ऐतिहासिक रामलीला … करनैलगंज गोंडा

 रामलीला प्रसंग”

‘कलावसुधा’ प्रदर्शकारी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका के जनवरी-मार्च विशेषांक में मेरा आलेख “करनैलगंज गोंडा की रामलीला - सांस्कृतिक धरोहर और सामाजिक संदेश” प्रकाशित है। प्रस्तुत आलेख में करनैलगंज की ऐतिहासिक रामलीला के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित करने की कोशिश की है। आशा है, मित्रगण रामलीला के संदर्भों को पढ़कर अपनी राय अवश्य देंगे। 






  • करनैलगंज गोंडा की रामलीला— सांस्कृतिक धरोहर और सामाजिक संदेश

  •  उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद के करनैलगंज के रामलीला मैदान में, दशहरे से एक दिन पहले एक बड़े से हिस्से को मंच में तब्दील कर दिया गया है और उस मंच पर एक प्रहसन चल रहा है, जिसमें एक युवक को, जिसका चेहरा नक़ाब से ढँका हुआ है, दो पुलिस वाले मोटरसाइकिल पर बीच में बैठाए हुए दाख़िल होते हैं, मंच पर पहुँचकर दोनों पुलिसवाले युवक को उतारते हैं और मंच पर पहले से सज्जित न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं, न्यायालय की कुर्सी पर विराजमान जज साहब के सामने उस युवक की सुनवाई होती है, जज साहब युवक को दोषी करार देते हैं और उसे फाँसी की सजा सुनाते हैं, न्यायालय की कार्यवाही पूर्ण होते ही जल्लाद, युवक के चेहरे को एक मोटे कपड़े से गर्दन तक ढँक देता है, तथा दो खंभे के बीच झूलते फाँसी के फंदे पर लटका देता है, युवक फाँसी पर झूल रहा है, दर्शक दीर्घा में तड़-तड़ तड़-तड़ तालियाँ गूँज रही हैं और लोग वाह-वाह कर रहे हैं, वहीं उसी भीड़ में फाँसी के मूल भाव से अनभिज्ञ लोग आश्चर्य में हैं, कि किसी को फाँसी देते समय आख़िर तालियाँ क्यों बज रही हैं, लोगों का आश्चर्य कुछ ही मिनटों में उस समय और बढ़ जाता है, जब फाँसी पर लटकी हुई लाश धीरे से नीचे उतारी जाती है और वह अचानक ज़िंदा हो, झुक-झुक लोगों का अभिवादन करने लगती है, लोगों की तालियाँ आसमान छूने लगती हैं, महिलाएँ भाव-विभोर हो जाती हैं और मंच के लाउडस्पीकर में बज रहा गीत उनके भावों को परवान चढ़ाने में आग में घी का काम करता है ...

  • “इंसान का इंसान से हो भाईचारा 
  • यही पैग़ाम हमारा यही पैग़ाम हमारा”

  •  फाँसी की असलियत बाद में माइक पर अनाउंस होती है, असल में ये फाँसी सचमुच की फाँसी न होकर केवल प्रतीकात्मक फाँसी थी, ये केवल फाँसी का प्रहसन था जिसने तमाम दर्शकों को द्रवित और अचंभित कर दिया। इस फाँसी के प्रहसन का मंचन आज से नहीं बल्कि लगभग एक शताब्दी से हो रहा है, जिसे एक रामलीला कमेटी आयोजित करती है, प्रहसन में कमेटी के ही कलाकार न्यायाधीश, कोतवाल, सिपाही, मुंशी- दीवान और जल्लाद आदि का किरदार निभाते हैं, यह प्रहसन दशहरे के एक दिन पहले नवमी तिथि को मंचित किया जाता है, जिसमें दिखाते हैं, कि किसी दूसरे शहर से एक व्यापारी अपने बेटे के साथ यहाँ व्यापार करने आया है, एक स्थानीय व्यक्ति उसको अपने झाँसे में फँसाकर उसका सारा सामान लूटकर, उसके बेटे को अगवा कर लेता हैं, वह रोता है, चिल्लाता है, लोगों से अपनी मदद की गुहार लगाता है, जब लोगों को उसके साथ हुए दुर्व्यवहार का पता चलता है, तो वे उसे न्यायालय कमेटी में न्याय के लिए दरख्वास्त देने को कहते हैं, तत्पश्चात कमेटी व्यापारी के साथ हुए अन्याय को घोर अपराध की श्रेणी में रखकर, पूरे प्रकरण की तहक़ीक़ात करती है और अपराध सिद्ध होने पर फाँसी की सज़ा सुनाती है, फाँसी का उद्देश्य है कि अगर किसी के साथ अन्याय करोगे तो उसका दण्ड भी भुगतोगे। यह फाँसी का प्रहसन स्थानीय लोगों के साथ-साथ कई जिलों के लोग देखने आते हैं, तथा अपने साथ यह संदेश लेकर जाते हैं कि ग़लत काम का नतीजा ग़लत ही होता है।

  • फाँसी की सज़ा का मूल उद्देश्य जनमानस में जागरूकता फ़ैलाना तथा समाज को भय मुक्त करना है, इसके अतिरिक्त बाहर से होने वाले व्यापार को बढ़ावा देते हुए लोगों को आपसी संबंधों को मज़बूत बनाने की प्रेरणा देना एवं व्यापार द्वारा आर्थिक स्थिति को संबल प्रदान करना भी है। 

  •  यह प्रहसन करनैलगंज की रामलीला को विशिष्ट बनाते हुए अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की नींव को रेखांकित भी करता है कि जिस तरह त्रेता में श्रीराम ने रावण को दंड दिया था उन्हीं पदचिह्नों पर चलते हुए, हमारे समाज में आज भी न्यायाधिकारी द्वारा उचित माकूल दंड देने वाला प्रावधान है।

  • यह ऐतिहासिक रामलीला उत्तर-प्रदेश के गोंडा जनपद के करनैलगंज कस्बे में आयोजित की जाती है, जिसका इतिहास लगभग 200 वर्ष पुराना है, करनैलगंज के एक शिक्षाविद् श्री आशीष कुमार सिंह जी के अनुसार पुरानी रामलीला जो करनैलगंज के गुड़ाही बाज़ार के श्रीराम जानकी मंदिर से प्रारंभ हुई थी, वह वर्ष के बारहों महीने चलती ही रहती थी, रामचरितमानस के विभिन्न प्रसंगों, कथाओं का मंचन कस्बे के लोगों द्वारा होता रहता था, उनके अनुसार उस रामलीला द्वारा जनता मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों का प्रचार-प्रसार होता था इसके अतिरिक्त लोगों में अपने संस्कृत-साहित्य का प्रचार भी मुख्य विषय था, उस समय रामलीलाएँ मनोरंजन का प्रमुख स्रोत हुआ करती थीं, विशेषतः यह रामलीला इन्हीं मूलभावों से प्रारम्भ हुई थी।

  •   पारंपरिक रामलीला लोगों के रोम-रोम में बसी थी, मंचन भी अच्छा होता था, परंतु कमेटी के कुछ सदस्य उसमें वृहद बदलाव लाकर रामलीला का विस्तार कर, उसका स्तर और ऊँचा उठाना चाह रहे थे, जिससे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों का जन-जन में प्रचार-प्रसार हो सके। बहुत विमर्शों के बाद इसका बीड़ा उठाया लाला बिहारी लाल पुरवार ने। 

  • अधिकांश प्रमाणित स्रोतों और जनश्रुतियों के अनुसार वर्ष 1933 में लाला बिहारी लाल पुरुवार ने रामलीला को नए स्वरूप में विकसित करने के लिए अपने मित्रों को साथ लेकर एक योजना बनाई और जनमानस के सम्मुख अपना प्रस्ताव रखा, प्रस्ताव पर आम सहमति के बाद करनैलगंज के ही एक व्यापारी ने रामजानकी मंदिर के सामने स्थित अपनी ज़मीन, रामलीला भवन बनाने के लिए दान कर दी। यह मंदिर करनैलगंज के गुडा़ही बाजार मोहल्ले में बना हुआ बहुत पुराना वही मंदिर है, जहाँ वर्षों से रामलीला होती आ रही थी। ज़मीन का अधिग्रहण होते ही लाला बिहारी लाल पुरवार ने रामलीला भवन बनवाने का कार्य प्रारंभ किया। एक तरफ़ भवन बनता रहा, साथी ही साथ सामने मंदिर में रामलीला भी होती रही। वर्ष 1954 में शानदार रामलीला भवन बनकर तैयार हो गया। उस वर्ष बहुत दिव्य-भव्य रामलीला हुई और प्रतिवर्ष होती रही। कुछ वर्षों बाद लाला बिहारीलाल पुरवार का निधन हो गया। उनके निधन के बाद उनके भाई साँवल प्रसाद पुरवार, उनके बाद उनके बेटे शिवकुमार पुरुवार ने रामलीला कमेटी का गठन करके पाटनदीन वर्मा, रघुनाथ प्रसाद शुक्ल, राममनोहर वैश्य सहित कई अन्य लोगों को कमेटी का पदाधिकारी बनाकर उन्हें जिम्मेदारी सौंप दी। तभी से रामलीला कमेटी पूरी जिम्मेदारी से रामलीला करवाती आ रही है। प्रतिवर्ष कमेटी में कुछ नए पदाधिकारियों का चयन होता है, जबकि कुछ पदाधिकारी पुराने ही होते हैं। 

  • 80 के दशक में यह रामलीला अपने चरम पर थी उन्हीं दिनों मैं भी करनैलगंज में शिक्षा ग्रहण कर रही थी उन दिनों रामलीला का बहुत आकर्षण था। पितृपक्ष के पहले दिन से ही रामलीला प्रारंभ हो जाती थी। जिसकी शुरुआत कलश पूजन से होती थी, उसके उपरांत एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती थी लोग सज-धजकर शोभायात्रा में सम्मिलित होते थे, रामलीला भवन से प्रारंभ शोभायात्रा पूरे कस्बे का चक्कर लगाते हुए वापस फिर रामलीला भवन लौट आती थी।
  •  नवरात्र दशहरा के बाद तक संपूर्ण श्री रामचरितमानस के प्रसंगों के घटना दृश्य के अनुसार लगभग एक माह तक, अलग-अलग लीलाओं का मंचन किया जाता रहा है, जिसमें राम जन्म, गुरुकुल प्रसंग, सीता स्वयंवर, राम बारात, राज्याभिषेक, वन गमन, भरत मिलाप आदि विभिन्न प्रसंग रामलीला भवन में मंचित होते हैं।

  • जबकि राम-रावण युद्ध, लंका विजय तथा अयोध्या वापसी का मंचन रामलीला मैदान में आयोजित होता था।
  • प्रवचन तथा सत्संग भी होते थे, जिनके माध्यम से लोग आध्यात्मिक ऊर्जा का संचयन करते थे। 
  • मनोरंजन के लिए नृत्य नाटिका भी आयोजित की जाती थी।
  • आज के समय में तो कानपुर लखनऊ से भी नाटक कंपनियाँ आती है।

  • आज की अपेक्षा उस समय मनोरंजन के संसाधनों की कमी होती थी, अतः रामलीला का विशेष आकर्षण था। घरों में उत्सव का माहौल होता था। लोगों की दिनचर्या रामलीला के अनुसार ही चलती थी, लोग जल्दी-जल्दी अपना कार्य पूर्ण करके रामलीला देखने चल देते थे,  यह रामलीला करनैलगंज कस्बे के साथ-साथ जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में साल दर साल बहुत लोकप्रिय होती गई, यहाँ आने वाले दर्शकों की संख्या लगातार बढ़ती रही और वर्ष 1989 में दशहरे के दिन दर्शकों की संख्या तीन लाख तक पहुंच गई थी। 

  • चूँकि करनैलगंज, जनपद का एक प्रमुख कस्बा है, रामलीला व्यापारी वर्ग ही आयोजित करवाते थे अतः किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होती थी, कस्बे के हर घर से सहयोग मिलता था, यहाँ तक कि कस्बे में रहने वाले मुस्लिम और सिख समुदाय के लोगों द्वारा भी रामलीला की तैयारियों में सहयोग किया जाता था, सभी वर्ग के लोग रामलीला देखने आते थे। मुझे याद आता है कि एकबार भारत मिलाप की “लाग” निकल रही थी जिसमें मेरी मुस्लिम और सिख सहेलियाँ भी साथ चल रही थीं, “लाग” विशेष प्रकार की शोभायात्रा होती थी जिसमें सबसे आगे रामलीला के सजे-धजे पात्र चलते थे, उनके बाद विशिष्टजन, फिर आम जनमानस की टोलियाँ होती थीं जिनमें हमारे परिवार के लोग शामिल होते थे।
  •  कस्बे के लोगों के साथ-साथ आसपास के गाँवों के लोग भी उनमें शामिल होते थे।
  • “लागें” रामलीला भवन से निकालकर पूरे कस्बे का चक्कर लगाती हुई रामलीला मैदान तक जाती थी।
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  •  रामलीला मैदान के बारे में मौजूदा कमेटी के महामंत्री श्री कन्हैयालाल वर्मा जिनके पिता जी श्री पाटनदीन वर्मा जो कि रावण का पात्र निभाते थे, उन्हीं के नक्शेकदम पर चलते हुए आज वे खुद रावण के पात्र का जीवंत अभिनय करते हैं, उन्होंने बताया कि रामलीला मैदान भी लगभग 200 वर्ष पुराना है, पहले इसके किनारे-किनारे पीपल, बरगद, पाकड़ के बहुत पुराने पेड़ लगे हुए थे। जो चहारदीवारी का काम करते थे जिससे मैदान भी चिह्नित होता था। यहाँ पर अंग्रेजों के जमाने में परेड हुआ करती थी। राजनीतिक रैलियाँ होती थीं। इस रामलीला मैदान में बहुत भव्य द्वार हैं, एकबार रैली के दौरान रामलीला मैदान का द्वार गिर गया था जिसका पुनरुद्धार कटरा क्षेत्र के स्व. श्रीराम सिंह और नरसिंघ दत्त शुक्ला जी के सहयोग से हुआ था। मैदान में चार स्तंभ हैं, जो अशोक वाटिका, राम चबूतरा, लंका और नरसिंह नाम के हैं और चारों दिशाओं में स्थापित हैं, मैदान की चहारदीवारी से लगी हुई चारों तरफ़ दर्शक दीर्घा है, मैदान के बीच में रामलीला की लीलाओं का मंचन होता है, राम-रावण युद्ध तथा राम जानकी की अयोध्या वापसी का भव्य और विशेष मंचन यहीं इसी मैदान पर होता आ रहा है।

  • प्रत्येक दिन के अनुसार प्रसंगों को  नाटक की विधा में लिखा जाता है, पात्रों का चयन होता है , उनकी वेशभूषा, आभूषण और अस्त्र-शस्त्र निश्चित किए जाते हैं, चुने हुए पात्रों को अभिनय की बारीकियाँ सिखाई जाती हैं। पूरा-पूरा दिन रिहर्सल चलता रहता है। कमेटी में आज भी कई सदस्य ऐसे हैं जिनके परिवार के सदस्य कई पीढ़ियों से रामलीला का मंचन करवाते आ रहे हैं और पुरानी परंपरा का अनुसरण करते हुए विरासत की गरिमा को आगे बढ़ा रहे हैं।

  • रामलीला के पात्रों के चयन और वेशभूषा के संबंध में जो जानकारी मिली उसके अनुसार, रामलीला में जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता था वह था पात्रों का चयन और उनकी साज-सज्जा।

  • पात्रों का चयन उनकी कद काठी, तथा रंग-रूप के आधार पर होता था, जैसे श्रीराम के लिए सुगठित शरीर, साँवला-सलोना रंग, लक्ष्मण के लिए राम से थोड़े कम लम्बे युवक का चयन, हनुमान जी के लिए मोटा भरा हुआ शरीर और रावण सहित सभी राक्षसों के लिए हट्टा-कट्टा भारी-भड़कना पुरुष चयनित किए जाते थे।

  • सबसे मुश्किल था स्त्री पात्रों का चयन। रामलीला स्थापना के साथ ही स्त्री पात्रों का अभिनय आज तक पुरुष वर्ग ही करता आ रहा है, जिसके लिए स्त्री समतुल्य कद-काठी के लड़कों जा चयन होता है, सूर्पनखा, सुरसा आदि राक्षसियों के लिए कुछ मोटे लड़कों को चुना जाता रहा है।

  • रामलीला के पात्रों के लिए वस्त्र और शस्त्र तैयार करने की प्रक्रिया पारंपरिक और हस्तनिर्मित होती थी, जो कि स्थानीय कारीगरों, दर्जियों और लोहारों द्वारा की जाती थी, जिसे वे लोग अपनी कला और कौशल द्वारा सुंदर तथा जीवंत बनाते थे।

  • पात्रों के हिसाब से कपड़े का चयन, किया जाता था जिनमें रेशमी, साटन, मखमल, बनारसी आदि प्रमुख कपड़े होते थे, उसके बाद उनकी रंगाई होती थी, रंगों का चयन पात्र के हिसाब से होता था, परंतु ज्यादातर गहरे और चमकीले रंगों का प्रयोग होता था जिससे पहनने वाले पात्र मंच पर आकर्षक दिखें। भव्यता लाने के लिए रंगे हुए कपड़ों की सुनहरे और चमकीले धागों से कढ़ाई की जाती थी, अलग पात्र अलग वस्त्र जैसे राम-लक्ष्मण के लिए पीला-केसरिया, सीता जी के लिए गुलाबी, नारंगी या लाल तथा रावण, कुंभकरण के लिए नीले, भूरे, बैंगनी जैसे गहरे रंगों का प्रयोग किया जाता था।

  • उसके पश्चात उन वस्त्रों को सजाने के लिए गोटा पट्टी, मोती की झालरें, लड़ियों द्वारा अलंकृत किया जाता था।

  • वस्त्रों के उपरांत बारी आती थी मुकुट और आभूषणों की, जिन्हें बनाने और सजाने का कार्य बहुत ही धैर्यपूर्वक, हाथों द्वारा किया जाता था, मुकुट और आभूषण विशेष रूप से लकड़ी, कागज़ और थर्माकोल से बनाए जाते थे, तैयार होने के बाद उन्हें मोतियों, शीशों, चमकीले पत्थरों और गोटों द्वारा सजाया जाता था।

  • रामलीला के पात्रों के लिए जो सबसे विशेष और आवश्यक वस्तु की व्यवस्था करनी होती थी वह थी हर पात्र का अलग तरह का अस्त्र-शस्त्र। इसके लिए धातु और लकड़ी का प्रयोग किया जाता था और इन्हें भी हाथों द्वारा बनाया जाता था, जिसके लिए बढ़ई और लुहार की मदद ली जाती थी, रामलीला में उपयोग होने वाले धनुष, बाण, तलवार, गदा आदि विशेषतः लकड़ी और बाँस से बनाए जाते थे, अक्सर हल्के और पतले लोहे और पीतल का प्रयोग होता था जिससे कलाकार इन्हें आसानी से संभाल सकें। ये मुख्यतः सजावटी और दिखावटी ही होते थे, जो असली हथियारों के जैसे ही दिखाई पड़ते थे।
  • इन हथियारों को ऐसे पत्थरों और शीशों से सजाया जाता था कि वे मंच पर चमकते हुए दिखाई दें और दर्शकों पर अपना प्रभाव डाल सकें।

  • कलाकारों की सजावट में उनकी विशेष जूते-जूतियों का भी महत्व होता था वे ज्यादातर पारंपरिक कढ़े हुए होते थे और कारीगरों द्वारा बनाए जाते थे।

  • कलाकारों के साज-सज्जा करने की ज़िम्मेदारी स्थानीय कारीगरों और उनके परिजनों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी निभाई जाती रही है। इस कला को आज भी कई परिवार सँजो रहे हैं, वस्त्रों और शस्त्रों की जो भी सामग्री स्थानीय बाज़ार में नहीं मिलती थी वह बाहर से मँगाई जाती थी।

  • इसके अतिरिक्त वेशभूषा को सज्जित करने में प्राकृतिक रंगों जैसे हल्दी, चंदन, नीबू और फूलों के रंग का उपयोग किया जाता था।

  • बीती सदी में करनैलगंज की रामलीला अपने सुंदर और भव्य स्वरूप में विख्यात थी।
  • पिछले कुछ वर्षों में, जब से डिजिटल युग का समय आया, लोगों को धर्म, अध्यात्म और मनोरंजन सभी कुछ सोशल मीडिया पर मिलने लगा, जिसकी वजह से करनैलगंज की रामलीला की भव्यता में कुछ कमी आ गई थी। लोगों में रामलीला के प्रति उत्साह और उमंग की भावना कुछ कम हो रही थी, लोगों के अनुसार रामलीला कमेटी भी उतार महसूस कर रही थी, कुल मिलाकर रामलीला संकट की स्थिति में थी। वह संकट कोरोनाकाल में अपने चरम पर पहुँच गया, जब लोगों का आपस में मिलना-जुलना बंद हो गया, फिर भी कुछ सदस्यों ने केवल सांकेतिक रूप से ही सही पूजा-अर्चना के माध्यम से रामलीला को जीवित रखा। यूँ लगने लगा कि अब रामलीला कभी नहीं हो पाएगी परंतु मनुष्य का जीवन ही उत्साह और उद्देश्य की तलाश के लिए हमेशा व्यग्र रहता है, वह व्यग्रता दिखाई दे या न दिखाई दे, स्वभावतः मनुष्य प्रेरक ऊर्जा और उत्साह का समीकरण खोजता रहता है, वही कुछ करनैलगंज की ऐतिहासिक रामलीला के साथ भी हुआ। करोनाकाल खत्म होने के बाद कमेटी के सदस्यों और क्षेत्र के कुछ लोगों द्वारा ये मुद्दा उठाया गया कि इस ऐतिहासिक रामलीला का पुराना दिव्य-भव्य स्वरूप कैसे फिर से जीवित किया जाए, किस तरह रामलीला का वैभव लौटे। विचार-विमर्श और सार्थक मंथन के पश्चात करनैलगंज रामलीला कमेटी ने, मोहित कुमार पांडे के निर्देशन में एकबार फिर एक कर्मठ और जागरूक कमेटी गठित की है तथा नई तकनीक, नए संसाधनों के साथ रामलीला को पुनर्जीवित करने का सजीव प्रयास किया है और अब हर वर्ष एक दिव्य-भव्य रामलीला का आयोजन हो रहा है। जिसमें पहले दिन कलश पूजन के पश्चात भगवान श्रीराम के जन्म से लेकर रावण वध, लवकुश वीरता तथा भगवान श्रीराम के सरयू नदी के गुप्तार घाट से वैकुण्ठ धाम प्रस्थान होने तक यह रामलीला चल रही है।

  •  करनैलगंज को ऐसे ही नहीं “छोटी अयोध्या” कहा जाता है, यहाँ की रामलीला सिर्फ़ लीला न होकर पूरे करनैलगंज का गौरव थी और kअब फिर अपने गौरवशाली इतिहास को दोहरा रही है, जिसका मुख्य कारण इसका शानदार संचालन है, जिसमें रामलीला कमेटी कस्बे के किसी भी दुराग्रह और वैमनस्य को परे हटाकर आपसी मेलभाव को बढ़ाते हुए रामलीला आयोजित करती है। लोगों के मुख से रामलीला के भव्य आयोजन का प्रसंग अक्सर सुनने को मिल ही जाता है। परंतु आम दिनों में रखरखाव के बिना रामलीला मैदान आवारा पशुओं और गंदगी से बेहाल न हो जाए, इसके लिए प्रशासन को ध्यान देने की ज़रूरत है, जिससे रामलीला जैसे आयोजनों में लोगों का विश्वास दृढ़ हो और वे उत्साह के साथ अपनी ऐतिहासिक रामलीला को देखने जाएँ तथा आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक ऊर्जा को अपने अंदर समाहित करते हुए आनंद का अनुभव करें।

  • संदर्भ:
  • साक्षात्कार- श्री कन्हैयालाल वर्मा (महामंत्री रामलीला कमेटी, करनैलगंज)
  • वार्तालाप- कविता वैश्य, रंजना सिंह (करनैलगंज निवासी)
  • सूत्र- विकिपीडिया, दैनिक भास्कर, पत्रिका न्यूज़, जागरण डॉट कॉम आदि!
जिज्ञासा सिंह 


लघुकथाएँ .. (१) अतिरेक (२) तकनीक

प्रतिष्ठित पत्रिका “संरचना” 2024 वार्षिकी 

(समय, समाज और साहित्य का परिदृश्य) 

लघुकथा विमर्शों और सारगर्भित लघुकथाओं के इस प्रतिष्ठित अंक में मेरी दो लघुकथाएँ!





(१) अतिरेक


“मैंने कहा था न! मत खेलो इस ठहरे हुए शांत सागर से। तुम्हारे खेल ने तुम्हें तो तुम्हें, मुझे भी रसातल में पहुँचा दिया। तुम्हें क्या? तुम तो अकेली ही डूबी हो। तुम्हारा नाविक भी तैरकर किनारे जा पहुँचा और मैं! मैं तुम्हारे बचपने भरे मज़ाक़ का शिकार हो अपने साथ, अपने प्यारे नाविक के भी डूबने का कारण बनी।”


लहरों से जूझती सागर की तलहटी में डूबी एक नौका ने साथ में डूबी एक नयी-नवेली नौका से कहा।

नवेली नौका ने हाज़िरजवाबी की,


   “इसमें तुम्हारा क्या दोष? दोष तो उस सागर का है, जिसने अपनी लहरों को हमारे साथ बहने नहीं दिया, नहीं तो हम किनारे लग जाते।”


“इसमें सागर का दोष नहीं प्रिये! वह अपने ऊपर हमारी हठखेलियाँ तभी तक बर्दाश्त करेगा न! जब तक उसकी लहरें उसका साथ देंगीं, अति तो किसी को भी नहीं भाता, फिर ये तो सागर है, देखो न! आज भी हमें किनारे पहुँचाने के बाद, वह हमें बार-बार संदेश दे रहा था कि मैं थक गया हूँ, मेरी लहरों के ठहरने का समय है, नौकाविहार बंद करो! , पर हमने उसकी एक न सुनी, आख़िरकार परेशान होकर उसने हमें हमारे सहारे छोड़ दिया, अब ठहरे हुए सागर से खेलेंगे तो हमें वो पालना थोड़ी  झुलाएगा। डूबना तो निश्चित ही है न।”


(२) तकनीक 


“काट काट अब डंक

दुआरे बाजत है मिरदंग!”

“विष हरो नगेसरनाथ विष हरोऽ!”


कानों को बेधती, ये आवाज़ जब भी कभी गूँजती, पूरा गाँव समझ जाता कि छोटे बाबा का न्योता आ गया। कहीं किसी को साँप ने डस लिया है, अब बाबा उसे झाड़ने जाएँगे! चूँकि मंत्र सिखाते वक्त गुरु ने उनसे वचन लिया था कि जब भी किसी को साँप काटेगा तुम्हें उसे तुरंत झाड़ने जाना पड़ेगा, भले ही भादों माह की विकट अँधेरी रात ही क्यों न हो? 


       सूचना का माध्यम था, मरीज़ के कान में ऐसी बाँग देना कि उसकी आवाज़ दूर-दूर तक सुनाई पड़े जिससे पास-पड़ोस के सभी झड़वार, सोते-जागते, जिस भी स्थिति में हों, पलों के अंदर ही मरीज़ के पास पहुँचने के लिए अपने घर से चल दें।


     पर ये क्या? आज तो बाँग सुनकर बाबा रोहित की मोटर साइकिल के पीछे बैठे बाँग की विपरीत दिशा में भागे जा रहे थे, ये अजूबा देख दादी मुझे साथ लेकर बाँग की दिशा में चल पड़ीं, बाँग पश्चिम टोला से आ रही थी, वहाँ पहुँचकर हम देखते हैं, कि निथरी खाट पर औंधी बेहोश लेटी मालती को डॉक्टर साहब इंजेक्शन लगा रहे हैं,  थोड़ी देर में उसकी पलकों में हरकत होने लगती है। लोगों ने बाबा को बड़े गर्व और आश्चर्य से देखा। बाबा मुस्कुराते हुए बोले…


  “आप सबको पता ही है मैं तो मंत्रों द्वारा विष कम करने की कोशिश ही करता था, परंतु आज के समय में डॉक्टर साहब मौज़ूद हैं, तो अब झाड़-फूक का कोई मतलब ही नहीं रहा।


जिज्ञासा सिंह 

“कबड्डी, कुश्ती से सजी नागपंचमी की परंपराएँ” … शोधपरक आलेख

 “कलावसुधा”

लखनऊ से प्रकाशित होने वाली ‘प्रदर्शकारी कलाओं की त्रैमासिक’ पत्रिका के पिछले अंक, जो कि “पारंपरिक खेल में संगीत, नृत्य और नाट्य प्रसंग” पर   केंद्रित है, पत्रिका में प्रकाशित आलेख बहुत ही शोधपरक और महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ रोचक भी हैं।


खेलों में मानसिक और शारीरिक ऊर्जा का स्रोत किस तरह से, कहाँ से, एकाग्रता नियत करती है, गीत-संगीत किस तरह से ऊर्जा को प्रभावित और प्रवाहित करता है, पत्रिका में बहुत ही सुंदर साहित्य समृद्ध आलेख हैं। मेरा आलेख “कबड्डी, कुश्ती से सजी नागपंचमी की परंपराएँ” प्रकाशित है, इस विषय पर लिखते वक्त, गाँव के अपने लोगों से बातचीत करने की जो सुखद अनुभूति हुई, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। 







गीत-संगीत और खेल हमें जहाँ मानसिक और शारीरिक ऊर्जा प्रदान करते हैं, वहीं पर्व हमें जोश और उल्लास से भर देते हैं, परंतु जब किसी पर्व के दिन ही गीत-संगीत और खेलों का मेल हो, तो वह दिन एक सुंदर उत्सव में बदल जाता है, परिणाम स्वरूप हम अपनी दिनचर्या में एक अलग तरह के उत्साह और आनंद का अनुभव करते हैं, जो हमें हमारे भावी जीवन को नियोजित करने में महती भूमिका निभाता है।


हमारे देश में अलग-अलग राज्यों में तमाम ऐसे पर्व मनाए जाते हैं, जिनमें गीत-संगीत के साथ-साथ विभिन्न खेलों का आयोजन होता है। उन्हीं पर्वों में एक पर्व नागपंचमी पर्व अपना विशेष महत्व रखता है। श्रावण मास में मनाए जाने वाले नागपंचमी पर्व का धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व है, नागपंचमी पर्व शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है, धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस शुभ दिन पर नाग देवता की पूजा करने की बहुत प्राचीन और महत्वपूर्ण परंपरा है। 


वैसे तो हमारी बहुत सी परंपराएँ विलुप्ति के कगार पर हैं, या फिर बहुत तेज़ी से उनका नवीनीकरण हो रहा है। परंतु नागपंचमी शहरों और ग्रामीण इलाक़ों में आज भी मनाई जाती है, हाँ शहरों और कुछ गाँवों में अब परंपरागत तो न के बराबर है, क्योंकि कहते हैं न..  कि “श्रद्धा का स्थान तर्क ने ले लिया और आस्था संदेह के घेरे में हो गई।” 


ज़्यादातर गाँवों में नागपंचमी आज भी परम्परानुसार मनाने का चलन है, ये परम्पराएँ गाँवों के बड़े-बुजुर्गों और महिलाओं की वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं।


होली, दीवाली, दशहरा या रक्षाबंधन जैसे बड़े पर्व तो शहरों में परम्परा और आधुनिकता दोनों ही स्वरूपों में उत्सवित होते हैं, परंतु प्राकृतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को सँजोता नागपंचमी जैसे पर्व का असली उत्सव आज भी ज़्यादातर गाँवों में उल्लास और जोश से मनाने की परम्परा है। 


नागपंचमी का पर्व देश के कई राज्यों में मनाया जाता है, जिनमें उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात और राजस्थान प्रमुख हैं। नागपंचमी के दिन सभी राज्यों में विशेषतः

नागों (सर्पों) की ही पूजा होती है, परंतु कुछ राज्यों में अपने विशेष प्रयोजनों की परंपरा भी चली आ रही है। इन प्रयोजनों में कुछ प्रमुख प्रयोजन इस प्रकार हैं, जैसे;


  • नागपंचमी की प्रातः सर्वप्रथम  नागों (सर्पों) की पूजा होती है, मान्यता है कि इस दिन ऋषि आस्तिक ने नागों के अस्तित्व को बचाने के लिए अपना यज्ञ रोक दिया था। दूसरी मान्यता है कि नागों की  पूजा-अर्चना से, उनके काटने पर होने वाले अनिष्ट का भय कम हो जाता है, कालसर्पदोष, विषजन्य मृत्यु, अकालमृत्यु से भी मुक्ति मिलती है। इसके अतिरिक्त गाँवों में नागपंचमी का महत्व इसलिए भी बहुत अधिक है कि किसान लोग नागों को अपनी फसलों का रक्षक मानते हैं, मान्यता है कि नाग खेतों में चूहों और कीट-पतंगों से फसलों की रक्षा करते हैं। नागपंचमी की सच्ची पूजा करने पर फसल अच्छी होती है, अनाज का भंडार कभी ख़त्म नहीं होता।


  • कहीं-कहीं सर्पों के साथ-साथ बिच्छू, गोजर, कनखजूरे की मिट्टी की प्रतिकृति बनाई जाती है और उन्हें दूध, मखाने और कच्चे चने का भोग लगाया जाता है। इसके अतिरिक्त एक प्रथा है अपने खूँटे में बँधे जानवरों की पूजा करने का। सर्वप्रथम घर के पुरुष नाँद और चरनी को ख़ूब साफ़-सुथरा करते हैं जानवरों को भी नहला-धुलाकर साफ़-सुथरा किया जाता है, उनकी सींगों को गेरू से रंगा जाता है, और घुँघरुओं, घंटियों की माला भी पहनाई जाती है, तत्पश्चात् उनकी चरनी और नाँद की पूजा की जाती है, फिर उन्हें लप्सी खिलाकर, मुलायम चारा खिलाया जाता है, ये प्रथा अवध क्षेत्र के कई ज़िलों में प्रचलित थी। जो लगभग विलुप्ति के कगार पर है, परंतु कहीं-कहीं अभी भी प्रचलित है।
  • एक प्रथा है गुड़िया पीटने की… ये प्रथा उत्तर प्रदेश के कई गाँवों में  बड़े उल्लास से मनाई जाती है इस प्रथा में कुँवारी लड़कियाँ रूई भर-भर के कपड़े की गुड़िया बनाती हैं, कहीं-कहीं ख़ाली कपड़े की ही होती है, जिसे गाँव के तालाब के किनारे लड़कियाँ फेंकती जाती हैं, और लड़के नरकट के पत्तियों भरे डंठल से गुड़ियों को पीटते हैं, मेरे बचपन में सफ़ेद कपड़े को हल्दी से रंग के ताई जी गुड़िया बना देती थीं  । हर गुड़िया के साथ एक गुड्डा भी होता था। हम गुड़िया फेंक देते थे और गुड्डा उठा लाते थे उसे सुखाकर अपनी गुड़िया की बकसिया में रख देते थे। 
  • गुड़िया पीटने की प्रथा के पीछे कई कहानियाँ प्रचलित हैं, जिनमें एक कहानी को विशेष मान्यता है, जो इस प्रकार है… एक भाई-बहन भगवान शिव के भक्त थे वे नित्य मंदिर जाकर पूजा करते थे, एक सिन एक नाग आकर भाई के पैर के पास रेंगने लगा, बहन ने समझा वह काटने जा रहा है, और उसने पा ही पड़े एक डंडे से मार दिया। दर्शन करने मंदिर आए लोगों और  पुजारी ने कहा कि बहन ने निर्दोष सर्प की हत्या की है, उसे पाप लगेगा। अतः उसे दंड मिलना चाहिए, पर बहन को मारा तो जा नहीं सकता। पुजारी ने सुझाव दिया कि बहन की जगह कपड़े की लड़की बनाकर उसे भाई पीट दे तो उसका पाप ख़त्म हो जाएगा। इस कथा से बचपन की एक रोचक कथा याद आती है, मेरा घर का नाम गुड़िया था और मेरे चचेरे भाई ने हँसी-हँसी में, गुड़िया की जगह मुझे ही पीट दिया था फिर बाबा जी ने उनको, गुड़िया बनाने में देर नहीं की और अपने सोंटे से दनादन्न पीट दिया था।
  • नागपंचमी पर एक बहुत महत्वपूर्ण और विशिष्ट आयोजन की परंपरा है…  नागपंचमी के दिन ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के खेल और खेलों के साथ गीत-संगीत का सुंदर और रोचक सामंजस्य। खेलों में कबड्डी, कुश्ती, लंबी कूद, ऊँची कूद प्रमुख हैं। जबकि गीतों में लोकगीत… जिनमें देवीगीत, भोलेनाथ और नागों के ऊपर सुंदर मनोहारी भजन तथा तरह-तरह के देशज तथा हास्य-व्यंग के लोकप्रिय गीत। इन गीतों के साथ ढोल-मंजीरे और नगाड़े बजते हैं, जो माहौल को सुंदर और रंगीन बनाते हैं। इन परंपराओं का सामाजिक ताने-बाने और स्थानीय जन-जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। 


  • इसी प्रभाव का आँखों देखा दृश्याँकन लिखने की एक कोशिश है प्रस्तुत आलेख में… 


कबड्डी का मैदान है 

गोरी पहलवान है

है है है है है है है 

हय हय हय हय हय 

यय यय्य यय यय्य”


  • ये बोल हैं कबड्डी के और बोल रही है, सत्रह साल की पुष्पा।


  • पुष्पा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के अहिमामऊ गाँव की कबड्डी टीम की सदस्य हैं, उनके साथ मैदान में सीता, सावित्री, कुसुमकली, फूलकुमारी, पूनम और सरोज ने भी कमर कस ली है, नागपंचमी त्योहार के उपलक्ष्य में कबड्डी की टीम की युवतियाँ रंगबिरंगे कपड़े पहनें अपनीं-अपनी श्वाँस थामने को तैयार हैं। विरोधी टीम पड़ोस के गाँव की है, वहाँ की युवतियाँ भी सजी सँवरी मैदान में उतर चुकी हैं। 


  • अहिमामऊ गाँव में महिला कुश्ती की भी बहुत पुरानी अनूठी परंपरा है, जिसमें महिलाएँ साड़ी पहनकर ऐसी कुश्ती लड़ती हैं कि देखने वालों के दाँत खट्टे कर देती हैं, दर्शक बनीं महिलाएँ ढोलक बजाती हैं और सबसे पहले देवी गीत गाती हैं, देवीगीत से ही दंगल के अखाड़े की पूजा होती है और तत्पश्चात कुश्ती का शुभारंभ हो जाता है, चलते हुए दाँव-पेंच के बीच महिलाएँ अजब-गज़ब गाने गाती हैं, जो जोश के साथ-साथ लोगों का मनोरंजन भी करते हैं, सखियों को चिढ़ाने और चढ़ाने के एक मनोरंजक गाने के बोल कुछ इस तरह हैं, 


दाएँ झटका बाएँ झटका

धोबी के पाटा पे धोय-धोय पटका

नन्हका हार गईं जीत गईं बड़का”


  • उसी कबड्डी को समर्पित एक और गीत,


जीति लियो हो पंचमियाँ कय दंगल

जे कोई जीती वो खाई रसगुल्ला

हारि गए पर सखी पइहौ तू गंगाजल

यहि पंचमियाँ का भोले बाबा अइहैं

साथ लिए अइहैं साँप सब दल-बल” 


  • अहिमामऊ में इस आयोजन की शुरुआत लगभग २०० वर्ष पूर्व अहिमामऊ के नवाब की बेगम नूरजहाँ और कमरजहाँ ने नागपंचमी पर महिला दंगल की परंपरा शुरू की थी, तब से अब तक ढोल-मंजीरे के साथ ज़ोर-शोर से इसका आयोजन होता आ रहा है। उस वक़्त दंगल में जीत पर अशर्फ़ी और हार पर चाँदी का सिक्का दिया जाता था। और अब जीतने वाली महिलाओं को साड़ी और नक़दी दी जाती है, वहीं क्षेत्र के प्रतिष्ठित लोग अपनी तरफ़ से भी इनाम देते हैं। अखाड़े में जहाँ महिलाओं की भीड़ दिखती है वहीं आयोजन स्थल पर पुरुषों का आना मना होता है।


  • वहीं उसी नागपंचमी के दिन उत्तर प्रदेश के ही ज़िले गोंडा के पाल्हापुर गाँव के चारागाह चचरी में भी, युवाओं और छोटे बच्चों की अलग-अलग टोली भी, गोला बनाए कुश्ती और कबड्डी के ताल ठोंक रही है, और साँसों पर चढ़ा हुआ है कबड्डी का बहुत प्रसिद्ध बोल…


छल कबड्डी आल-ताल

मरि गए बिहारी लाल

लाल लाल लाल लाल लाल 

लाल्ल लाल्ल ललल्ल ल्लाल 

ल्ल ल्ल ल्लल्ल ल्लल्ल”


  • चूँकि पाल्हापुर ग्राम सभा के अन्तर्गत ही पिताजी का मूलनिवास है, और वे युवावस्था में हॉकी, कुश्ती, कबड्डी के मँझे हुए खिलाड़ी थे और अपने क्षेत्र के अंदर बहुत से सामाजिक कार्य किए हैं, अतः उनके द्वारा ज्ञात हुआ कि उनके गाँव में सावन के महीने के पर्वों पर भिन्न-भिन्न आयोजन होते थे, जैसे नागपंचमी पर कबड्डी, कुश्ती, ऊँची कूद और लंबी कूद। कई बार तो मुख्य आयोजक वही होते थे। मेरे पिताजी बहुत अच्छे तैराक थे। इस पर उन्होंने एक वाक़या बताया कि एक बार गाँव में बाढ़ आई हुई थी, तो उन्होंने तैराकी प्रतियोगिता भी कराई थी। जिस मुक़ाबले में उनके छोटे भाई ही उनके प्रतिद्वंदी थे। और पिताजी प्रथम आ गए थे, तो उनके भाई उनसे कई दिन बोले नहीं थे। फिर बड़े बाबा ने खेल में होने वाली हारजीत पर दोनों को बहुत प्रीक बातें समझाई थीं। ऐसी थीं हमारी रोचक परंपराएँ।


  • नागपंचमी के दिन ही, सुल्तानपुर ज़िले के पिपरी गाँव के मैदान में पूरा गाँव इकट्ठा है, स्कूल के प्रांगण में, बरसों पुराने बरगद के नीचे पास-पड़ोस के कई गाँवों की महिलाओं का झुण्ड का झुण्ड खड़ा हुआ है, लड़कियाँ झूले पर पेंग मारने की तैयारी कर रहीं। कुछ महिलाएँ पास के पेड़ों पर टेक लगाए हँसी-मज़ाक का सावन गीत गा रहीं,


“मोरी ननदी का सँपवा 

है चाहे पिया

कर दो बियाह पिया नाय

साँप लेने को आए 

ननदी जाएँ लुकाए

अरे सँपवा गले मा

लिपटाओ पिया

कर दो बियाह पिया नाय ”


  • वहीं झूले पे बैठी नव युवतियाँ जवाब दे रहीं हैं, 


झूला उड़य पवन संग जाय

भौजी क चुनरी उड़ि-उड़ि जाय

उड़ि चुनरी आकास म पहुँची

चंदा सुरज ललचाय

झूला उड़य पवन संग जाय”


  • पिपरी गाँव की परंपरा पर बात करते हुए जूनियर हाई स्कूल के अवकाशप्राप्त शिक्षक बलिकरन सिंह ने बताया कि इस गाँव में मैं बीस वर्ष तक शिक्षक था, उस दौरान गाँव के मुख्य मंदिर के बग़ल में समारोह के लिए छोड़े गए स्थल पर बरगद पेड़ पर झूला पड़ता था तथा पुरुष वर्ग कुश्ती-कबड्डी सहित विभिन्न खेलों में भागीदारी करते थे।
  • नागपंचमी के ही दिन इत्र से दूर-दूर तक अपनी सुगंध बिखेरने वाले उत्तर प्रदेश के ही ज़िले कन्नौज में  दंगल-कुश्ती का अखाड़ा सज गया है और अखाड़े में बुजुर्गों के साथ साथ युवाओं की टीम भी ताल ठोंक रही है, अखाड़े के किनारे, बड़ा सा नगाड़ा रखा है, और आयोजक माइक पर चिल्ला रहा,


होशियार! खबरदार!

अखाड़ा है तैयार!!”


  • सभी पहलवान तैयार हैं, अपना दम-ख़म दिखाने को। पहलवानों के मध्य कुछ बहुत प्रसिद्ध पहलवानों को बाहर से भी बुलाया जाता है, जिनके ऊपर बोलियाँ लगती हैं, जब तक आयोजक माइक सँभालता, तब तक बगल में खड़ा एक लड़का माइक सम्भाल के गाने लगता है,


नदी किनारे केच्छुआ बइठो 

लेइ-लेइ कर्जो खाय

कर्जों वाले कर्जों माँगय

खिसक के नदियम जाय

ठिंगस्सा लेइलो लल्ला

हारि न जइयो लल्ला”


कड़क-कड़क-कड़-गम”


  • पूरे प्रदेश के कई गाँवों में नागपंचमी का जोश परवान चढ़ चुका है, कहीं कबड्डी, तो कहीं कुश्ती के संग देशज खेलों का उल्लास चरम पर है। कुछ इसी तरह का आयोजन रायबरेली ज़िले के भदोखर गाँव में होता है, जिसमें कुछ पहलवान तो गाँव के होते हैं, कुछ दूसरे जनपदों के अखाड़ो से प्रतिद्वंदी के रूप में आते हैं, जो कई राउंड की कुश्ती के बाद फ़ाइनल में पहुँचते हैं और बहुत बड़े-बड़े इनाम पाते हैं।


  • भदोखर गाँव की ये कुश्ती की परंपरा गाँव के समाजसेवी और प्रतिष्ठित शिक्षक ग़याबख़्श सिंह ने प्रारंभ की थी। जिसे कई पीढ़ियों से उनका परिवार आज भी आयोजित करता है, ग़याबख़्श सिंह ने एक विद्यालय भी खोला था, उसी विद्यालय के प्रांगण में, परंपरानुसार नागपंचमी के दिन एक भव्य मेला लगता है, मेले में विविध सांस्कृतिक आयोजन होते हैं, मेरी बुआ जी, जो उसी परिवार की बहू हैं, ने बताया कि बहुत साल पहले नागपंचमी के दिन सुबह भोर में नागदेवता की पूजा होती थी, घर की कई महिलाएँ व्रत रखती थीं एवम दोपहर से ही ख़ेल प्रतियोगिताओं का आयोजन होता था, जहाँ अखाड़े और मैदानों में कुश्ती, कबड्डी, ऊँची कूद, लंबी कूद जैसे शरीर को सुंदर-सुडौल और स्वस्थ बनाने वाले खेलों का आयोजन होता था, वहीं लड़कियाँ पारंपरिक कजरी गीत,


“कि अरे रामा कान्हा बनें मनिहारी 

पहिन लई सारी रे हारी

सब देखि रहे नर-नारी

सब जाएँ कन्हैया पे वारी रामा

अरे रामा रहिया में राधा रानी ठाढ़ी

कन्हैया निहारी रे हारी”


  •  गाते हुए झूला झूलकर उत्सव मनाती थीं। भदोखर गाँव में नागपंचमी की रात नौटंकी भी होती थी जिसका प्रमुख विषय भोलेनाथ और नाग-नागिन होते थे।


  • ये प्रथाएँ उस गाँव में आज भी जीवित हैं, जब परिवार के ही कई लोगों ने यह परंपरा आगे ज़ारी रखने को लेकर आपत्ति की तो वहाँ की युवा पीढ़ी अड़ गई कि जो प्रथा हमारे बड़ों ने प्रारंभ की वह हम बीच में नहीं ख़त्म कर सकते। युवा पीढ़ी द्वारा इन परंपराओं के संरक्षण के विषय में कही गई ये बातें आशा जगाती हैं, कि नागपंचमी की विलुप्त होती परंपराओं में अभी तक जीवन शेष है।


  •  इन आयोजनों और सांस्कृतिक गतिविधियों से ज्ञात होता है कि नागपंचमी का पर्व केवल धार्मिक पर्व नहीं है, ये पर्व उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों के विविध आयोजनों में कई गाँवों के वड़े-बुजुर्गों, स्त्री-पुरुषों, नई-नवेली दुल्हनों, युवक-युवतियों तथा छोटे बच्चों का सम्मिलन होता है, इन परंपराओं से हमारा समाज सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों से समृद्ध होता है। कहीं-कहीं अन्य धर्मों के लोग भी ऐसे आयोजनों में शिरकत करते हैं, जो सौहार्द और समरसता का प्रतीक है, ये पर्व जहाँ खेलों द्वारा स्वस्थ जीवन शैली की प्रेरणा देता है, वहीं गीत-संगीत से लोगों का मनोरंजन भी करता है। अतः हमें हमारे समाज में ऐसी परंपराओं को विलुप्ति से बचाने के लिए एक मज़बूत ढाँचा तैयार करने की ज़रूरत है।


संदर्भ:


नागपंचमी पर्व-


(१) पत्रिका (Patrika News)

(२) विकिपीडिया

(२) वार्तालाप द्वारा

(३) घर का अनुभव


कुश्ती-


(१) दैनिक भास्कर समाचार पत्र 

(२) साक्षात्कार सरोज सिंह २७/९/२०२४

ग्राम भदोखर गाँव रायबरेली

(३) साक्षात्कार वंदना ३०/९/२०२४

(४) आँखों देखा अनुभव


कबड्डी-

(१) साक्षात्कार- २६/९/ २९२४ नागेंद्र प्रताप सिंह ग्राम पाल्हापुर गोंडा

(२) विचार विमर्श- रंजना, विजेता, दिव्या

(३)पिताजी से गंभीर चर्चा और स्वयं का अनुभव।


गुड़िया पीटना-


(१) वेब दुनिया

(२) गाँव का अनुभव


गीत-संगीत-


(१) लिखित स्रोतों और वार्तालाप द्वारा

(२) २ गीत पारंपरिक व अन्य गीत सांकेतिक रूप से मेरे द्वारा रचित


जिज्ञासा सिंह

रचनाकार एवं प्रकृति प्रेमी

हिन्दी तथा अवधी ब्लॉगर

अभिनंदन- सी137,

इंदिरा नगर, लखनऊ 226016

उत्तर प्रदेश

ईमेल: jigyasa411@gmail.com