वृद्धाश्रम में रहते मित्र की मृत्योपरांत, केशव और वृद्धाश्रम संचालक, उनके बेटे को फ़ोन करते रहे पर वह नॉर्वे से नहीं आया। निराश केशव ने अंतिम संस्कार स्वयं करने की इच्छा अपने बेटे ऋषभ को बताई। बेटा रोष में बोला,
“पापा! मित्रता आश्रम तक ही रहे घर मत लाइएगा।”
बेटे के दुर्भाव से आहत पिता ने मित्र का क्रियाकर्म कर, वृद्धाश्रम में ख़ाली बेड अपने लिए रिज़र्व कर लिया। घरवाले पेंशन का इंतज़ार करते रहे।
जिज्ञासा सिंह
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" बुधवार 29 मई 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएं"पाँच लिंकों का आंनद" में लघुकथा का चयन करने के लिए सादर धन्यवाद सखी।
हटाएंहार्दिक शुभकामनाएं।
पाश्चात्य सामाजिक मूल्य हमारे ऊपर इतना छा गए हैं कि अब हम अपने लिए अनुपयोगी वस्तुओं को और बूढ़े हो चुके आत्मीय जन को घर से-दिल से निकाल कर ही दम लेते हैं. सभी बुज़ुर्गों को फ़िल्म 'बागवान' ज़रूर देखनी चाहिए और अपने जीवन के सांध्यकाल में किसी पर भी भावनात्मक तथा आर्थिक रूप से निर्भर नहीं होना चाहिए.
जवाब देंहटाएंसमीक्षात्मक टिप्पणी ने लघुकथा को विस्तार दे दिया।
जवाब देंहटाएंसादर आभार सर।
कड़वा सच
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका सर।
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आदरणीय।
जवाब देंहटाएंभला किया, जो किया. चेत गए,समय रहते. थोड़े में बहुत कह दिया आपने, जिज्ञासा जी.
जवाब देंहटाएं