“कलावसुधा”
लखनऊ से प्रकाशित होने वाली ‘प्रदर्शकारी कलाओं की त्रैमासिक’ पत्रिका के पिछले अंक, जो कि “पारंपरिक खेल में संगीत, नृत्य और नाट्य प्रसंग” पर केंद्रित है, पत्रिका में प्रकाशित आलेख बहुत ही शोधपरक और महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ रोचक भी हैं।
खेलों में मानसिक और शारीरिक ऊर्जा का स्रोत किस तरह से, कहाँ से, एकाग्रता नियत करती है, गीत-संगीत किस तरह से ऊर्जा को प्रभावित और प्रवाहित करता है, पत्रिका में बहुत ही सुंदर साहित्य समृद्ध आलेख हैं। मेरा आलेख “कबड्डी, कुश्ती से सजी नागपंचमी की परंपराएँ” प्रकाशित है, इस विषय पर लिखते वक्त, गाँव के अपने लोगों से बातचीत करने की जो सुखद अनुभूति हुई, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
गीत-संगीत और खेल हमें जहाँ मानसिक और शारीरिक ऊर्जा प्रदान करते हैं, वहीं पर्व हमें जोश और उल्लास से भर देते हैं, परंतु जब किसी पर्व के दिन ही गीत-संगीत और खेलों का मेल हो, तो वह दिन एक सुंदर उत्सव में बदल जाता है, परिणाम स्वरूप हम अपनी दिनचर्या में एक अलग तरह के उत्साह और आनंद का अनुभव करते हैं, जो हमें हमारे भावी जीवन को नियोजित करने में महती भूमिका निभाता है।
हमारे देश में अलग-अलग राज्यों में तमाम ऐसे पर्व मनाए जाते हैं, जिनमें गीत-संगीत के साथ-साथ विभिन्न खेलों का आयोजन होता है। उन्हीं पर्वों में एक पर्व नागपंचमी पर्व अपना विशेष महत्व रखता है। श्रावण मास में मनाए जाने वाले नागपंचमी पर्व का धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व है, नागपंचमी पर्व शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है, धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस शुभ दिन पर नाग देवता की पूजा करने की बहुत प्राचीन और महत्वपूर्ण परंपरा है।
वैसे तो हमारी बहुत सी परंपराएँ विलुप्ति के कगार पर हैं, या फिर बहुत तेज़ी से उनका नवीनीकरण हो रहा है। परंतु नागपंचमी शहरों और ग्रामीण इलाक़ों में आज भी मनाई जाती है, हाँ शहरों और कुछ गाँवों में अब परंपरागत तो न के बराबर है, क्योंकि कहते हैं न.. कि “श्रद्धा का स्थान तर्क ने ले लिया और आस्था संदेह के घेरे में हो गई।”
ज़्यादातर गाँवों में नागपंचमी आज भी परम्परानुसार मनाने का चलन है, ये परम्पराएँ गाँवों के बड़े-बुजुर्गों और महिलाओं की वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं।
होली, दीवाली, दशहरा या रक्षाबंधन जैसे बड़े पर्व तो शहरों में परम्परा और आधुनिकता दोनों ही स्वरूपों में उत्सवित होते हैं, परंतु प्राकृतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को सँजोता नागपंचमी जैसे पर्व का असली उत्सव आज भी ज़्यादातर गाँवों में उल्लास और जोश से मनाने की परम्परा है।
नागपंचमी का पर्व देश के कई राज्यों में मनाया जाता है, जिनमें उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात और राजस्थान प्रमुख हैं। नागपंचमी के दिन सभी राज्यों में विशेषतः
नागों (सर्पों) की ही पूजा होती है, परंतु कुछ राज्यों में अपने विशेष प्रयोजनों की परंपरा भी चली आ रही है। इन प्रयोजनों में कुछ प्रमुख प्रयोजन इस प्रकार हैं, जैसे;
- नागपंचमी की प्रातः सर्वप्रथम नागों (सर्पों) की पूजा होती है, मान्यता है कि इस दिन ऋषि आस्तिक ने नागों के अस्तित्व को बचाने के लिए अपना यज्ञ रोक दिया था। दूसरी मान्यता है कि नागों की पूजा-अर्चना से, उनके काटने पर होने वाले अनिष्ट का भय कम हो जाता है, कालसर्पदोष, विषजन्य मृत्यु, अकालमृत्यु से भी मुक्ति मिलती है। इसके अतिरिक्त गाँवों में नागपंचमी का महत्व इसलिए भी बहुत अधिक है कि किसान लोग नागों को अपनी फसलों का रक्षक मानते हैं, मान्यता है कि नाग खेतों में चूहों और कीट-पतंगों से फसलों की रक्षा करते हैं। नागपंचमी की सच्ची पूजा करने पर फसल अच्छी होती है, अनाज का भंडार कभी ख़त्म नहीं होता।
- कहीं-कहीं सर्पों के साथ-साथ बिच्छू, गोजर, कनखजूरे की मिट्टी की प्रतिकृति बनाई जाती है और उन्हें दूध, मखाने और कच्चे चने का भोग लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त एक प्रथा है अपने खूँटे में बँधे जानवरों की पूजा करने का। सर्वप्रथम घर के पुरुष नाँद और चरनी को ख़ूब साफ़-सुथरा करते हैं जानवरों को भी नहला-धुलाकर साफ़-सुथरा किया जाता है, उनकी सींगों को गेरू से रंगा जाता है, और घुँघरुओं, घंटियों की माला भी पहनाई जाती है, तत्पश्चात् उनकी चरनी और नाँद की पूजा की जाती है, फिर उन्हें लप्सी खिलाकर, मुलायम चारा खिलाया जाता है, ये प्रथा अवध क्षेत्र के कई ज़िलों में प्रचलित थी। जो लगभग विलुप्ति के कगार पर है, परंतु कहीं-कहीं अभी भी प्रचलित है।
- एक प्रथा है गुड़िया पीटने की… ये प्रथा उत्तर प्रदेश के कई गाँवों में बड़े उल्लास से मनाई जाती है इस प्रथा में कुँवारी लड़कियाँ रूई भर-भर के कपड़े की गुड़िया बनाती हैं, कहीं-कहीं ख़ाली कपड़े की ही होती है, जिसे गाँव के तालाब के किनारे लड़कियाँ फेंकती जाती हैं, और लड़के नरकट के पत्तियों भरे डंठल से गुड़ियों को पीटते हैं, मेरे बचपन में सफ़ेद कपड़े को हल्दी से रंग के ताई जी गुड़िया बना देती थीं । हर गुड़िया के साथ एक गुड्डा भी होता था। हम गुड़िया फेंक देते थे और गुड्डा उठा लाते थे उसे सुखाकर अपनी गुड़िया की बकसिया में रख देते थे।
- गुड़िया पीटने की प्रथा के पीछे कई कहानियाँ प्रचलित हैं, जिनमें एक कहानी को विशेष मान्यता है, जो इस प्रकार है… एक भाई-बहन भगवान शिव के भक्त थे वे नित्य मंदिर जाकर पूजा करते थे, एक सिन एक नाग आकर भाई के पैर के पास रेंगने लगा, बहन ने समझा वह काटने जा रहा है, और उसने पा ही पड़े एक डंडे से मार दिया। दर्शन करने मंदिर आए लोगों और पुजारी ने कहा कि बहन ने निर्दोष सर्प की हत्या की है, उसे पाप लगेगा। अतः उसे दंड मिलना चाहिए, पर बहन को मारा तो जा नहीं सकता। पुजारी ने सुझाव दिया कि बहन की जगह कपड़े की लड़की बनाकर उसे भाई पीट दे तो उसका पाप ख़त्म हो जाएगा। इस कथा से बचपन की एक रोचक कथा याद आती है, मेरा घर का नाम गुड़िया था और मेरे चचेरे भाई ने हँसी-हँसी में, गुड़िया की जगह मुझे ही पीट दिया था फिर बाबा जी ने उनको, गुड़िया बनाने में देर नहीं की और अपने सोंटे से दनादन्न पीट दिया था।
- नागपंचमी पर एक बहुत महत्वपूर्ण और विशिष्ट आयोजन की परंपरा है… नागपंचमी के दिन ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के खेल और खेलों के साथ गीत-संगीत का सुंदर और रोचक सामंजस्य। खेलों में कबड्डी, कुश्ती, लंबी कूद, ऊँची कूद प्रमुख हैं। जबकि गीतों में लोकगीत… जिनमें देवीगीत, भोलेनाथ और नागों के ऊपर सुंदर मनोहारी भजन तथा तरह-तरह के देशज तथा हास्य-व्यंग के लोकप्रिय गीत। इन गीतों के साथ ढोल-मंजीरे और नगाड़े बजते हैं, जो माहौल को सुंदर और रंगीन बनाते हैं। इन परंपराओं का सामाजिक ताने-बाने और स्थानीय जन-जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
- इसी प्रभाव का आँखों देखा दृश्याँकन लिखने की एक कोशिश है प्रस्तुत आलेख में…
“कबड्डी का मैदान है
गोरी पहलवान है
है है है है है है है
हय हय हय हय हय
यय यय्य यय यय्य”
- ये बोल हैं कबड्डी के और बोल रही है, सत्रह साल की पुष्पा।
- पुष्पा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के अहिमामऊ गाँव की कबड्डी टीम की सदस्य हैं, उनके साथ मैदान में सीता, सावित्री, कुसुमकली, फूलकुमारी, पूनम और सरोज ने भी कमर कस ली है, नागपंचमी त्योहार के उपलक्ष्य में कबड्डी की टीम की युवतियाँ रंगबिरंगे कपड़े पहनें अपनीं-अपनी श्वाँस थामने को तैयार हैं। विरोधी टीम पड़ोस के गाँव की है, वहाँ की युवतियाँ भी सजी सँवरी मैदान में उतर चुकी हैं।
- अहिमामऊ गाँव में महिला कुश्ती की भी बहुत पुरानी अनूठी परंपरा है, जिसमें महिलाएँ साड़ी पहनकर ऐसी कुश्ती लड़ती हैं कि देखने वालों के दाँत खट्टे कर देती हैं, दर्शक बनीं महिलाएँ ढोलक बजाती हैं और सबसे पहले देवी गीत गाती हैं, देवीगीत से ही दंगल के अखाड़े की पूजा होती है और तत्पश्चात कुश्ती का शुभारंभ हो जाता है, चलते हुए दाँव-पेंच के बीच महिलाएँ अजब-गज़ब गाने गाती हैं, जो जोश के साथ-साथ लोगों का मनोरंजन भी करते हैं, सखियों को चिढ़ाने और चढ़ाने के एक मनोरंजक गाने के बोल कुछ इस तरह हैं,
“दाएँ झटका बाएँ झटका
धोबी के पाटा पे धोय-धोय पटका
नन्हका हार गईं जीत गईं बड़का”
- उसी कबड्डी को समर्पित एक और गीत,
“जीति लियो हो पंचमियाँ कय दंगल
जे कोई जीती वो खाई रसगुल्ला
हारि गए पर सखी पइहौ तू गंगाजल
यहि पंचमियाँ का भोले बाबा अइहैं
साथ लिए अइहैं साँप सब दल-बल”
- अहिमामऊ में इस आयोजन की शुरुआत लगभग २०० वर्ष पूर्व अहिमामऊ के नवाब की बेगम नूरजहाँ और कमरजहाँ ने नागपंचमी पर महिला दंगल की परंपरा शुरू की थी, तब से अब तक ढोल-मंजीरे के साथ ज़ोर-शोर से इसका आयोजन होता आ रहा है। उस वक़्त दंगल में जीत पर अशर्फ़ी और हार पर चाँदी का सिक्का दिया जाता था। और अब जीतने वाली महिलाओं को साड़ी और नक़दी दी जाती है, वहीं क्षेत्र के प्रतिष्ठित लोग अपनी तरफ़ से भी इनाम देते हैं। अखाड़े में जहाँ महिलाओं की भीड़ दिखती है वहीं आयोजन स्थल पर पुरुषों का आना मना होता है।
- वहीं उसी नागपंचमी के दिन उत्तर प्रदेश के ही ज़िले गोंडा के पाल्हापुर गाँव के चारागाह चचरी में भी, युवाओं और छोटे बच्चों की अलग-अलग टोली भी, गोला बनाए कुश्ती और कबड्डी के ताल ठोंक रही है, और साँसों पर चढ़ा हुआ है कबड्डी का बहुत प्रसिद्ध बोल…
“छल कबड्डी आल-ताल
मरि गए बिहारी लाल
लाल लाल लाल लाल लाल
लाल्ल लाल्ल ललल्ल ल्लाल
ल्ल ल्ल ल्लल्ल ल्लल्ल”
- चूँकि पाल्हापुर ग्राम सभा के अन्तर्गत ही पिताजी का मूलनिवास है, और वे युवावस्था में हॉकी, कुश्ती, कबड्डी के मँझे हुए खिलाड़ी थे और अपने क्षेत्र के अंदर बहुत से सामाजिक कार्य किए हैं, अतः उनके द्वारा ज्ञात हुआ कि उनके गाँव में सावन के महीने के पर्वों पर भिन्न-भिन्न आयोजन होते थे, जैसे नागपंचमी पर कबड्डी, कुश्ती, ऊँची कूद और लंबी कूद। कई बार तो मुख्य आयोजक वही होते थे। मेरे पिताजी बहुत अच्छे तैराक थे। इस पर उन्होंने एक वाक़या बताया कि एक बार गाँव में बाढ़ आई हुई थी, तो उन्होंने तैराकी प्रतियोगिता भी कराई थी। जिस मुक़ाबले में उनके छोटे भाई ही उनके प्रतिद्वंदी थे। और पिताजी प्रथम आ गए थे, तो उनके भाई उनसे कई दिन बोले नहीं थे। फिर बड़े बाबा ने खेल में होने वाली हारजीत पर दोनों को बहुत प्रीक बातें समझाई थीं। ऐसी थीं हमारी रोचक परंपराएँ।
- नागपंचमी के दिन ही, सुल्तानपुर ज़िले के पिपरी गाँव के मैदान में पूरा गाँव इकट्ठा है, स्कूल के प्रांगण में, बरसों पुराने बरगद के नीचे पास-पड़ोस के कई गाँवों की महिलाओं का झुण्ड का झुण्ड खड़ा हुआ है, लड़कियाँ झूले पर पेंग मारने की तैयारी कर रहीं। कुछ महिलाएँ पास के पेड़ों पर टेक लगाए हँसी-मज़ाक का सावन गीत गा रहीं,
“मोरी ननदी का सँपवा
है चाहे पिया
कर दो बियाह पिया नाय
साँप लेने को आए
ननदी जाएँ लुकाए
अरे सँपवा गले मा
लिपटाओ पिया
कर दो बियाह पिया नाय ”
- वहीं झूले पे बैठी नव युवतियाँ जवाब दे रहीं हैं,
“झूला उड़य पवन संग जाय
भौजी क चुनरी उड़ि-उड़ि जाय
उड़ि चुनरी आकास म पहुँची
चंदा सुरज ललचाय
झूला उड़य पवन संग जाय”
- पिपरी गाँव की परंपरा पर बात करते हुए जूनियर हाई स्कूल के अवकाशप्राप्त शिक्षक बलिकरन सिंह ने बताया कि इस गाँव में मैं बीस वर्ष तक शिक्षक था, उस दौरान गाँव के मुख्य मंदिर के बग़ल में समारोह के लिए छोड़े गए स्थल पर बरगद पेड़ पर झूला पड़ता था तथा पुरुष वर्ग कुश्ती-कबड्डी सहित विभिन्न खेलों में भागीदारी करते थे।
- नागपंचमी के ही दिन इत्र से दूर-दूर तक अपनी सुगंध बिखेरने वाले उत्तर प्रदेश के ही ज़िले कन्नौज में दंगल-कुश्ती का अखाड़ा सज गया है और अखाड़े में बुजुर्गों के साथ साथ युवाओं की टीम भी ताल ठोंक रही है, अखाड़े के किनारे, बड़ा सा नगाड़ा रखा है, और आयोजक माइक पर चिल्ला रहा,
“होशियार! खबरदार!
अखाड़ा है तैयार!!”
- सभी पहलवान तैयार हैं, अपना दम-ख़म दिखाने को। पहलवानों के मध्य कुछ बहुत प्रसिद्ध पहलवानों को बाहर से भी बुलाया जाता है, जिनके ऊपर बोलियाँ लगती हैं, जब तक आयोजक माइक सँभालता, तब तक बगल में खड़ा एक लड़का माइक सम्भाल के गाने लगता है,
“नदी किनारे केच्छुआ बइठो
लेइ-लेइ कर्जो खाय
कर्जों वाले कर्जों माँगय
खिसक के नदियम जाय
ठिंगस्सा लेइलो लल्ला
हारि न जइयो लल्ला”
“कड़क-कड़क-कड़-गम”
- पूरे प्रदेश के कई गाँवों में नागपंचमी का जोश परवान चढ़ चुका है, कहीं कबड्डी, तो कहीं कुश्ती के संग देशज खेलों का उल्लास चरम पर है। कुछ इसी तरह का आयोजन रायबरेली ज़िले के भदोखर गाँव में होता है, जिसमें कुछ पहलवान तो गाँव के होते हैं, कुछ दूसरे जनपदों के अखाड़ो से प्रतिद्वंदी के रूप में आते हैं, जो कई राउंड की कुश्ती के बाद फ़ाइनल में पहुँचते हैं और बहुत बड़े-बड़े इनाम पाते हैं।
- भदोखर गाँव की ये कुश्ती की परंपरा गाँव के समाजसेवी और प्रतिष्ठित शिक्षक ग़याबख़्श सिंह ने प्रारंभ की थी। जिसे कई पीढ़ियों से उनका परिवार आज भी आयोजित करता है, ग़याबख़्श सिंह ने एक विद्यालय भी खोला था, उसी विद्यालय के प्रांगण में, परंपरानुसार नागपंचमी के दिन एक भव्य मेला लगता है, मेले में विविध सांस्कृतिक आयोजन होते हैं, मेरी बुआ जी, जो उसी परिवार की बहू हैं, ने बताया कि बहुत साल पहले नागपंचमी के दिन सुबह भोर में नागदेवता की पूजा होती थी, घर की कई महिलाएँ व्रत रखती थीं एवम दोपहर से ही ख़ेल प्रतियोगिताओं का आयोजन होता था, जहाँ अखाड़े और मैदानों में कुश्ती, कबड्डी, ऊँची कूद, लंबी कूद जैसे शरीर को सुंदर-सुडौल और स्वस्थ बनाने वाले खेलों का आयोजन होता था, वहीं लड़कियाँ पारंपरिक कजरी गीत,
“कि अरे रामा कान्हा बनें मनिहारी
पहिन लई सारी रे हारी
सब देखि रहे नर-नारी
सब जाएँ कन्हैया पे वारी रामा
अरे रामा रहिया में राधा रानी ठाढ़ी
कन्हैया निहारी रे हारी”
- गाते हुए झूला झूलकर उत्सव मनाती थीं। भदोखर गाँव में नागपंचमी की रात नौटंकी भी होती थी जिसका प्रमुख विषय भोलेनाथ और नाग-नागिन होते थे।
- ये प्रथाएँ उस गाँव में आज भी जीवित हैं, जब परिवार के ही कई लोगों ने यह परंपरा आगे ज़ारी रखने को लेकर आपत्ति की तो वहाँ की युवा पीढ़ी अड़ गई कि जो प्रथा हमारे बड़ों ने प्रारंभ की वह हम बीच में नहीं ख़त्म कर सकते। युवा पीढ़ी द्वारा इन परंपराओं के संरक्षण के विषय में कही गई ये बातें आशा जगाती हैं, कि नागपंचमी की विलुप्त होती परंपराओं में अभी तक जीवन शेष है।
- इन आयोजनों और सांस्कृतिक गतिविधियों से ज्ञात होता है कि नागपंचमी का पर्व केवल धार्मिक पर्व नहीं है, ये पर्व उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों के विविध आयोजनों में कई गाँवों के वड़े-बुजुर्गों, स्त्री-पुरुषों, नई-नवेली दुल्हनों, युवक-युवतियों तथा छोटे बच्चों का सम्मिलन होता है, इन परंपराओं से हमारा समाज सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों से समृद्ध होता है। कहीं-कहीं अन्य धर्मों के लोग भी ऐसे आयोजनों में शिरकत करते हैं, जो सौहार्द और समरसता का प्रतीक है, ये पर्व जहाँ खेलों द्वारा स्वस्थ जीवन शैली की प्रेरणा देता है, वहीं गीत-संगीत से लोगों का मनोरंजन भी करता है। अतः हमें हमारे समाज में ऐसी परंपराओं को विलुप्ति से बचाने के लिए एक मज़बूत ढाँचा तैयार करने की ज़रूरत है।
संदर्भ:
नागपंचमी पर्व-
(१) पत्रिका (Patrika News)
(२) विकिपीडिया
(२) वार्तालाप द्वारा
(३) घर का अनुभव
कुश्ती-
(१) दैनिक भास्कर समाचार पत्र
(२) साक्षात्कार सरोज सिंह २७/९/२०२४
ग्राम भदोखर गाँव रायबरेली
(३) साक्षात्कार वंदना ३०/९/२०२४
(४) आँखों देखा अनुभव
कबड्डी-
(१) साक्षात्कार- २६/९/ २९२४ नागेंद्र प्रताप सिंह ग्राम पाल्हापुर गोंडा
(२) विचार विमर्श- रंजना, विजेता, दिव्या
(३)पिताजी से गंभीर चर्चा और स्वयं का अनुभव।
गुड़िया पीटना-
(१) वेब दुनिया
(२) गाँव का अनुभव
गीत-संगीत-
(१) लिखित स्रोतों और वार्तालाप द्वारा
(२) २ गीत पारंपरिक व अन्य गीत सांकेतिक रूप से मेरे द्वारा रचित
जिज्ञासा सिंह
रचनाकार एवं प्रकृति प्रेमी
हिन्दी तथा अवधी ब्लॉगर
अभिनंदन- सी137,
इंदिरा नगर, लखनऊ 226016
उत्तर प्रदेश
ईमेल: jigyasa411@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें