प्रतिष्ठित पत्रिका “संरचना” 2024 वार्षिकी
(समय, समाज और साहित्य का परिदृश्य)
लघुकथा विमर्शों और सारगर्भित लघुकथाओं के इस प्रतिष्ठित अंक में मेरी दो लघुकथाएँ!
(१) अतिरेक
“मैंने कहा था न! मत खेलो इस ठहरे हुए शांत सागर से। तुम्हारे खेल ने तुम्हें तो तुम्हें, मुझे भी रसातल में पहुँचा दिया। तुम्हें क्या? तुम तो अकेली ही डूबी हो। तुम्हारा नाविक भी तैरकर किनारे जा पहुँचा और मैं! मैं तुम्हारे बचपने भरे मज़ाक़ का शिकार हो अपने साथ, अपने प्यारे नाविक के भी डूबने का कारण बनी।”
लहरों से जूझती सागर की तलहटी में डूबी एक नौका ने साथ में डूबी एक नयी-नवेली नौका से कहा।
नवेली नौका ने हाज़िरजवाबी की,
“इसमें तुम्हारा क्या दोष? दोष तो उस सागर का है, जिसने अपनी लहरों को हमारे साथ बहने नहीं दिया, नहीं तो हम किनारे लग जाते।”
“इसमें सागर का दोष नहीं प्रिये! वह अपने ऊपर हमारी हठखेलियाँ तभी तक बर्दाश्त करेगा न! जब तक उसकी लहरें उसका साथ देंगीं, अति तो किसी को भी नहीं भाता, फिर ये तो सागर है, देखो न! आज भी हमें किनारे पहुँचाने के बाद, वह हमें बार-बार संदेश दे रहा था कि मैं थक गया हूँ, मेरी लहरों के ठहरने का समय है, नौकाविहार बंद करो! , पर हमने उसकी एक न सुनी, आख़िरकार परेशान होकर उसने हमें हमारे सहारे छोड़ दिया, अब ठहरे हुए सागर से खेलेंगे तो हमें वो पालना थोड़ी झुलाएगा। डूबना तो निश्चित ही है न।”
(२) तकनीक
“काट काट अब डंक
दुआरे बाजत है मिरदंग!”
“विष हरो नगेसरनाथ विष हरोऽ!”
कानों को बेधती, ये आवाज़ जब भी कभी गूँजती, पूरा गाँव समझ जाता कि छोटे बाबा का न्योता आ गया। कहीं किसी को साँप ने डस लिया है, अब बाबा उसे झाड़ने जाएँगे! चूँकि मंत्र सिखाते वक्त गुरु ने उनसे वचन लिया था कि जब भी किसी को साँप काटेगा तुम्हें उसे तुरंत झाड़ने जाना पड़ेगा, भले ही भादों माह की विकट अँधेरी रात ही क्यों न हो?
सूचना का माध्यम था, मरीज़ के कान में ऐसी बाँग देना कि उसकी आवाज़ दूर-दूर तक सुनाई पड़े जिससे पास-पड़ोस के सभी झड़वार, सोते-जागते, जिस भी स्थिति में हों, पलों के अंदर ही मरीज़ के पास पहुँचने के लिए अपने घर से चल दें।
पर ये क्या? आज तो बाँग सुनकर बाबा रोहित की मोटर साइकिल के पीछे बैठे बाँग की विपरीत दिशा में भागे जा रहे थे, ये अजूबा देख दादी मुझे साथ लेकर बाँग की दिशा में चल पड़ीं, बाँग पश्चिम टोला से आ रही थी, वहाँ पहुँचकर हम देखते हैं, कि निथरी खाट पर औंधी बेहोश लेटी मालती को डॉक्टर साहब इंजेक्शन लगा रहे हैं, थोड़ी देर में उसकी पलकों में हरकत होने लगती है। लोगों ने बाबा को बड़े गर्व और आश्चर्य से देखा। बाबा मुस्कुराते हुए बोले…
“आप सबको पता ही है मैं तो मंत्रों द्वारा विष कम करने की कोशिश ही करता था, परंतु आज के समय में डॉक्टर साहब मौज़ूद हैं, तो अब झाड़-फूक का कोई मतलब ही नहीं रहा।
जिज्ञासा सिंह
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