स्त्री-सशक्तिकरण

रीनू आज बहुत परेशान है ?

आधे घंटे से बर्तन धोती जा रही और दुपट्टे के किनारे से अपने आँसुओं को पोंछती जा रही ।        


राधिका अभी-अभी स्त्री-सशक्तिकरण के किसी कार्यक्रम में अपना विचार रख के लौटी है.. जिसका विषय था "घरेलू कामगार स्त्रियों का शोषण" ।

  पानी पीते हुए उसने पति को कार्यक्रम की सफलता और अपनी वाहवाही के किस्से सुनाने शुरू ही किए थे कि चाय रखती हुई रीनू ने दहाड़ मारकर रोते हुए उसका हाथ पकड़ लिया और बोली..


" मेमसाहब पहले मुझे न्याय दीजिए, फिर और किसी को न्याय दिलाइएगा ।अब मुझसे नहीं रहा जाता, आज आपकी बात सुनकर इतनी हिम्मत आई है, कि आपसे कुछ कह सकूँ ।”


“अरे क्या बात है बेटा ? तुम इस तरह क्यों रो रही हो ? क्या हुआ ? कुछ बताओगी या यूँ ही रोती रहोगी ।”

“ये.. ये.. साहब..”

इतना बोलते ही सामने बैठे साहब का चेहरा फ़क्क से उड़ गया, वो बनावटी आश्चर्य के साथ, पत्नी की निगाह बचाकर उसे घूरते हुए बोले..

“किसने ? क्या किया ? बताओ.. बताओ.. तो सही, हम तुम्हारी हर समस्या का हल ढूँढेंगे ।”

 रीनू की उँगलियाँ साहब की तरफ़ उठी की उठी रह गईं और वह चुप हो, उनके इशारे को देखने लगी । फ़ोन की तरफ़ जाती साहब की निगाह और इशारे ने उसे एक बार फिर ये समझा दिया था कि रीनु के कुछ राज़, जो साहब ने फ़ोन में क़ैद कर रखे हैं, रीनु के मुँह खोलते ही मेमसाहब के साथ-साथ, दुनिया के सामने आ जाएँगे.. और लोग उसका और उसके माता-पिता का जीना दूभर कर देंगे ।

उसने अपना इरादा बदल दिया, मेमसाहब के लाख पूँछनें पर भी, “स्त्री-सशक्तिकरण” पर अपने विचार नहीं रख पाई ।


**जिज्ञासा सिंह**

ख़ानापूर्ति


“मैम !

 आप नहीं गईं मेडिकल कॉलेज.. गीता मैम को देखने.. सारी टीचर्स गयी हैं आज 

 जूनियर टीचर शैली ने प्रिन्सिपल मैम से बड़े स्नेह से पूँछा 


अरे इसमें देखने वाली क्या बात है ?”


क्यों मैम बीमारी की स्थिति में तो देखने जाना चाहिए न ? बस एक आप ही हैं, जो कह रही हैं.. कि देखने क्या जाना ? ऐसा क्यों मैम ? गीता मैम स्कूल की इतनी पुरानी और आपकी चहेती टीचर हैं, ऊपर से आपसे इतने अच्छे संबंध ।आजकल तो सभी लोग अपने बीमार मित्र या रिश्तेदार को देखने जाते है, क्या आपकी उनसे किसी बात पे नाराज़गी है क्या ?


नहीं शैली ! नाराज़गी की तो कोई बात नहीं मैं इसीलिए नहीं जा रही कि वो मेरी अज़ीज़चहेती टीचर हैउसे दिखावे के लिए, देखने क्या जाना ..?”


..सोचती हूँ,जाने से पहले छुट्टी लूँ कम से कम एक हफ़्ते कीकुछ पैसे निकालूँ बैंक सेउसकी सेहत के लिए कुछ बनाऊँ अपने हाथों से.. फिर जाऊ उसके पास  देखने नहीं.. उसकी सेवा करने.. खिला-पिला के सेहतमंद करने और तुम तो जानती ही होकि उस बेचारी के ख़ुद के अलावा कोई कमाने वाला नहीं है । इस समय उसे पैसे की बहुत ज़रूरत होगी, हो सकेगा तो लौटते वक्त कुछ पैसे भी उसके हाथ में रख दूँगी 


“ओह तो ये बात है..” शैली अचरज में भर गई ।

प्रिन्सिपल ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए, जारी रखी.

 “शैली हमें किसी के दुःख में “ख़ानापूर्ति” करने के बजाय तन-मन-धन से दर्द का हिस्सेदार बनने की कोशिश करनी चाहिए.. बीमारी में हर रोगी को प्रेम, सहानुभूति और सेवा सुश्रूषा की ज़रूरत होती है ?


**जिज्ञासा सिंह**