पहलू बदलता चाँद

     गाड़ी ड्राइव करते हुए गीतिका को चमकता चाँद अपनी ओर आता दिखा, ओह.. चाँद अब तुम्हें क्या देखूँ ?
..उसके मुख से एक टीस सी निकली और जाते हुए चाँद को देखती हुई, धीरे धीरे गाड़ी घर के अंदर पार्क कर दी और आराम से सीढियाँ चढ़ते हुए छत के ऊपर चली गई । अपने कमरे का ताला खोल ही रही थी कि...
  चाँद फिर कनखियों से उसे ताक रहा था.. वह सोचने लगी,
सच ये तो बिलकुल मेरे उसी चाँद की तरह है, जिसकी मैं दीवानी थी...और वो मुझे चाँद सितारों की दुनिया जैसे सपने दिखाने के बाद एक अमीरजादी के पल्लू में बंध गया, क्या कमी थी मुझमें ? बस पापा दहेज ही देने को तो राज़ी नहीं थे.. मैं तो अच्छा कमा ही रही थी ।
  सोचते हुए उसकी नजर फिर चाँद पर पड़ी, अब वो उसकी छत छोड़कर किसी और छत की मुंडेर पर छुप गया था.. बिलकुल उसके चाँद की तरह किसी और के पहलू में....

**जिज्ञासा सिंह**

16 टिप्‍पणियां:

  1. वीतरागी मन की व्यथा क्था! पर उस चांद का कैसा स्मरण और मोह जो किसी और आंगन में चांदनी की बरसात कर रहा। एक व्यथा ये भी जिज्ञासा जी। मन को छूती है ये मार्मिक रचना

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    1. बहुत आभार आपका कथा का मर्म समझ प्रतिक्रिया केके लिए। नमन और वंदन ।

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  2. इस कहानी के लिए चाँद से अच्छा प्रतीक हो ही नहीं सकता.

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  3. बहुत बहुत आभार आपका । ब्लॉग पर आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया का हार्दिक स्वागत है ।

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  4. चाँद की बेवफाई के बाद भी स्मरण तो आ ही जाता है । मन की व्यथा को कम शब्दों में बयाँ करती सुंदर लघु कथा ।
    चाँद समझना ही छोड़ दे न ...पर दिल है कि मानता नहीं 😄😄😄

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  5. बिलकुल सही कहा आपने । आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी,आपको मेरा सादर अभिवादन ।

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  6. बहुत ही सुंदर लघुकथा!
    छोटा पटाखा बड़ा धमाका!👌

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  7. प्रिय मनीषा बहुत आभार और प्यार 😀

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  8. ऐसे हरजाई चाँद के बिछड़ने का क्या ग़म?

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  9. सच कहा आपने, आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सर 🙏💐

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