पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती थी परम्परा

 प्रकृति दर्शन पत्रिका में प्रकाशित आलेख:-


बावड़ी,तालाब,पोखर,कूप, नदियाँ।

ढूँढते अस्तित्व हैं, घर, गाँव, गलियाँ ।

बरस कुछ पहले थे खुश, आबाद जो,

भूलती जाती है उनको आज दुनियाँ ॥”


   कब किसको वक्त की चोट लग जाय, कह नहीं सकते ? गाँव-गलियाँ, दरो-दीवार, संस्कृति-सभ्यता, घर-चौबारा, बाग-बगीचा, नदी-पोखर, कुआँ-तालाब.. आज हर जगह कुछ न कुछ बदलाव दिखायी दे रहा है, कुछ बदलाव ज़रूरत के साथ-साथ, वक्त की माँग हैं, कुछ बदलाव बदलते परिवेश के कारण अपनी निजी ज़रूरतों, आकांक्षाओं के चलते हो रहे हैं, इन्हीं बदलावों में से एक सबसे बड़ा बदलाव, आजकल ज़्यादा दिखाई दे रहा है, वो है, गाँवों से शहरों की तरफ़ पलायन ।


    इस पलायन ने गाँवों की पुरानी संस्कृति सभ्यता के साथ-साथ, गाँव से जुड़े तमाम जीवन संयंत्रों का ह्वास किया है, इन्हीं में से एक प्रमुख ह्वास है, जल के विभिन्न स्रोतों का… 


       चाहे वो नदियों-तालाबों का हो या पोखरों-बावड़ियों का, दशक दो दशक पहले ये हर गाँव की शोभा हुआ करते थे, शोभा के साथ-साथ ये जलस्रोत, गाँव की तमाम ज़रूरतें भी पूरी करते थे.. चाहे वो सिंचाई हो घरेलू ज़रूरतें हों, लोग कुँओं, तालाबों और नदियों पर निर्भर रहते थे । इन जलस्त्रोतों की सबसे बड़ी ख़ासियत थी कि इनमें बरसात का पानी भी संचयित होता था । जिससे ये सालो-साल कृषिभूमि की सिंचाई के साथ जीवन-यापन के लिए भी पर्याप्त जलापूर्ति  करते थे । प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर ये जलस्रोत कृषिभूमि की उर्वरता भी बनाए रखते थे । अनाज की भरपूर पैदावार होती थी, इसके अलावा बिना रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक दवाइयों के, मामूली खर्च पर की गई खेती से इंसान तमाम बीमारियों से भी बचा रहता था ।


    परंतु विकास के नाम पर धीरे-धीरे नलकूपों, नलों जैसे बहुत से नवीन जलस्त्रोतों का अविष्कार हुआ और लोग इन पुराने जलस्त्रोतों को नज़रंदाज़ करने लगे । जिसके परिणामस्वरूप आज ये स्थिति है, कि तालाबों, नदियों से निकली छोटी-कटी, नदियों पर लोगों ने अतिक्रमण करके क़ब्ज़ा कर लिया और अपने घर, मकान, दुकान बना लिए । 


     जो कुएँ पानी के अतुल्य स्रोत थे, आज वे जर्जर और सूखे पड़े हुए हैं, कुएँ और तालाब जैसे जलस्त्रोत गाँवों की जीवनज्योति के साथ-साथ आपसी एकता और समरसता के भी प्रतीक थे.. एक कुएँ पर कम से कम दस परिवार पानी भरता था । 


    उदाहरण के तौर पर मेरे ख़ानदान के कुएँ पर, पूरा गाँव पानी भरता था।  हमारे कुएँ का विवाह आम के बाग के साथ हुआ था । इस परम्परा को निभाने के लिए पहले कुआँ खुदाया गया साथ ही साथ आम का बहुत बड़ा बाग लगाया गया और धूमधाम से आम और कुएँ का विवाह हुआ, कई गाँवों का भोज हुआ था.. तत्पश्चात् हमारे गाँव के पास की, पचास गाँवों की आबादी शादी-विवाह में उस कुएँ के फेरे करने आती थी और हम लोग बचपन में गर्मी की छुट्टियों में ये सारी रस्में देखते थे । ये परम्परा पर्यावरण संरक्षण का भी संदेश देती थी ।


   हालाँकि आज भी शादी- विवाह में उस कुएँ के फेरे की मान्यता है, परंतु जब इस बार मैं गाँव गई तो उस कुएँ की  दुर्दशा देख मन द्रवित हो गया गया । कुएँ के किनारे ख़ाली ज़मीन पर जहाँ लोगों की भीड़ होती थी, लोग खड़े होकर पानी भरते थे, मेरे ही ख़ानदान के लोगों ने दीवार बना के क़ब्ज़ा कर लिया है, कुएँ की तलहटी में पानी अभी भी मौजूद है, परंतु वो जर्जर, बेहाल और जंगली पौधों से पटा हुआ है, जिस कुएँ की साल भर में सफ़ाई होती थी, पूजा होती थी, शादी विवाह में मान्यता थी, वही कुआँ मुझे आज अपनी बेहाली पर, धाड़ मार-मार के रोता हुआ दिखायी दे रहा था । मैं भी क्या करती ? मुँह ज़ुबानी लोगों से ये कह के चली आई, कि इस कुएँ का पानी पियो न पियो तुम्हारी मर्ज़ी, परंतु सफ़ाई तो कराते रहना चाहिए । आख़िर बाप-दादा ने बड़े अरमान से खुदवाया था ।


जिज्ञासा सिंह

लखनऊ

4 टिप्‍पणियां:

  1. दिल को स्पर्श करके मन मुदित करती और अन्तत: कुये की दुर्दशा पर मन को वितृष्णा से भर देती है यह पर्यावरण की
    व्यथा कथा.
    यह कथा आज हर गाँव, नगर और शहर की व्यथा कथा है.
    जो कहानीकार की विहंगम
    दृष्टि और कथा शिल्प के साथ ही पाठक को यह सोचने को मजबूर कर देती है कि यह कहाँ आगये हम विकास की कल्पना लिये अपने ही विनाश की व्यवस्था करते हुये.

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    1. मेरे इस आलेख के मर्म पर आपकी दिव्यदृष्टि का हार्दिक स्वागत है, ये प्रतिक्रिया मेरे लेखन को ऊर्जापूर्ण दृष्टिकोण देगी आभार और वंदन आपका।

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  2. पर्यावरण का महत्व और वर्तमान परिस्थितियों में उसकी उपेक्षा जैसे ज्वलंत विषय पर चिन्तन परक विचारों के साथ साथ कुएँ और आम के बगीचे का ज़िक्र लेख को हृदयस्पर्शी बना गया । बहुत सुन्दर
    सृजन जिज्ञासा जी । प्रकृति दर्शन पत्रिका में लेख के प्रकाशित होने पर आपको बहुत बहुत बधाई ।

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  3. मीना जी आपकी ये प्रतिक्रिया मेरे लिए अतुलनीय है, इसे सहेज लूंगी, प्रेरणा मिलेगी। आभार आपका।

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