रामलीला प्रसंग”
‘कलावसुधा’ प्रदर्शकारी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका के जनवरी-मार्च विशेषांक में मेरा आलेख “करनैलगंज गोंडा की रामलीला - सांस्कृतिक धरोहर और सामाजिक संदेश” प्रकाशित है। प्रस्तुत आलेख में करनैलगंज की ऐतिहासिक रामलीला के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित करने की कोशिश की है। आशा है, मित्रगण रामलीला के संदर्भों को पढ़कर अपनी राय अवश्य देंगे।
- करनैलगंज गोंडा की रामलीला— सांस्कृतिक धरोहर और सामाजिक संदेश
- उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद के करनैलगंज के रामलीला मैदान में, दशहरे से एक दिन पहले एक बड़े से हिस्से को मंच में तब्दील कर दिया गया है और उस मंच पर एक प्रहसन चल रहा है, जिसमें एक युवक को, जिसका चेहरा नक़ाब से ढँका हुआ है, दो पुलिस वाले मोटरसाइकिल पर बीच में बैठाए हुए दाख़िल होते हैं, मंच पर पहुँचकर दोनों पुलिसवाले युवक को उतारते हैं और मंच पर पहले से सज्जित न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं, न्यायालय की कुर्सी पर विराजमान जज साहब के सामने उस युवक की सुनवाई होती है, जज साहब युवक को दोषी करार देते हैं और उसे फाँसी की सजा सुनाते हैं, न्यायालय की कार्यवाही पूर्ण होते ही जल्लाद, युवक के चेहरे को एक मोटे कपड़े से गर्दन तक ढँक देता है, तथा दो खंभे के बीच झूलते फाँसी के फंदे पर लटका देता है, युवक फाँसी पर झूल रहा है, दर्शक दीर्घा में तड़-तड़ तड़-तड़ तालियाँ गूँज रही हैं और लोग वाह-वाह कर रहे हैं, वहीं उसी भीड़ में फाँसी के मूल भाव से अनभिज्ञ लोग आश्चर्य में हैं, कि किसी को फाँसी देते समय आख़िर तालियाँ क्यों बज रही हैं, लोगों का आश्चर्य कुछ ही मिनटों में उस समय और बढ़ जाता है, जब फाँसी पर लटकी हुई लाश धीरे से नीचे उतारी जाती है और वह अचानक ज़िंदा हो, झुक-झुक लोगों का अभिवादन करने लगती है, लोगों की तालियाँ आसमान छूने लगती हैं, महिलाएँ भाव-विभोर हो जाती हैं और मंच के लाउडस्पीकर में बज रहा गीत उनके भावों को परवान चढ़ाने में आग में घी का काम करता है ...
- “इंसान का इंसान से हो भाईचारा
- यही पैग़ाम हमारा यही पैग़ाम हमारा”
- फाँसी की असलियत बाद में माइक पर अनाउंस होती है, असल में ये फाँसी सचमुच की फाँसी न होकर केवल प्रतीकात्मक फाँसी थी, ये केवल फाँसी का प्रहसन था जिसने तमाम दर्शकों को द्रवित और अचंभित कर दिया। इस फाँसी के प्रहसन का मंचन आज से नहीं बल्कि लगभग एक शताब्दी से हो रहा है, जिसे एक रामलीला कमेटी आयोजित करती है, प्रहसन में कमेटी के ही कलाकार न्यायाधीश, कोतवाल, सिपाही, मुंशी- दीवान और जल्लाद आदि का किरदार निभाते हैं, यह प्रहसन दशहरे के एक दिन पहले नवमी तिथि को मंचित किया जाता है, जिसमें दिखाते हैं, कि किसी दूसरे शहर से एक व्यापारी अपने बेटे के साथ यहाँ व्यापार करने आया है, एक स्थानीय व्यक्ति उसको अपने झाँसे में फँसाकर उसका सारा सामान लूटकर, उसके बेटे को अगवा कर लेता हैं, वह रोता है, चिल्लाता है, लोगों से अपनी मदद की गुहार लगाता है, जब लोगों को उसके साथ हुए दुर्व्यवहार का पता चलता है, तो वे उसे न्यायालय कमेटी में न्याय के लिए दरख्वास्त देने को कहते हैं, तत्पश्चात कमेटी व्यापारी के साथ हुए अन्याय को घोर अपराध की श्रेणी में रखकर, पूरे प्रकरण की तहक़ीक़ात करती है और अपराध सिद्ध होने पर फाँसी की सज़ा सुनाती है, फाँसी का उद्देश्य है कि अगर किसी के साथ अन्याय करोगे तो उसका दण्ड भी भुगतोगे। यह फाँसी का प्रहसन स्थानीय लोगों के साथ-साथ कई जिलों के लोग देखने आते हैं, तथा अपने साथ यह संदेश लेकर जाते हैं कि ग़लत काम का नतीजा ग़लत ही होता है।
- फाँसी की सज़ा का मूल उद्देश्य जनमानस में जागरूकता फ़ैलाना तथा समाज को भय मुक्त करना है, इसके अतिरिक्त बाहर से होने वाले व्यापार को बढ़ावा देते हुए लोगों को आपसी संबंधों को मज़बूत बनाने की प्रेरणा देना एवं व्यापार द्वारा आर्थिक स्थिति को संबल प्रदान करना भी है।
- यह प्रहसन करनैलगंज की रामलीला को विशिष्ट बनाते हुए अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की नींव को रेखांकित भी करता है कि जिस तरह त्रेता में श्रीराम ने रावण को दंड दिया था उन्हीं पदचिह्नों पर चलते हुए, हमारे समाज में आज भी न्यायाधिकारी द्वारा उचित माकूल दंड देने वाला प्रावधान है।
- यह ऐतिहासिक रामलीला उत्तर-प्रदेश के गोंडा जनपद के करनैलगंज कस्बे में आयोजित की जाती है, जिसका इतिहास लगभग 200 वर्ष पुराना है, करनैलगंज के एक शिक्षाविद् श्री आशीष कुमार सिंह जी के अनुसार पुरानी रामलीला जो करनैलगंज के गुड़ाही बाज़ार के श्रीराम जानकी मंदिर से प्रारंभ हुई थी, वह वर्ष के बारहों महीने चलती ही रहती थी, रामचरितमानस के विभिन्न प्रसंगों, कथाओं का मंचन कस्बे के लोगों द्वारा होता रहता था, उनके अनुसार उस रामलीला द्वारा जनता मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों का प्रचार-प्रसार होता था इसके अतिरिक्त लोगों में अपने संस्कृत-साहित्य का प्रचार भी मुख्य विषय था, उस समय रामलीलाएँ मनोरंजन का प्रमुख स्रोत हुआ करती थीं, विशेषतः यह रामलीला इन्हीं मूलभावों से प्रारम्भ हुई थी।
- पारंपरिक रामलीला लोगों के रोम-रोम में बसी थी, मंचन भी अच्छा होता था, परंतु कमेटी के कुछ सदस्य उसमें वृहद बदलाव लाकर रामलीला का विस्तार कर, उसका स्तर और ऊँचा उठाना चाह रहे थे, जिससे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों का जन-जन में प्रचार-प्रसार हो सके। बहुत विमर्शों के बाद इसका बीड़ा उठाया लाला बिहारी लाल पुरवार ने।
- अधिकांश प्रमाणित स्रोतों और जनश्रुतियों के अनुसार वर्ष 1933 में लाला बिहारी लाल पुरुवार ने रामलीला को नए स्वरूप में विकसित करने के लिए अपने मित्रों को साथ लेकर एक योजना बनाई और जनमानस के सम्मुख अपना प्रस्ताव रखा, प्रस्ताव पर आम सहमति के बाद करनैलगंज के ही एक व्यापारी ने रामजानकी मंदिर के सामने स्थित अपनी ज़मीन, रामलीला भवन बनाने के लिए दान कर दी। यह मंदिर करनैलगंज के गुडा़ही बाजार मोहल्ले में बना हुआ बहुत पुराना वही मंदिर है, जहाँ वर्षों से रामलीला होती आ रही थी। ज़मीन का अधिग्रहण होते ही लाला बिहारी लाल पुरवार ने रामलीला भवन बनवाने का कार्य प्रारंभ किया। एक तरफ़ भवन बनता रहा, साथी ही साथ सामने मंदिर में रामलीला भी होती रही। वर्ष 1954 में शानदार रामलीला भवन बनकर तैयार हो गया। उस वर्ष बहुत दिव्य-भव्य रामलीला हुई और प्रतिवर्ष होती रही। कुछ वर्षों बाद लाला बिहारीलाल पुरवार का निधन हो गया। उनके निधन के बाद उनके भाई साँवल प्रसाद पुरवार, उनके बाद उनके बेटे शिवकुमार पुरुवार ने रामलीला कमेटी का गठन करके पाटनदीन वर्मा, रघुनाथ प्रसाद शुक्ल, राममनोहर वैश्य सहित कई अन्य लोगों को कमेटी का पदाधिकारी बनाकर उन्हें जिम्मेदारी सौंप दी। तभी से रामलीला कमेटी पूरी जिम्मेदारी से रामलीला करवाती आ रही है। प्रतिवर्ष कमेटी में कुछ नए पदाधिकारियों का चयन होता है, जबकि कुछ पदाधिकारी पुराने ही होते हैं।
- 80 के दशक में यह रामलीला अपने चरम पर थी उन्हीं दिनों मैं भी करनैलगंज में शिक्षा ग्रहण कर रही थी उन दिनों रामलीला का बहुत आकर्षण था। पितृपक्ष के पहले दिन से ही रामलीला प्रारंभ हो जाती थी। जिसकी शुरुआत कलश पूजन से होती थी, उसके उपरांत एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती थी लोग सज-धजकर शोभायात्रा में सम्मिलित होते थे, रामलीला भवन से प्रारंभ शोभायात्रा पूरे कस्बे का चक्कर लगाते हुए वापस फिर रामलीला भवन लौट आती थी।
- नवरात्र दशहरा के बाद तक संपूर्ण श्री रामचरितमानस के प्रसंगों के घटना दृश्य के अनुसार लगभग एक माह तक, अलग-अलग लीलाओं का मंचन किया जाता रहा है, जिसमें राम जन्म, गुरुकुल प्रसंग, सीता स्वयंवर, राम बारात, राज्याभिषेक, वन गमन, भरत मिलाप आदि विभिन्न प्रसंग रामलीला भवन में मंचित होते हैं।
- जबकि राम-रावण युद्ध, लंका विजय तथा अयोध्या वापसी का मंचन रामलीला मैदान में आयोजित होता था।
- प्रवचन तथा सत्संग भी होते थे, जिनके माध्यम से लोग आध्यात्मिक ऊर्जा का संचयन करते थे।
- मनोरंजन के लिए नृत्य नाटिका भी आयोजित की जाती थी।
- आज के समय में तो कानपुर लखनऊ से भी नाटक कंपनियाँ आती है।
- आज की अपेक्षा उस समय मनोरंजन के संसाधनों की कमी होती थी, अतः रामलीला का विशेष आकर्षण था। घरों में उत्सव का माहौल होता था। लोगों की दिनचर्या रामलीला के अनुसार ही चलती थी, लोग जल्दी-जल्दी अपना कार्य पूर्ण करके रामलीला देखने चल देते थे, यह रामलीला करनैलगंज कस्बे के साथ-साथ जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में साल दर साल बहुत लोकप्रिय होती गई, यहाँ आने वाले दर्शकों की संख्या लगातार बढ़ती रही और वर्ष 1989 में दशहरे के दिन दर्शकों की संख्या तीन लाख तक पहुंच गई थी।
- चूँकि करनैलगंज, जनपद का एक प्रमुख कस्बा है, रामलीला व्यापारी वर्ग ही आयोजित करवाते थे अतः किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होती थी, कस्बे के हर घर से सहयोग मिलता था, यहाँ तक कि कस्बे में रहने वाले मुस्लिम और सिख समुदाय के लोगों द्वारा भी रामलीला की तैयारियों में सहयोग किया जाता था, सभी वर्ग के लोग रामलीला देखने आते थे। मुझे याद आता है कि एकबार भारत मिलाप की “लाग” निकल रही थी जिसमें मेरी मुस्लिम और सिख सहेलियाँ भी साथ चल रही थीं, “लाग” विशेष प्रकार की शोभायात्रा होती थी जिसमें सबसे आगे रामलीला के सजे-धजे पात्र चलते थे, उनके बाद विशिष्टजन, फिर आम जनमानस की टोलियाँ होती थीं जिनमें हमारे परिवार के लोग शामिल होते थे।
- कस्बे के लोगों के साथ-साथ आसपास के गाँवों के लोग भी उनमें शामिल होते थे।
- “लागें” रामलीला भवन से निकालकर पूरे कस्बे का चक्कर लगाती हुई रामलीला मैदान तक जाती थी।
- रामलीला मैदान के बारे में मौजूदा कमेटी के महामंत्री श्री कन्हैयालाल वर्मा जिनके पिता जी श्री पाटनदीन वर्मा जो कि रावण का पात्र निभाते थे, उन्हीं के नक्शेकदम पर चलते हुए आज वे खुद रावण के पात्र का जीवंत अभिनय करते हैं, उन्होंने बताया कि रामलीला मैदान भी लगभग 200 वर्ष पुराना है, पहले इसके किनारे-किनारे पीपल, बरगद, पाकड़ के बहुत पुराने पेड़ लगे हुए थे। जो चहारदीवारी का काम करते थे जिससे मैदान भी चिह्नित होता था। यहाँ पर अंग्रेजों के जमाने में परेड हुआ करती थी। राजनीतिक रैलियाँ होती थीं। इस रामलीला मैदान में बहुत भव्य द्वार हैं, एकबार रैली के दौरान रामलीला मैदान का द्वार गिर गया था जिसका पुनरुद्धार कटरा क्षेत्र के स्व. श्रीराम सिंह और नरसिंघ दत्त शुक्ला जी के सहयोग से हुआ था। मैदान में चार स्तंभ हैं, जो अशोक वाटिका, राम चबूतरा, लंका और नरसिंह नाम के हैं और चारों दिशाओं में स्थापित हैं, मैदान की चहारदीवारी से लगी हुई चारों तरफ़ दर्शक दीर्घा है, मैदान के बीच में रामलीला की लीलाओं का मंचन होता है, राम-रावण युद्ध तथा राम जानकी की अयोध्या वापसी का भव्य और विशेष मंचन यहीं इसी मैदान पर होता आ रहा है।
- प्रत्येक दिन के अनुसार प्रसंगों को नाटक की विधा में लिखा जाता है, पात्रों का चयन होता है , उनकी वेशभूषा, आभूषण और अस्त्र-शस्त्र निश्चित किए जाते हैं, चुने हुए पात्रों को अभिनय की बारीकियाँ सिखाई जाती हैं। पूरा-पूरा दिन रिहर्सल चलता रहता है। कमेटी में आज भी कई सदस्य ऐसे हैं जिनके परिवार के सदस्य कई पीढ़ियों से रामलीला का मंचन करवाते आ रहे हैं और पुरानी परंपरा का अनुसरण करते हुए विरासत की गरिमा को आगे बढ़ा रहे हैं।
- रामलीला के पात्रों के चयन और वेशभूषा के संबंध में जो जानकारी मिली उसके अनुसार, रामलीला में जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता था वह था पात्रों का चयन और उनकी साज-सज्जा।
- पात्रों का चयन उनकी कद काठी, तथा रंग-रूप के आधार पर होता था, जैसे श्रीराम के लिए सुगठित शरीर, साँवला-सलोना रंग, लक्ष्मण के लिए राम से थोड़े कम लम्बे युवक का चयन, हनुमान जी के लिए मोटा भरा हुआ शरीर और रावण सहित सभी राक्षसों के लिए हट्टा-कट्टा भारी-भड़कना पुरुष चयनित किए जाते थे।
- सबसे मुश्किल था स्त्री पात्रों का चयन। रामलीला स्थापना के साथ ही स्त्री पात्रों का अभिनय आज तक पुरुष वर्ग ही करता आ रहा है, जिसके लिए स्त्री समतुल्य कद-काठी के लड़कों जा चयन होता है, सूर्पनखा, सुरसा आदि राक्षसियों के लिए कुछ मोटे लड़कों को चुना जाता रहा है।
- रामलीला के पात्रों के लिए वस्त्र और शस्त्र तैयार करने की प्रक्रिया पारंपरिक और हस्तनिर्मित होती थी, जो कि स्थानीय कारीगरों, दर्जियों और लोहारों द्वारा की जाती थी, जिसे वे लोग अपनी कला और कौशल द्वारा सुंदर तथा जीवंत बनाते थे।
- पात्रों के हिसाब से कपड़े का चयन, किया जाता था जिनमें रेशमी, साटन, मखमल, बनारसी आदि प्रमुख कपड़े होते थे, उसके बाद उनकी रंगाई होती थी, रंगों का चयन पात्र के हिसाब से होता था, परंतु ज्यादातर गहरे और चमकीले रंगों का प्रयोग होता था जिससे पहनने वाले पात्र मंच पर आकर्षक दिखें। भव्यता लाने के लिए रंगे हुए कपड़ों की सुनहरे और चमकीले धागों से कढ़ाई की जाती थी, अलग पात्र अलग वस्त्र जैसे राम-लक्ष्मण के लिए पीला-केसरिया, सीता जी के लिए गुलाबी, नारंगी या लाल तथा रावण, कुंभकरण के लिए नीले, भूरे, बैंगनी जैसे गहरे रंगों का प्रयोग किया जाता था।
- उसके पश्चात उन वस्त्रों को सजाने के लिए गोटा पट्टी, मोती की झालरें, लड़ियों द्वारा अलंकृत किया जाता था।
- वस्त्रों के उपरांत बारी आती थी मुकुट और आभूषणों की, जिन्हें बनाने और सजाने का कार्य बहुत ही धैर्यपूर्वक, हाथों द्वारा किया जाता था, मुकुट और आभूषण विशेष रूप से लकड़ी, कागज़ और थर्माकोल से बनाए जाते थे, तैयार होने के बाद उन्हें मोतियों, शीशों, चमकीले पत्थरों और गोटों द्वारा सजाया जाता था।
- रामलीला के पात्रों के लिए जो सबसे विशेष और आवश्यक वस्तु की व्यवस्था करनी होती थी वह थी हर पात्र का अलग तरह का अस्त्र-शस्त्र। इसके लिए धातु और लकड़ी का प्रयोग किया जाता था और इन्हें भी हाथों द्वारा बनाया जाता था, जिसके लिए बढ़ई और लुहार की मदद ली जाती थी, रामलीला में उपयोग होने वाले धनुष, बाण, तलवार, गदा आदि विशेषतः लकड़ी और बाँस से बनाए जाते थे, अक्सर हल्के और पतले लोहे और पीतल का प्रयोग होता था जिससे कलाकार इन्हें आसानी से संभाल सकें। ये मुख्यतः सजावटी और दिखावटी ही होते थे, जो असली हथियारों के जैसे ही दिखाई पड़ते थे।
- इन हथियारों को ऐसे पत्थरों और शीशों से सजाया जाता था कि वे मंच पर चमकते हुए दिखाई दें और दर्शकों पर अपना प्रभाव डाल सकें।
- कलाकारों की सजावट में उनकी विशेष जूते-जूतियों का भी महत्व होता था वे ज्यादातर पारंपरिक कढ़े हुए होते थे और कारीगरों द्वारा बनाए जाते थे।
- कलाकारों के साज-सज्जा करने की ज़िम्मेदारी स्थानीय कारीगरों और उनके परिजनों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी निभाई जाती रही है। इस कला को आज भी कई परिवार सँजो रहे हैं, वस्त्रों और शस्त्रों की जो भी सामग्री स्थानीय बाज़ार में नहीं मिलती थी वह बाहर से मँगाई जाती थी।
- इसके अतिरिक्त वेशभूषा को सज्जित करने में प्राकृतिक रंगों जैसे हल्दी, चंदन, नीबू और फूलों के रंग का उपयोग किया जाता था।
- बीती सदी में करनैलगंज की रामलीला अपने सुंदर और भव्य स्वरूप में विख्यात थी।
- पिछले कुछ वर्षों में, जब से डिजिटल युग का समय आया, लोगों को धर्म, अध्यात्म और मनोरंजन सभी कुछ सोशल मीडिया पर मिलने लगा, जिसकी वजह से करनैलगंज की रामलीला की भव्यता में कुछ कमी आ गई थी। लोगों में रामलीला के प्रति उत्साह और उमंग की भावना कुछ कम हो रही थी, लोगों के अनुसार रामलीला कमेटी भी उतार महसूस कर रही थी, कुल मिलाकर रामलीला संकट की स्थिति में थी। वह संकट कोरोनाकाल में अपने चरम पर पहुँच गया, जब लोगों का आपस में मिलना-जुलना बंद हो गया, फिर भी कुछ सदस्यों ने केवल सांकेतिक रूप से ही सही पूजा-अर्चना के माध्यम से रामलीला को जीवित रखा। यूँ लगने लगा कि अब रामलीला कभी नहीं हो पाएगी परंतु मनुष्य का जीवन ही उत्साह और उद्देश्य की तलाश के लिए हमेशा व्यग्र रहता है, वह व्यग्रता दिखाई दे या न दिखाई दे, स्वभावतः मनुष्य प्रेरक ऊर्जा और उत्साह का समीकरण खोजता रहता है, वही कुछ करनैलगंज की ऐतिहासिक रामलीला के साथ भी हुआ। करोनाकाल खत्म होने के बाद कमेटी के सदस्यों और क्षेत्र के कुछ लोगों द्वारा ये मुद्दा उठाया गया कि इस ऐतिहासिक रामलीला का पुराना दिव्य-भव्य स्वरूप कैसे फिर से जीवित किया जाए, किस तरह रामलीला का वैभव लौटे। विचार-विमर्श और सार्थक मंथन के पश्चात करनैलगंज रामलीला कमेटी ने, मोहित कुमार पांडे के निर्देशन में एकबार फिर एक कर्मठ और जागरूक कमेटी गठित की है तथा नई तकनीक, नए संसाधनों के साथ रामलीला को पुनर्जीवित करने का सजीव प्रयास किया है और अब हर वर्ष एक दिव्य-भव्य रामलीला का आयोजन हो रहा है। जिसमें पहले दिन कलश पूजन के पश्चात भगवान श्रीराम के जन्म से लेकर रावण वध, लवकुश वीरता तथा भगवान श्रीराम के सरयू नदी के गुप्तार घाट से वैकुण्ठ धाम प्रस्थान होने तक यह रामलीला चल रही है।
- करनैलगंज को ऐसे ही नहीं “छोटी अयोध्या” कहा जाता है, यहाँ की रामलीला सिर्फ़ लीला न होकर पूरे करनैलगंज का गौरव थी और kअब फिर अपने गौरवशाली इतिहास को दोहरा रही है, जिसका मुख्य कारण इसका शानदार संचालन है, जिसमें रामलीला कमेटी कस्बे के किसी भी दुराग्रह और वैमनस्य को परे हटाकर आपसी मेलभाव को बढ़ाते हुए रामलीला आयोजित करती है। लोगों के मुख से रामलीला के भव्य आयोजन का प्रसंग अक्सर सुनने को मिल ही जाता है। परंतु आम दिनों में रखरखाव के बिना रामलीला मैदान आवारा पशुओं और गंदगी से बेहाल न हो जाए, इसके लिए प्रशासन को ध्यान देने की ज़रूरत है, जिससे रामलीला जैसे आयोजनों में लोगों का विश्वास दृढ़ हो और वे उत्साह के साथ अपनी ऐतिहासिक रामलीला को देखने जाएँ तथा आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक ऊर्जा को अपने अंदर समाहित करते हुए आनंद का अनुभव करें।
- संदर्भ:
- साक्षात्कार- श्री कन्हैयालाल वर्मा (महामंत्री रामलीला कमेटी, करनैलगंज)
- वार्तालाप- कविता वैश्य, रंजना सिंह (करनैलगंज निवासी)
- सूत्र- विकिपीडिया, दैनिक भास्कर, पत्रिका न्यूज़, जागरण डॉट कॉम आदि!
जिज्ञासा सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें