसपे खूसट बॉस की किचकिच । कितना मौन, कितना धैर्य रखे इंसान ।”
“अब इधर तो कम्पनी को पूरा टारगेट देना है साल भर का, ऊपर से ऑफ़िस की प्रतिस्पर्धा । सब एक दूसरे की काटने में लगे रहते हैं, बॉस के चमचे, दोमुँहे। उनके पास तो और कोई काम ही नहीं।
यहाँ घर आओ तो तुम्हारा प्रवचन सुनो । थोड़ा धैर्य रक्खो, धीरज धरो । सुन लिया करो, वे बॉस हैं, तुम्हारे ।थोड़ा चुप रह जाओगे तो क्या बिगड़ जाएगा ? अब ये मौन व्रत मुझसे नहीं होता । एक हफ़्ते से तुम्हारी सलाह पर ही काम कर रहा था ऑफ़िस में । फिर भी मुआँ बॉस आज भिड़ ही गया ।
अरे क्या हुआ ? खुल के कुछ बताओगे भी या फिर बड़बड़ाना ही है । रागिनी ने जैसे ही कहा ..
स्वप्निल ने फिर से चिल्लाना शुरू कर दिया..
रागिनी समझ चुकी थी कि ये ऑफ़िस का मौन बोल रहा है ।
**जिज्ञासा सिंह**