उलझन (विश्व पर्यावरण दिवस)

“तुम्हीं हो न केशव! जो उस दिन.. अपने गेट पर खड़े नीम का पेड़ कटवा रहे थे.. मेरे मना करने पर दुनिया भर की सफ़ाई दी।"

"ये बड़ा आड़ा-तिरछा जा रहा है भाई साहब, जड़ घर में घुस रही है.. तुम तो तुम! भाभी जी भी मेरी बात काटने लगीं कि मेरे बच्चों को पेड़ की छाँव की वजह से घर में आते अँधेरे से उलझन होती है, बहुएँ भी पत्तियों के कूड़े से परेशान हैं, ऊपर से अभी छोटे वाले पोते ने बीन-बीन निमौरी अपने मुँह में ठूँस ली, भाई साहब! हमारे ही बचाने से थोड़ी न प्रकृति संरक्षण होगा हमें तो बड़ी उलझन हो रही है इस पेड़ से! 

"मित्र! उस दिन तो तुम्हारे परिवार को उलझन हो रही थी..
अब तुम्हीं दोनों  सुबह-शाम एक ही रोना रोते हो कि बड़ी गर्मी है.. बड़ी गर्मी है.. 
भला बताओ! पेड़ नहीं होंगे, बगिया फुलवारी, जल-जंगल नहीं होंगे तो हवा कहाँ से चलेगी? हवा नहीं होगी तो गर्मी तो होगी ही। जवान लोगों को तो हम बूढ़ों से भी उलझन है, तो क्या हम कुएँ में कूद जायँ?"

राजेश की बात का समर्थन करते हुए लालजी ने कहा.. 
"सही कह रहे हो यार! तुमने देखा नहीं कि मैंने तो अपने छोटे से घर में ही इतने पेड़- लगा रखे हैं कि मेरा बुढ़ापा आराम से उनकी सेवा में गुज़र रहा है, ऊपर से चिड़ियों का बसेरा.. लेकिन मजाल है.. घर में कोई एक पत्ता भी बिन मेरी मर्ज़ी के तोड़ ले, मैंने ऐसे नियम बनाए हैं, कि किसी घरवाले की उलझन उसे तोड़ नहीं पाती।"

पार्क में बैठी मित्रों की मंडली ताली बजाकर हँस पड़ी।

जिज्ञासा सिंह