एक पल की ख़ुशी

 रागिनी अपनी कार ढाबे से निकाल रही थी और सामने से एक औरत अपने दुधमुँहे बच्चे को शॉल में लपेटे आती दिखायी दे रही थी ,घूँघट से चेहरा ढका हुआ था,पर जब वो अपने बच्चे को सम्भालती तो उसके चेहरे की एक झलक दिख जाती,साथ में दो बड़े बच्चे और एक बूढ़ा आदमी भी दिखाई दे रहे थे। रागिनी के आगे कई गाड़ियाँ ज़ोर ज़ोर से हॉर्न बजा रही थीं उन्हीं शोरगुल में फँसी रागिनी को फिर उस औरत की झलक दिखायी दी उसने देखा तो वो औरत भी रागिनी को बड़े ध्यान से देख रही थी, आँखें चार होते ही वो औरत दौड़ती हुई रागिनी की गाड़ी की तरफ़ आई, उसका आँचल खुल गया था, पर सिर, फिर भी ढँका हुआ था, उसने आँचल ठीक करते हुए धीरे से कहा कि वो बूढ़े से आदमी हमरे ससुर हैं न दीदी, इसीलिए...और उसका इशारा आँचल की तरफ़ गया, जैसे कह रही हो कि उसने पर्दा उन्हीं से कर रक्खा है ।
             रागिनी को आवाज़ जानी पहचानी लग रही थी पर उस औरत को वो अभी भी पहचान नहीं पाई थी,औरत भी इस बात को समझ गई, वो चहक कर बोली अरे दीदी मैं रक्षाराम की बेटी सुमिंतरा..याद आया । मैके गए थे अरे ! अपने गाँव बिराहिनपुर । बियाह था न छोटे वाले भैया का । याद करो दीदी, कई साल पहले आप हमका पढ़ाए रहो चार किलास, हमरी बहन का भी पढ़ाए रहो, हमरी चाचा की लड़की रेखा का भी पढ़ाए रहो । अरे दीदी रेखवा तो प्राइमरी मा टीचर है, हम तव अस्पताल म चपरासिन हैं, लकिन रेखवा तव कुछ दिन मा बड़की मास्टराइन बन जाए, ख़ूब पैसा पीट रही है, हमहूँ आठ दस हज़ार रुपैया पाय रहे हैं, अब रेखवा की कौन बराबरी दीदी। रेखवा तो आपकी वही पुरानी बात गाँठ बाँधे रही थी कि पढ़ लिखकर कुछ अच्छा काम करो,नौकरी करो,चार पैसा कमाओ और अपना घर परिवार की स्थिति ठीक करो, हम लोग आप का रोज़ ही याद करत रहें कि,देखो न रागिनी दीदी कैसे पढ़ी लिखी है ? अपने गाँव का नाम रोशन किया है, खुद भी पढ़ीं और कितनो को पढ़ाय रही हैं, का हम अकेले अपना भी खुद नहीं पढ़ सकत । घर वाले नहीं पढ़ात रहे दीदी, लेकिन हम लोग घर में लड़ाई झगड़ा कर कर के किसी तरह पढ़ी औ हम चपरासिन,गोलू शहर म नौकरी कर रही, औ रेखा का का पूँछें, ऊ तो बढ़िया टीचर बन गई देखो, आज अपने ससुराल औ मैका सब सम्भाले है । दीदी आप तो गाँव आती ही नहीं, हम सब आपका कितना याद करें हमेशा,आपका क्या पता ? कितनी बात आपकी करें, लेकिन आप तो जीजा का छोड़ती ही नहीं हो । रागिनी को हंसी आ गई, आख़िर ऐसी बातें सुने ज़माना जो बीत गया था।
          सुमिंतरा अपनी बात कहती जा रही थी,और रागिनी ने धीरे धीरे अपनी गाड़ी, भीड़ कम होने पर, साइड में लगा ली और ड्राइविंग सीट के दरवाज़े से चिपकी अपने कामगार रक्षाराम की बेटी की सुंदर दास्तान सुनती जा रही थी और आज पहली बार पिता जी की कही बात याद आ रही थी कि निःस्वार्थ भाव से किया गया काम कभी ज़ाया नहीं होता ।और ऊपर से किसी को शिक्षित करना कब आपके जीवन में ख़ुशी का पल दे दे, आप ये सोच भी नहीं सकते ।अचानक सुमिंतरा के ससुर ने उसे आवाज़ दी और वो नमस्ते करके चली गयी और रागिनी के बच्चे भी कहने लगे कि माँ अब घर चलो । और वो गर्व का अनुभव करते हुए बच्चों से बातें करते हुए घर की तरफ़ चल दी।

      **जिज्ञासा सिंह**

27 टिप्‍पणियां:

  1. जो खुशी किसी को कुछ देकर मिलती है उसका सुख और आनंद शब्दों में नहीं लिखा जा सकता। बहुत प्रेराक कथा या प्रसंग ,जो इस बात का द्योतक है कि सद्भावना का हो या किसी पेड़ का बीज अंकुरित जरुर होता है और उसके हरियाने की खुशी अनिर्वचनीय है।

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    1. आपका बहुत बहुत आभार प्रिय रेणु जी,आपके प्रेरक शब्द हमेशा नव सृजन की प्रेरणा देते हैं।आपको मेरा सादर नमन।

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  2. ये एक पल की खुशी जीवन में हमेशा याद रहती है । किसी को शिक्षित करना या शिक्षा के प्रति रुचि जगाना सबसे ज्यादा महान कार्य है ।। प्रेरक कहानी ।

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    1. आपके ये सुंदर शब्द कहानी को सार्थक बना गए। आपको मेरा सादर नमन।

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  3. आपकी लिखी रचना सोमवार 2 ,अगस्त 2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  4. आदरणीय दीदी,
    मेरी इस कहानी के चयन के लिए आपका हार्दिक आभार एवम अभिनंदन, सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।

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  5. वाह,बहुत सुंदर। "निःस्वार्थ भाव से किया गया काम कभी ज़ाया नहीं होता"बिलकुल सही बात है।"🌼

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  6. बहुत आभार शिवम् जी। इस ब्लॉग पर भी आपकी प्रतिक्रिया, असंख्य आभार आपका।

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  7. सच कहा आपने। यथासंभव परिवेश में आनन्द फैलाते चलें, तनिक सेवा भाव जिलाते चलें।

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    1. बहुत आभार प्रवीण जी, आपके सुंदर शब्दों को नमन है।

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  8. शिक्षित करने जैसा पुण्य कर्म कितनी ज़िंदगियो़ के लिए प्रेरक हो जाती है न।
    सही में निःस्वार्थ भाव से किया गया काम दूसरों
    ,अपनापन,सम्मान सब किये गये कर्म की कमाई है।
    गंवई भाषा की मिठास से कहानी जीवंत चलचित्र सी प्रतीत हो रही।
    प्रिय जिज्ञासा जी आपका संदेश पाठकों तक पहुँच रही।

    सस्नेह बधाई

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    1. गंवई भाषा की मिठास से कहानी जीवंत चलचित्र सी प्रतीत हो रही।
      प्रिय जिज्ञासा जी आपका संदेश पाठकों तक पहुँच रही।...प्रिय श्वेता जीयापके सुंदर और प्रेरित करतीं पंक्तियाँ अभिभूत कर गईं।आपको मेरा सादर नमन।

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  9. वाह बहुत ही गहन कथा...मूल पर गुंथी हुई। सच कितना खरा और खूबसूरत होता है और खुशी भी।

    वो गर्व का अनुभव करते हुए बच्चों से बातें करते हुए घर की तरफ़ चल दी। ..मूल के गहन जाने का अहसास करवाती कथा..।

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    1. बहुत बहुत आभार कहानी का मर्म तक जा आपने कहानी को सार्थक कर दिया। सादर नमन।

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  10. निस्वार्थ भाव से देने का सुख और संतोष कुछ अलग ही होता है ! बहुत सुंदर

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    1. जी,आप आपका कहना शत प्रतिशत सही है,आपकी प्रशंसा को सादर नमन।

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  11. सुखद अहसास करा विश्वास जगाती बहुत सुंदर रचना।शब्द अवगुंठन क्षेत्रीय भाषा की और चार चाँद लगा रही है।

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    1. बहुत बहुत आभार पम्मी जी आपका। आपकी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया सृजन को सार्थक बना गई।

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  12. आज पहली बार पिता जी की कही बात याद आ रही थी कि निःस्वार्थ भाव से किया गया काम कभी ज़ाया नहीं होता
    बड़ों की सीख में ही संस्कृति का वास है !!शिक्षाप्रद रचना !!

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  13. अनुपमा जी,मेरे इस ब्लॉग पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणी का हार्दिक स्वागत है आपको मेरा सादर नमन एवम वंदन।

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  14. इसलिए तो कहा जाता है यदि आनंद खुले हृदय से बाँटो तो वापस लौट आता है कई गुणा ज्यादा । अति सुन्दर कथा सृजन ।

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  15. सचमुच इससे बड़ी खुशी कुछ हो ही नहीं सकती...और विद्या दान से बड़ा दान भी कुछ नही...।बहुत ही सुन्दर प्रेरक कहानी।

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  16. निस्वार्थ भाव से किया गया कार्य और उसकी सफलता से जो आत्मसंतुष्टि मिलती है, वह अनमोल होती है.
    प्रेरक!

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  17. बहुत बहुत आभार वाणी जी,आपकी प्रतिक्रिया ने कथा को सार्थक कर दिया ।

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  18. धीरे-धीरे इस कथा के सार को समझा मैंने। बहुत ही अच्छी कथा रची है आपने जिज्ञासा जी। ऐसे अच्छे अनुभव ही हैं जो जीवन एवं सत्कार्यों से विश्वास नहीं उठने देते।

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  19. बहुत बहुत आभार जितेन्द्र जी, आपका प्रोत्साहन मेरे लेखन का सम्बल है,आपको मेरा सादर नमन।

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