पैदाइश

क्या सुबह से ही किच-किच मचाए हो तुम ? 

अरे यार अब तो छोड़ो ! इन्हें जीने दो अपनी ज़िंदगी !” 

कब तक अपनी दुहाई देते रहोगे ?”


.. हमने ये कियाहमने वो किया..हम आठ किलोमीटर पैदल चलकर पढ़कर बड़े हुए हैंहमारी अम्मा ने हमें चुपड़ी रोटी पूरे साल टिफ़िन में अचार के साथ दी फिर भी हमने उफ़्फ़ नहीं किया और एक तुम हो हर वक्त तुम्हें कुछ  कुछ कमी पड़ी रहती हैये ब्रांड..वो ब्रांड..ये पिज़्ज़ा..वो ड्रिंक..उफ़्फ़ !!”


कुछ तो ये औलादें कुछ तुम.. सबने मिलकर जीना मोहाल कर दिया हैये घर है,अखाड़ा नहीं 

.. आज रेणुका कहे जा रही थी और बाप-बेटा सुन रहे थे 


क्यों हर वक्त अपना उदाहरण देते रहते हो.. माना हमें बीती तारीख़ों से सबक़ लेना चाहिए पर अपना ज्ञान अगली पीढ़ी पर इतना भी  थोप दें कि उनकी अपनी समझ अपनी बुद्धि का विस्तार ही रुक जाय  ये भी तो सोचो वे हमारी संतान के अलावा इस दुनिया के एक इंसान हैजो हमारे समय में नहीं पैदा हुए हैये आज के समय की पैदाइश हैं ।”


**जिज्ञासा सिंह**

बुढ़ापे की कढ़ाई

मेरी दादी तो कमाल हैं माशा अल्ला !

आज भी इतनी दुरुस्त हैंकि क्या कहने ?

हुनरमंदी तो उनसे सीखनी चाहिए  अभी जब बेटी को लेकर घर गई थी मायके.. उनके पास.. अम्मी तो हाथ पे हाथ धरे बैठी दिखें और दादीजान कभी टोपियाँकभी जुराबेंकभी स्वेटर बनाती ही रहीं.. उन पंद्रह दिनों में     मेरे लिए एक जोड़ा दस्ताना भी बुन दिया.. हद तो तब हो गई जब दादा साहब को भेज सिलाई मशीन ठीक कराई और पाँच फ़िराकें सिल डालींमेरी गुड़िया की.. पहनापहना के दादा साहब को ऐसे दिखाएँ कि मैं भी  खुश होऊँ अपनी गुड़िया को देखकर.. याऽऽर ! क्या कहूँ ? अल्ला ताला उन्हें ऐसे ही उमर   नेमत करे और हम  इतनी ही ज़िंदादिल दादी देखते रहें !


आमीन !.. 

कुसुम ने ज़ेबा की बातें सुन ख़ुशी का एलार्म बजाया.. और गहरी साँस लेते हुए कुछ सोचकरबोली अम्मी कैसी हैं ?”


“ अरे दोस्त अम्मी का क्या कहूँ ? वो तो उमरदराज़ बुढ़िया की तरह पचपन साल की उमर में ही हो रही हैंहर वक़्तख़ाली बैठी दादी को ही नख़रेबाज़ बताती हैं  मैंने बहुत समझाया,पर वह कहाँ सुनने वालीं ? वही पुरानी आदत ?” 


उसी घर में में दादी नई-नई चीज़ें यूट्यूब से सीख के बुढ़ापे की कढ़ाई करती रहती हैं और अम्मी कोफ़्त में बूढ़ी हुई जारही हैं 


**जिज्ञासा सिंह**

टाँके

   क्या कर रही हैं माँजी ? इतनी देर से देख रही हूँआप बार-बार आँख बन्द करती हैं और खोलती हैंक्या है ? कोई बात है क्या ?”

अरे नहीं बेटा !

कोई बात नहींबस कुछ सिलन टूट गई हैउसी को सिलने में लगी हूँपर सिल ही नहीं पा रही ।

“बिना सुई धागे के ।”

“तुम्हें दिख नहीं रहा बस, है सुई धागा ।”

“ तो लाइए न,  मैं सिल देती हूँ

हुँह ! अरे बेटा ये कोई कपड़ा नहीं जो तुमसे सिलवा लूँये तो फटे हुए मन की दास्ताँ है ।जब ये फट रहा था तो मैंने इसे फटने दिया, अब सीना भी तो मुझे ही पड़ेगा 

ओह ! माँ जी मन का फटना तो सुना था सिलाई तो नहीं सुनी 

सही कह रही हो बेटा । अब इसे सिल तो पाऊँगी नहीं  ये पहले जैसा हो ही सकता हैसोचती हूँज़िंदा रहने के लिए कुछ टाँके ही लगा दूँ ।”


**जिज्ञासा सिंह**