गागर में सागर
मेरे इस ब्लॉग में मेरी कहानियों और लेखों का संग्रह है, आशा है अपको रुचिकर लगेंगे-
नियम (विश्व पर्यावरण दिवस)
सिर के बाल
“जुगनी ज़रा सुनना तो!”
कोई ग़ल्ती हो गई क्या साहब?
“ अरे नहीं.. मैं ये कह रहा था कि तुम काम करते वक्त इतना आँचल क्यों सिर से खिसकाती हो?.. अभी तुम्हारे सिर से ईंट गिर जाती, चोट लग सकती है न। यहाँ कोई पर्दे की बात नहीं.. काम करते वक्त अपना ध्यान रखना चाहिए।
जुगनी कुछ जवाब देती.. उसके पहले ही बग़ल खड़ी नन्हकी मुस्कुराते हुए बोल उठी..
“अरे ऐसी कोई बात नहीं साहब..
ई शरमाती है न.. अपना सिर खोलने से।”
बहुत साल से मौरंग-मसाले का तसला और ईंट ढोते-ढोते इसके सिर के बाल जो उड़ गए हैं।”
**जिज्ञासा सिंह**
नया खर्चा
"रिक्शा खींचते-खींचते थकते नहीं तुम? कुछ बचत भी करते हो या बस्स..
"अरे मैडम क्या थकेंगे? क्या बचत करेंगे हम? जैसे ही लल्ला का मुँह और पिंकी की फीस याद आती है, पाँव अपने आप और तेज पैडल मारने लगते हैं।”
मंहगाई का हाल तो आप लोगों को भी पता है, क्या आप लोग सब्जी नहीं खाते या गैस नहीं भराते? हम तो गरीब हैं ही . जितना कमाते हैं, उससे ज्यादा घर खर्च, ऊपर से रोज एक नया खर्चा।"
रिक्शेवाला बात ही कर रहा था कि फोन की घंटी बजने लगी, वो अपने घर बात करने लगा..
"अरे घबराओ मत! सवारी उतार दें बस। आ रहे हम। तुम घाव के जगह पर रूमाल लगा के अँगोछा से बाँध दो.. खून रुक जाएगा, तैयारी रखो, आते ही अस्पताल चलेंगे, रिक्शेवाले के सामने "नया खर्चा" मुँह फाड़े खड़ा था।
**जिज्ञासा सिंह**
आशीर्वाद
"अरे काका ई हमारा बड़का पलंग कहाँ लिए जा रहे हैं? और ई आपके पीछे हमारी आजी का जगन्नाथपुरी वाला गगरुआ लोटा लिए हरखू आ रहे हैं? हमें ज़रा बताओ तो सही, ये आपको किसने दिया? हम अभी घर के अंदर जाकर पूछते हैं।"
बम्बा पे पानी भर रही लालती ने अपने घर से निकलते कन्हाई को दो लोगों के साथ घर का सबसे बड़ा पलंग लादे और पीछे हरखू लोहार को हाथ में लोटा लिए जाते देख, रोष प्रकट करते हुए जब टोंका.. तो उन दोनों ने कहा कि..
“ये तो आपके बापू नए घर की छत पड़ने पर हमें सरिया कटाई का इनाम दिए हैं बिटिया।”
लालती ने बाल्टी उठाई और घर की देहरी से ही "बापू-अम्मा" चिल्लाते हुए गुहार लगाने लगी, सामने खड़ी अम्मा ने अपना हाथ होठों पे रखते हुए चुप होने का इशारा किया।ये देख वो और भी ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगी।
"देखो अम्मा सब कुछ दान कर दे रहे ये बापू, आज नानी का दिया बड़का पलंग और आजी का लोटा गया। कल बुधई पंडित बड़की परात लिए जा रहे थे और बरेठा बाबा खोपड़ी पर बूढ़े बाबा वाली कुर्सी लादे हुए गए हैं आज सुबह, परसों तौ नन्हकू कहांर पानी भराई बाल्टी ले ही गए हैं, और ऊ जमुई बारी को कुछ नही दे पाए बापू तौ शीशम की बनी, आले में रक्खी खूंटी ही दान कर दिए। अम्मा जान लो बापू एक दिन घर बनवाई हमको तुमको भी दान कर देंगे।"
बेटी के पीछे खड़े शिव बरन मुस्करा रहे थे। उसको गले से लगाया और बोले..
“बिटिया इतना बड़ा घर अपने गाँव में हम बना लिए है, ई गृहस्थी का चीज है, फिर बना लेंगे। ये हमारे कामगार हैं, इनके “आशीर्वाद” से कोई कमी नहीं होती जीवन में, बड़ी होगी तब समझोगी इन बातों का अर्थ।”
"हाँ-हाँ आप हम लोगों को भी दान कर दीजिए न बापू।"
"अरे बिटिया.. ई का कह रही? ग़रीबों को देने से कभी कमी नहीं पड़ती घर में, भगवान चार गुना देते हैं।"
आज बरसों बाद सुख-सुविधा से संपन्न, बिस्तर पर लेटी लालती को बापू की कही हर बात याद आ रही है और आँखों से आँसू लुढ़क-लुढ़क गालों को सहलाते हुए बह रहे हैं।
सामने खड़ी सेविका समझा रही है, मेमसाहब सबके बाप को एक न एक दिन इस दुनिया से जाना होता है, फिर आपके बापू तो नब्बे बरस से ऊपर के थे, भरे-पूरे परिवार और हँसते-खेलते बच्चों को छोड़कर गए हैं।
**जिज्ञासा सिंह**
इकलौता बेटा- कहानी
पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती थी परम्परा
प्रकृति दर्शन पत्रिका में प्रकाशित आलेख:-
“बावड़ी,तालाब,पोखर,कूप, नदियाँ।
ढूँढते अस्तित्व हैं, घर, गाँव, गलियाँ ।
बरस कुछ पहले थे खुश, आबाद जो,
भूलती जाती है उनको आज दुनियाँ ॥”
कब किसको वक्त की चोट लग जाय, कह नहीं सकते ? गाँव-गलियाँ, दरो-दीवार, संस्कृति-सभ्यता, घर-चौबारा, बाग-बगीचा, नदी-पोखर, कुआँ-तालाब.. आज हर जगह कुछ न कुछ बदलाव दिखायी दे रहा है, कुछ बदलाव ज़रूरत के साथ-साथ, वक्त की माँग हैं, कुछ बदलाव बदलते परिवेश के कारण अपनी निजी ज़रूरतों, आकांक्षाओं के चलते हो रहे हैं, इन्हीं बदलावों में से एक सबसे बड़ा बदलाव, आजकल ज़्यादा दिखाई दे रहा है, वो है, गाँवों से शहरों की तरफ़ पलायन ।
इस पलायन ने गाँवों की पुरानी संस्कृति सभ्यता के साथ-साथ, गाँव से जुड़े तमाम जीवन संयंत्रों का ह्वास किया है, इन्हीं में से एक प्रमुख ह्वास है, जल के विभिन्न स्रोतों का…
चाहे वो नदियों-तालाबों का हो या पोखरों-बावड़ियों का, दशक दो दशक पहले ये हर गाँव की शोभा हुआ करते थे, शोभा के साथ-साथ ये जलस्रोत, गाँव की तमाम ज़रूरतें भी पूरी करते थे.. चाहे वो सिंचाई हो घरेलू ज़रूरतें हों, लोग कुँओं, तालाबों और नदियों पर निर्भर रहते थे । इन जलस्त्रोतों की सबसे बड़ी ख़ासियत थी कि इनमें बरसात का पानी भी संचयित होता था । जिससे ये सालो-साल कृषिभूमि की सिंचाई के साथ जीवन-यापन के लिए भी पर्याप्त जलापूर्ति करते थे । प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर ये जलस्रोत कृषिभूमि की उर्वरता भी बनाए रखते थे । अनाज की भरपूर पैदावार होती थी, इसके अलावा बिना रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक दवाइयों के, मामूली खर्च पर की गई खेती से इंसान तमाम बीमारियों से भी बचा रहता था ।
परंतु विकास के नाम पर धीरे-धीरे नलकूपों, नलों जैसे बहुत से नवीन जलस्त्रोतों का अविष्कार हुआ और लोग इन पुराने जलस्त्रोतों को नज़रंदाज़ करने लगे । जिसके परिणामस्वरूप आज ये स्थिति है, कि तालाबों, नदियों से निकली छोटी-कटी, नदियों पर लोगों ने अतिक्रमण करके क़ब्ज़ा कर लिया और अपने घर, मकान, दुकान बना लिए ।
जो कुएँ पानी के अतुल्य स्रोत थे, आज वे जर्जर और सूखे पड़े हुए हैं, कुएँ और तालाब जैसे जलस्त्रोत गाँवों की जीवनज्योति के साथ-साथ आपसी एकता और समरसता के भी प्रतीक थे.. एक कुएँ पर कम से कम दस परिवार पानी भरता था ।
उदाहरण के तौर पर मेरे ख़ानदान के कुएँ पर, पूरा गाँव पानी भरता था। हमारे कुएँ का विवाह आम के बाग के साथ हुआ था । इस परम्परा को निभाने के लिए पहले कुआँ खुदाया गया साथ ही साथ आम का बहुत बड़ा बाग लगाया गया और धूमधाम से आम और कुएँ का विवाह हुआ, कई गाँवों का भोज हुआ था.. तत्पश्चात् हमारे गाँव के पास की, पचास गाँवों की आबादी शादी-विवाह में उस कुएँ के फेरे करने आती थी और हम लोग बचपन में गर्मी की छुट्टियों में ये सारी रस्में देखते थे । ये परम्परा पर्यावरण संरक्षण का भी संदेश देती थी ।
हालाँकि आज भी शादी- विवाह में उस कुएँ के फेरे की मान्यता है, परंतु जब इस बार मैं गाँव गई तो उस कुएँ की दुर्दशा देख मन द्रवित हो गया गया । कुएँ के किनारे ख़ाली ज़मीन पर जहाँ लोगों की भीड़ होती थी, लोग खड़े होकर पानी भरते थे, मेरे ही ख़ानदान के लोगों ने दीवार बना के क़ब्ज़ा कर लिया है, कुएँ की तलहटी में पानी अभी भी मौजूद है, परंतु वो जर्जर, बेहाल और जंगली पौधों से पटा हुआ है, जिस कुएँ की साल भर में सफ़ाई होती थी, पूजा होती थी, शादी विवाह में मान्यता थी, वही कुआँ मुझे आज अपनी बेहाली पर, धाड़ मार-मार के रोता हुआ दिखायी दे रहा था । मैं भी क्या करती ? मुँह ज़ुबानी लोगों से ये कह के चली आई, कि इस कुएँ का पानी पियो न पियो तुम्हारी मर्ज़ी, परंतु सफ़ाई तो कराते रहना चाहिए । आख़िर बाप-दादा ने बड़े अरमान से खुदवाया था ।
जिज्ञासा सिंह
लखनऊ
स्त्री-सशक्तिकरण
रीनू आज बहुत परेशान है ?
आधे घंटे से बर्तन धोती जा रही और दुपट्टे के किनारे से अपने आँसुओं को पोंछती जा रही ।
राधिका अभी-अभी स्त्री-सशक्तिकरण के किसी कार्यक्रम में अपना विचार रख के लौटी है.. जिसका विषय था "घरेलू कामगार स्त्रियों का शोषण" ।
पानी पीते हुए उसने पति को कार्यक्रम की सफलता और अपनी वाहवाही के किस्से सुनाने शुरू ही किए थे कि चाय रखती हुई रीनू ने दहाड़ मारकर रोते हुए उसका हाथ पकड़ लिया और बोली..
" मेमसाहब पहले मुझे न्याय दीजिए, फिर और किसी को न्याय दिलाइएगा ।अब मुझसे नहीं रहा जाता, आज आपकी बात सुनकर इतनी हिम्मत आई है, कि आपसे कुछ कह सकूँ ।”
“अरे क्या बात है बेटा ? तुम इस तरह क्यों रो रही हो ? क्या हुआ ? कुछ बताओगी या यूँ ही रोती रहोगी ।”
“ये.. ये.. साहब..”
इतना बोलते ही सामने बैठे साहब का चेहरा फ़क्क से उड़ गया, वो बनावटी आश्चर्य के साथ, पत्नी की निगाह बचाकर उसे घूरते हुए बोले..
“किसने ? क्या किया ? बताओ.. बताओ.. तो सही, हम तुम्हारी हर समस्या का हल ढूँढेंगे ।”
रीनू की उँगलियाँ साहब की तरफ़ उठी की उठी रह गईं और वह चुप हो, उनके इशारे को देखने लगी । फ़ोन की तरफ़ जाती साहब की निगाह और इशारे ने उसे एक बार फिर ये समझा दिया था कि रीनु के कुछ राज़, जो साहब ने फ़ोन में क़ैद कर रखे हैं, रीनु के मुँह खोलते ही मेमसाहब के साथ-साथ, दुनिया के सामने आ जाएँगे.. और लोग उसका और उसके माता-पिता का जीना दूभर कर देंगे ।
उसने अपना इरादा बदल दिया, मेमसाहब के लाख पूँछनें पर भी, “स्त्री-सशक्तिकरण” पर अपने विचार नहीं रख पाई ।
**जिज्ञासा सिंह**