आवभगत.. कहानी ब्लॉग पर

लब्धप्रतिष्ठ पत्रिका “गुलमोहर” के वार्षिक विशेषाँक में प्रकाशित मेरी कहानी “आवभगत”


कहानी- आवभगत            

 “जब कोई मंत्र न लगे, झाड़फूँक फेल होय जाय दवा-दरमद नक़ली निकल जाय, फिर भी अपना करमजाल खोपड़ी पर लादे धेरिया धरती पर गिर ही जाय तो क्या करें? भाग्य कोसने और हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं बचता!!”

   जिस जमाने में बेटी पैदा होने के पहले ही मारने के लाखों उपाय किए जाते हों,

     उसी जमाने में, दैया रे दैया! किसी के सात पुश्त कन्यारत्न हो ही न! आँगन में बजनू पायल पहन कोई ननमुनिया हिरणी दौड़ी न हो, काजल लगाए बदली अम्बर से मुँडेर पर उतरी ही न हो कि उधार माँगकर ननमुनिया की झील जैसी अँखियाँ में तनिक ढेपार देवें, याकि बुढ़वा बरगद की चार पुश्त पुरानी बँवर हाथ जोड़ि के माँग लावें और दुआरे की पूजैतिन बूढ़े बाबा के बाबा के बाबा की लगाई, बूढ़ी आजी के ढरकौना की सेई दूनों बाँह फ़ैलाए खड़ी, ड्योढ़ी की रक्षा करती निमिया पर सरावन के हिंडोलना डारि देवें ताहि पर ननमुनिया बैठ, घर बखरी निहार-निहार, निमिया की सखी पकड़िया म नीड़ बनाए बरसों-बरस की बाशिंदी कारी कोयलिया के तान में तान मिला-मिला मोहल्ला की सगरी ननमुनियों के संग गीत गावें औ झूलें…

“सोवो की बाबा जागो बाबा बगिया म द्वार चार होय रे!

न मैं सोऊँ न मैं जागूँ, बेटी मन म दहेजवा की सोच रे!”

 आज उसी….

    ड्योढ़ी के चबूतरे पर चार पलंग, आठ खाटें और चार तखत पड़े हुए हैं, उसी के बग़ल में बड़ी मम्मी के ब्याह में मिली पेवर शीशम की बड़की मशहरी पड़ी है, बड़की मशहरी पे चाची के मायके में मिला पेवर जूट का गद्दा पड़ा है, गद्दा के ऊपर छोटी चाची के भतीजे के मुंडन में मिली रेशम की जयपुरी चादर औ तकिया का सेट बिछा है, तकिया के बग़ल में दुई मसनदें पड़ी हैं, जिनमें मलमल जैसी मुलायम सेमल की रुई भरी है, ऐसा लग रहा, जैसे उमरावजान पिक्चर की रेखा बस नाचने ही आने वाली हैं और दोनों मसनदों के बीच फ़ारूख शेख़ बैठे उन्हें रूमानियत भरी निगाहों से भर-भर निहारेंगे, पर नहीं, यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है, क्योंकि ये साझा ड्योढ़ी है मेरे परबाबा और उनके छोटे भाई की और उन मसनदों के बीच सजे बैठे हैं, हमारे बाबा के कक्कू और छोटी काकी के बड़के दमाद, सभी के आकर्षण और स्नेह के केन्द्र, गुजरात में रिज़र्व बैंक के बड़का अधिकारी, पूरे ख़ानदान के बड़के फूफा!

अब उनका आकर्षण हो भी क्यों न??

    ख़ानदान में चार पीढ़ी बाद पैदा हुईं बिटिया, बड़की फूफू के पति और पचास साल से सरपंच और परधान बड़े-छोटे दोनों बाबा के जान से प्यारे सोनैया जैसे दमाद जो हैं, हैं तो वे पिता जी की पीढ़ी के फूफा लेकिन वे हर पीढ़ी के भी बड़के फूफा हैं। सोनैया जैसे दमाद तो वे बाबा औ दादी के हैं ही. वे पुरुष जाति में भी लाखों, करोड़ों में एक हैं।

   “अहहा! जैसे रुई के फाहा! छू लो तो मैले हो जाएँ, जैसे गुलाब के फूल! घड़ी भर बाद कुम्हला जाएँ।”

   देखने में तो सवा छः फ़ीट लम्बे! जैसे लम्बाई वैसे बिलकुल सधी मोटाई.. ना एक सूत इधर, ना एक सूत उधर.. ऊपर से खोपड़ी में काला घुंघराला बाल..खूब घना.. लट माथे पे गिर-गिर जाय औ  होंठ..दैया रे दैया.. बिलकुल तोता की टोंट जैसे सुंदर औ सुर्ख़ लाल.. आँखें तो जैसे नैन, बिन काजल के कजरारे.. एक बार देख ले अगला औ समोहित न हो जाय..तो जिसमें कुत्ता खाता है, उसी में खाना हमको भी खिलाना। 

      ये तो हुई खानदान में सबके बड़के फूफा के सुंदर गढ़न और डील-डौल की बात अब वही खानदान में फूफा के जबरा फैन की टोली में, घर की बिटियों से लेके बड़ी दादी, छोटी दादी, दोनों ताई, मम्मी, बड़ी मम्मी, तीनों चाची, पूरे मोहल्ला की उम्रदराज, जवान, नयी- नवेली, बूढ़ी-ठेढ़ी, हर मेहरारू ऐसी न थी जो फूफा की दीवानी ना हो। दीवानेपन के यही इतने ही कारण नहीं थे.. उनपर मर-मिटने का सबसे बड़ा कारण था फूफा का ज्योतिष का ज्ञानी होना..।

     पंडित-पुरोहित वाला ज्योतिष नहीं, काफ़ी पढ़ाई करके वे ज्योतिष सीखे थे, मम्मी कहती थीं कि काशी के किसी प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य से ज्योतिष का ज्ञान लिए थे फूफा। वैसे तो पढ़ाई वे बैंकिंग का किए थे पर ज्योतिष पर उनका हाथ और दिमाग़ दोनों का ज़ोर था.. बड़ी मम्मी को तीन बेटा बताए थे और उनके तीन ही बेटा हुए.. फिर उनके कोई औलाद ही नहीं हुई.. ताई जी की बहन मौसी आई थीं तो फूफा यहाँ उनको मिल गए थे, अपनी आँखों देखी बात है ये.. मौसी ने जैसे ही हाथ दिखाया और पूँछा कि मौसा बैंकाक से कब आएँगे, फूफा ने कहा आँख बंद करो वे हाजिर हैं, सच्ची कहूँ! बिना चिट्ठी-चौपाती के उसी रात मौसा अपने घर डढ़ियाकला आ गए थे वो भी बैंकाक से, दूसरे दिन बड़े तड़के नाऊ हमारे घर आ गया था औ झट्ट मौसी नई साड़ी पहन महावर लगा, सबसे विदा लेके ख़ुशी-ख़ुशी चली गई थीं एक बात और बड़के ताऊ कचहरी गए थे इलाहाबाद पेशी पर, तीन दिन का कहके पाँच दिन बाद भी ना लौटे थे, दादी ने फूफा के सामने जैसे ही ये बात कही, फूफा ने कहा कुशल से हैं मुक़दमा की तारीख़ हो गई है, फ़ैसला साल भर बाद होगा और वही हुआ एक साल बाद घरुही वाले खेत का लफड़ा बड़के ताऊ निपटा पाए थे। अरे सबसे बढ़िया बात सुनो! छोटे ताऊ वाली चितरा बुआ के बच्चा होने वाला था दुइ बिटियों पर.. और उनकी कौनो खबर नहीं आ रही थी औ बड़के फूफा आए हुए थे तो ताई जी, छोटी आजी से कहने लगीं कि न हो काकी! फूफा को तो संसार की सबहि जानकारी है, उनसे एक बार पूँछो कि छोटी बेबी जी के कोई बच्चा हुआ कि नहीं, छूटते ही फूफा बोल पड़े थे कि कन्या रत्न आ चुका है, और आजी का मुँह उतर गया था एक तौ बिटिया ऊपर से तीसरी, तीसरे फूफा रत्न बोल दिहे थे। आजी तौ फूफा के ज्योतिष पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दी थीं पर फूफा के आदर-सम्मान की वजह से चुप रहीं।

      छोटी बुआ की शादी ढूँढते-ढूँढते जब मँझले बाबा थक गए तो फूफा ही बताए थे कि चाहे जो जुगत कर लो इस लड़की की शादी २३ की उमर से पहले हो ही नहीं सकती.. और वही हुआ.. जब तक ब्याह ना हुआ था.. छोटी बुआ तो फूफा को देखते ही मचल पड़ती थीं.. तब दादी फूफा को चिढ़ाती थीं हँस के.. काहे जीजा एतना लेट बियाह बताए हो तो हम तो आप ही के साथ बीबी जी को भी  बाँध देंगे फिर बड़की बीबी आपको घर में घुसने भी ना देंगी..।

     अब कहनी को क्या कहें? दादी की चिढ़ावन वाली कहन को फूफा और बुआ ने दिल ही से लगा लिया.. छोटी बुआ औ फूफा चुप-चुप प्रेम में मगन होने लगे। नहले पे दहला तब हुआ जब बड़की फूफू गरभ से हुईं, बड़े अरमान से फूफा ने बड़े पापा को चिट्ठी भेजी कि भाई साहब हम तौ गुजरात हैं, आप को तो पता ही है, कि अम्मा दमे की मरीज़ हैं, जिज्जी ससुराल हैं, घर में काम करने वाला कोई नहीं है, घर में बड़ा होने के नाते हम ही को सब सोचना है, आपकी बहन जी की अब बड़ी गरुई अवस्था है, बड़ी परेशानी है, हो सके तो अपनी बहन बिट्टन को भेज दीजिए।

    डाकिया देखते ही छोटी बुआ साइकिल पर ही टूट पड़ी थीं और डाकिया के थैले में अपना हाथ ऐसा घुसेड़ीं कि सब चिट्ठी-पत्तरी उल्ट-पल्ट गई थी एक दो चिट्ठी तो मुँह के बल ऐसी भेहरा के ज़मीन पर गिरीं कि धरती माता ही पढ़ने लगीं, अपने झोले की ख़स्ता हालत देख डाकिया मदर इंडिया के सुक्ख़ीलाल की तरह चिल्लाने-पोंगने लगा था आख़िर छोटे बाबा चिल्लाए कि मुनिया ठीक तरह से चिट्ठी लेओ। ये का तरीक़ा है, बुआ झेंपते हुए थोड़ा पीछे हटके डाकिया से पूँछने लगी थीं कि कोई चिट्ठी हो तो दो। उनकी आतुरता देख डाकिए ने एक नीला अंतर्देशी बुआ के हाथ में पकड़ाया नहीं कि बुआ बिना पीछे पलटे ही घर के पिछवाड़े की तरफ़ ऐसा दौड़ीं कि मुँह के बल गिरीं धम्म से। उनका ये अलभेसरापन देख छोटे बाबा किटकिटाते हुए दौड़ पड़े थे ये कहते हुए कि काहे रे मुनिया जादइ सयानी होय रही है का!! लेकिन डाकिया हँसते हुए बीच में ही सारा मामला लपक लिया, अरे रहय दें लड़किनी चिट्ठी चौपाती देख ऐसेने भेहरा जाती हैं।

     डाकिया के कहने को न था और छोटी बुआ के भेहराने को कौन कहे? वो तो चिट्ठी पढ़ते ही बौरा गई थीं पिछवाड़े बैलगाड़ी के पहिया के पीछे खड़ी होके सत्रह बार बड़के फूफा की चिट्ठी पढ़ीं और सत्रहवीं लाइन को सत्रह बार चुम्मी दीं जिसमें सत्रह अक्षरों में लिखा था कि “हो सके तो अपनी बिट्टन को भेज दीजिए।” अब क्या था? बुआ पिछवाड़े लगे गूलर के पेड़ को लिपट के ऐसा घूमी कि लट्टू की घिर्री भी खिसिया जाय, ख़ैर चिट्ठी लेके दौड़ती हुई खिड़की के दरवाज़े से एक दालान से हरिना छलाँग लगाती हुई दूसरे दालान में पहुँच गईं जहाँ बड़ी आजी यानि उनकी अम्मा बैठी सिकहुली बीन रही थीं हवा में हाथ उछालती हुई ज़ोर से चिल्लाईं,

“देखौ! भैया देखौ! बड़के जीजा की चिट्ठी आई है, कहाँ-कहाँ? कहते हुए आजी ने हाथ लपकाया ही था कि चिट्ठी बुआ के हाथ से छूट के कास-मूँज भिगाने वाले पानी में तैर गई, हाँ-हाँ कहते हुए बुआ ने चिट्ठी को चट्ट से उठा लिया और अपनी सूती ओढ़नी से चिपका-चिपका धीरे-धीरे बड़े ही स्नेहिल भाव से पोंछा और दोनों परत को आहिस्ता से खोल उन सत्रह अक्षरों को फिर से झाँक लिया कि वे सही-सलामत हैं या पानी लगने से घुलकर हवा में उड़ गए, अभी वे सत्रह अक्षरों में खोने ही वाली थीं कि अम्मा ने झकझोरा,

“ सुना न बिटिया! मन्ननिया ने का लिखा है?”

“जिज़्जी की थोड़ी न है, अम्मा ई तो जीजा की है।”

     ओढ़नी होंठों से दबाते हुए मचलकर वे बोली ही थीं फिर तो सारे घर में शोर ही मच गया कि बड़की बुआ की तबियत ख़राब है, सब के सब हाय-हाय करने लगे। आजी तो सबसे पहले भागीं शिवबरन पंडित के घर ग्रह-नक्षत्र पूँछने, बड़की अम्मा लौंग गुड़ लेके दौड़ गईं संझा मैया को अरघ देने। बचीं मम्मी! मम्मी ने मोर्चा सँभाला पूरे घर को ये समझाने का.. कि गरभ होने पर हल्की-फुल्की तबियत ख़राब हो सकती है, ये कोई घबराने की बात नहीं है।

    हाँ बड़की बुआ के घर में बच्चा होने पर, घर में काम बढ़ जाएगा तो उस स्थिति को संभालने के लिए हम में से कोई चला जाएगा। मैं भी जा सकती हूँ, बुआ की सेवा करने में मुझे कोई दिक़्क़त नहीं है। मम्मी के मुँह से ये निकल ही रहा था कि वे जा सकती हैं, अभी उनकी आधी बात हलक में ही चिपकी थी कि इतने में लपक के छोटी बुआ सबके बीच में खड़ी हो गोल-गोल आँख घुमाते तपाक से चू पड़ीं,

“लेकिन जीजा तौ हमको बुलाए हैं। फिर आप तो जीजी के ननद के शादी में गई ही थीं और तौ और जीजी के सास आपको केतना बढ़िया जयपुरी चुनरी दिए थीं जो आजौ तक आप पहनती हैं, का कहेंगी वो? केतनी बार आपही को देंगी? अब क्या बार-बार आपही का जाना सही रहेगा, न! हो अबकी बार हम चले जायँ जीजा की बातौ रह जाएगी हम अपने जीजी का लल्ला भी खिला आएँगे, लल्ला भी खुश होय जाएगा कि हमारी मौसी आई हैं.. हि-ही-हि-ही!”

    अब छोटी बुआ उमर में भले छोटी थीं लेकिन ओहदे में मम्मी की बुआ सास थीं।  ख़ानदान भर की हर मेहरारू चिट्ठीदेसा के आने की बात सुनकर चिट्ठी वाचक के चारो तरफ़ घेरा बना कर खड़े होने की आदी थी ऐसे में सबके सामने छोटी बुआ की बात काटने का मतलब था कि अपने जाने की लालसा का प्रदर्शन कर देना। मम्मी चुप्प रह गईं।

    अपने जाने का पासा खेलकर छोटी बुआ खींस निपोरकर जैसे ही हँसीं कि उनकी हाँ में हाँ मिलाती आजी के साथ-साथ खड़ीं घर की सब मेहरारू भी कुछ ऐसे हिहियाने लगी जैसे नानी अभी ही लल्ला के बुकवा लगाय रही होंय और पेट पर मालिश होते ही नौनिहाल खिलखिला पड़ा हो वो भी जाड़े की धूप में, जब अग़ल-बग़ल बैठी टोला मोहल्ला, घर बार की नानी-मामी-मौसी लल्ला को ही टुकुर-टुकुर निहार रही होंय।

    सबकी हँसी से बुआ को संबल मिल चुका था वे अपनी पहली चाल में कामयाब हो चुकी थीं। अब बाबा के सामने चिट्ठी और बड़की बुआ की परेशानी का मायाजाल एक साथ बुनना था। वो तरकीब और जुगत की तलाश में थीं। जुगत की तो कहने ही क्या? वे हमेशा से जुगती स्वभाव की थीं, जब भी बड़की बुआ के लिए कोई स्पेशल सामान आता था तो वे कोई न कोई बहाना कर ऐसा जुगाड़ लगाती थीं कि वो सामान उनके पाले में आ जाय! अपनी सुंदरता का गुमान करते हुए, कभी कहतीं साँवले रंग पर ये नहीं जमता, लंबे लोगों पर ऊँची एड़ी नहीं फबती, मेकअप के समान पर तो जैसे उन्हीं का ही अधिकार है, चूँकि बड़की बुआ गम्भीर-शांत-सौम्य और छोटी बुआ से ज़्यादा पढ़ी-लिखी थीं, गीता-रामायण, धार्मिक शास्त्रों में उनकी रुचि थी वहीं ईश्वर प्रदत्त सौंदर्य की धनी छोटी बुआ फ़ैशन की वस्तुओं पर भी अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं। अगर बड़की बुआ कुछ शृंगार करना चाहें भी तो वे बड़ी चालाकी से बात को हमेशा पढ़ाई-लिखाई की तरफ़ मोड़ देती थीं।

    छोटे बाबा की तीन सुपुत्रियों में सबसे छोटी, छोटी बुआ महामुश्किल से चौथी पास हो पाई थीं, पर चालबाज़ी और अदाबाज़ी में पी एच डी थीं, टोला- मोहल्ला ननियाउर-अजियाउर हर जगह कोई नया-नोसर नौजवान, जो खुली आँख से भी न दिख सके वह छोटी बुआ की झपकती आँख से भी नहीं छूट सकता था, मम्मी और ताई जी तो हर तीज-त्योहार, मुण्डन-विवाह में, घूँघट से एक दूसरे को इशारा ही करती रह जाती थीं बुआ जी के दिलफेंकी पर!! और छोटी बुआ जी किसी न किसी को ऐसा पटियाने में जुटी होती थीं जैसे सालों से उनकी जान-पहचान हो।

    ऐसे ही एक वाक़या बताते-बताते तो घर की सारी मेहरारूवे लोट-पोट हो जाती थीं हुआ ये था कि गाँव में बाभनन टोला में शादी थी। छोटी बुआ, मँझली बुआ दोनों सज के गईं द्वारचार देखने। बुधई पंडित के घर से बड़े बाबा का बड़ा घरौटन संबंध था सो आजी के साथ-साथ सब दिनारी दुलहिनें भी स्पेशल बुलावे पर गईं थीं, ख़ूब गमक के द्वारचार की तैयारी हो रही थी पंडित के एक ही बिटिया थी, सो उन्होंने शादी बड़ी धूम-धाम से करी थी बारात तो पास ही के गाँव से आई थी लेकिन ऐसी बारात बाभनन में पहली बार आई थी । ढेर गोला-तमाशा आया था, एक अनार जले औ पूरी जँवार जगमग करे, राकेट तो बिलकुल आकाश छुए, जाने कितना तो नाच-बाजा लाए थे सब, देख-देख आदमी का मन भर गया! लेज़िम बाजा दो जोड़ी, लिल्ली घोड़ी का नाच, सफेड़ा नाच तीन जोड़ी औ नौटंकी तो ऐसी ज़ोरदार लाए थे कि पूँछो न! ऐसी नौटंकी गाँव में पहली बार आई थी! फूलन देवी औ लाखन डाकू का खेल हुआ था तीन दिन की बारात में जो मज़ा आया था सबको कि बाभनन की मूँछ ऊँची हो गई थी। अब उसी द्वारचार में अपनी छोटी बुआ, आगे खड़े होने के लिए घुसी जाएँ, जब आगे नहीं घुस पाईं तो आजी बड़ी ज़ोर डपटीं, कि,

“काहे रे का दुलहवा के खोपड़िया पे बैठ जाबे।”

    बुआ का गलुक्का फूलने ही वाला था कि मँझली बुआ ने उनका हाथ पकड़ा और खींचकर ये कहते हुए ऊपर कोठे की तरफ़ ले जाने लगीं कि, भाभी लोग सब ऊपर ही हैं, हम लोग भी वहीं से देखेंगे बुआ खुश हो गईं। अब ऊपर कोठे और कोठे के छज्जे पर कौन सी भीड़ कम थी? लेकिन द्वारचार तो उन्हें अब कोठे की छत के छज्जे से ही देखना था सो उन्हें ये भी ध्यान नहीं रहा कि भरे जेठ की पसीनादार जुलजुलुवा गर्मी में नई भाभी के अमेरिकी मेकअप बॉक्स से किया हुआ मेकअप, मेलहरू काजल से हेलमेल को कुछ ऐसे आतुर है जैसे द्वारचार की भीड़ में हाथ में हाथ गहे बुआ दोनों बहिनें। 

     नीचे घर के ड्योढ़ी पर पान का बीड़ा खिलावन की रस्म हो रही थी, बाजा और तमाशा वाले झूम-झूम गिरे जा रहे थे लफेड़ा पतुरिया घूँघट उठा-उठा सबको आकर्षित कर रही थी, लेज़िम बाजा का तबलची और पिपीहरीबाज सुर के सातवें घोड़े पे विराजमान हो चुके थे। तो वहीं ऊपर कच्चे ईंटों के पुराने छज्जे पर प्रदर्शनी नुमा खड़ी मेहररूओं में सबसे आगे खड़ीं दोनों बुआ कँटीली करोनी के साथ कच्चे चावल का बीड़ा झोंकते हुए पीछे मुड़-मुड़ भाभी से नए ज़माने का द्वारचार गीत गाने की बार-बार फ़रमाइश कर रही थीं, वहीं बाभनें गाने में जुटी थी,

“हम तोसे पूँछी बारे दूलहे जी, आधी रात काहे आए ए छिया।”

  “टुटहा मियनवा फटहा ओहरवा, बजना ले आए भडभडिया ए छिया।

मैया न लाए बहिनियाँ न लाए, भरि मेहरारू लवतेव ए छिया।

अपनी मैया के ओहपर दियना जलौते, वहि उँजियारे औतेव ए छिया।”

“वे जैसे ही चुप हुईं कि ओहका गाओ ओहका गाओ की गुहार लग गई, इतने में बुढ़िया पंडिताइन ने खींस निपोरी और तान छेड़ दी..

“बराती एक्को मने के नाहीं.. केहु ढचक चलें, केहु मटक चलें, केहू गदहवा की चाल,

बराती एक्को मने के नाहीं”

केहू के आँख टेढ़, केहू के गोड़ टूट, केहू के कूबड़ मसान,

बराती एक्को मने के नाहीं”

इतने में दरवाज़े से बड़े ताऊ जी चिल्लाए,

“ग़लत बात!! ऐसा गाना नहीं होना चाहिए! ये हमारे नए रिश्तेदार हैं।” 

“हाँ-हाँ सही कह रहे आप।” उन्हीं के साथ दसियों लोग बोल पड़े, 

“अरे तनी बखरी वालिन से कहो कुछ नया-नोसर गावें..।”

   पंडित जी का लड़का बोला ही था कि.. उसके साथ कई लोगों की फ़रमाइश, ताई जी और मम्मी के गीत की आ गई।अब मम्मी और ताई जी के ऊपर कोई नया गीत गाने का ज़बरदस्त प्रेशर आ गया आख़िर बड़े अरमान से बोलाई गई थीं वे लोग, गाना तो गाना ही था। सो तान छिड़ गई..

“स्वागत में गाली सुनाओ सखियाँ स्वागत में”

“हमरे समधी जी के टोपी नहीं है लाल ओढ़निया ओढ़ाव सखियाँ स्वागत में।”

“यहि दूल्हे राजा के चंदन नहीं है, सिंदुर ओ बिन्दी लगाओ सखियाँ स्वागत में।”

“एक और! एक और!”

“समधी बड़ा रंगबाज़, हमका निहारे।

दुलहा बड़ा सींटीबाज़, हमका निहारे।

हमने समधिया को बोतल मँगाई, पी के खड़ा दारूबाज़ हमका निहारे।”

      घरातियों की फ़रमाइश पर ताई जी ने जैसे ही सुरीली तान छेड़ी कि दूल्हे के पीछे खड़े ताऊजी ने ऊपर छज्जे पर देखते हुए अपनी मूँछे तिलोरीं, इधर ताई जी हहा के मम्मी के कंधे से लग गईं और कान में बोलीं जानती तो हो न! ई गाली तुम्हारे भाई साहब को कितनी पसंद है, मम्मी भी पापा की तरफ़ देख के खिल्ल से हँस दीं और दूर खड़े पापा ने भी इशारे में सहमति दी कि अच्छा लग रहा तुम्हारा गाना।

    वाह-वाह के बीच ५१ रुपये का नेग, गाली गीत के लिए समधी जी ने जेब से निकाला ही था कि ताऊ जी ने हाथ पकड़ लिया ये कहते हुए कि ये अच्छी बात नहीं। ये तो संस्कार है जी, और समधी झट से गले लग गए। मीठी और मधुर तान छिड़ी हुई थी बाराती और घराती झूम रहे थे कि अचानक आवाज़ आई.. 

“आरारारा धम्म!” 

     जहाँ बुआएँ अपनी सहेलियों के साथ लटकी नैनमटक्का कर रही थीं, चरमरा के उसी छज्जे का कोना गिरा और ६-७ लड़कियाँ धड़ाम से गिरीं और दरवाज़े पे हलचल मच गई ये तो कहो कोने पर लड़कियाँ ही लटकी थीं और गिरीं भी बग़ल में लगी पुआल की खरही के ऊपर। सो किसी को ज़्यादा चोट नहीं आई पर हुलिया तो बिगड़ ही गया, सबसे ज़्यादा तो हमारी हिरोइन बुआ को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। शादी में कोई विघ्न न हो! अतः थोड़ी अफ़रातफ़री के बाद तुरंत ही ताऊ जी ने रस्मों की आगे की कार्रवाही शुरू करवा दी पर बुआ और बुआ की सहेलियों को जो पुआल के बीच से खींच-खींच निकाला गया उससे ऐसी शर्मिंदगी आई कि वे लोग घर चली गईं तो दूसरे दिन फिर शिष्टाचार में ही दिखाई पड़ीं।

      तभी से गाँव-घर की हर मेहरारूवे, रंग-रंगीली छोटी बुआ को देखते ही उस वाकए को याद कर हँस पड़ती थीं। ताई जी का तो नहीं कह सकते लेकिन आज मम्मी का छोटी बुआ को तनिक भी  मज़ाक में लेने का मन नहीं था क्योंकि मम्मी पढ़ी-लिखी तो थी हीं उनकी तीसरी इन्द्रिय भी काफ़ी सक्रिय अवस्था में रहती थी यही कारण था कि बड़े बाबा, मम्मी से घर की घरेलू समस्याओं में सलाह लिया करते थे किसी को नई जगह जाना हो या किसी लड़की की पढ़ाई-लिखाई से लेकर शादी ब्याह तक मम्मी से ही मशविरा किया जाता था, मम्मी की पढ़ने और पढाने दोनों में रुचि थी आख़िरकार उस जमाने में मम्मी इंटर तक अंग्रेज़ी जो पढ़ी थीं, मम्मी के पास अपना गूगल था उस समय, अरे इंटरनेट वाला नहीं भई! पुस्तकों वाला था, कोई प्रश्न जैसे ही करो वे झट ग्रंथ खोल, बाल में खाल निकाल-निकाल, सटीक जवाब खोज लेती थीं, उसी क्रम में आज भी उन्होंने छोटी बुआ का बड़ी बुआ की सेवा में जाने की आतुरता को भाँप लिया था, उनका जिज्ञासु और ख़खेड़ी मन यह क़तई मानने को तैयार नहीं था कि छोटी बुआ जी का अपनी बहन की सेवा करने का इतना मन है।

    मम्मी पहले तो घरेलू मकड़ी बन जंगली जाले के सूत-सूत को उधेड़ और बुन रही थीं पर जब वे जाले के सिरे पर नहीं पहुँचीं तो आख़िरकार उन्होंने ख़ुद को जंगली मकड़ी बनाकर, जाले का वो सिरा पकड़ ही लिया जिससे जाला बनाने की क़वायद हुई होगी और उन्होंने झट ताई जी को अपनी शंका बताई और कई हवाले याद दिलाए कि वैसे तो उचना में छोटी बुआ बड़ी बुआ जी के आने पर तो मुँह ही फुला लेती हैं, अब आख़िर इतना प्रेम कैसे उमड़ रहा उनके अंदर? हो न हो! दाल में ज़रूर कुछ काला है, दोनों देवरानी-जेठानी अब इस निष्कर्ष पर पहुँच गई थीं कि हो न हो छोटी बुआ का दिल बड़के फूफा के बटन में टँक गया है, और बड़के फूफा तो पहले से ही मेहररुओं से बटन टँकवाने के आदी हैं, ताईजी और मम्मी दोनों ने सौ-सौ जुगाड़ लगाए पर जंगली मकड़ी के जाले की बुनावट को जानने के अलावा उसका बनना नहीं रोक पाईं और मकड़ी जाले के मध्य में जाकर बटन का होल बन गई। 

    बड़ी बुआ की तकलीफ़ सुनकर छोटे बाबा का दिल ऐसा रोया कि छोटी बुआ को लेकर ख़ुद ही बड़की बुआ के घर चल दिए और उनके गाँव में चार दिन रहकर छोड़कर लौट आ गए थे। 

     एक ही महीने के अन्दर बड़की बुआ के बेटा हो गया था आजी ने ख़ूब भारी-भरकम बधावा की तैयारी करके फिर बड़के बाबा को भेजा और लौट के बड़के बाबा ने भरे-पूरे घर के सामने बड़की बुआ के पूरे घर-परिवार की तारीफ़ तो करी ही, छोटी बुआ की कर्मठता की भूरि-भूरि प्रशंसा की, बड़की बुआ तो सचमुच प्रशंसा वाली थीं पर छोटी बुआ के कामकाज की प्रशंसा पर तो आजी, ताई जी और मम्मी को दिखा-दिखा के उछली पड़ रही थीं। काहे से ये दोनों ही अक्सर छोटी बुआ की आदतों का ज़िक्र कर दिया करती थीं। बाबा की तारीफ़ से न तो छोटी बुआ में कोई सुधार होना था न आजी का बहुत दिन उछलना ही चलने वाला था। वहाँ तो समय एक नयी कहानी गढ़ रहा था। जब बाबा बड़की बुआ का बधावा लेकर गए थे तो उनके सास-ससुर से बुआ को साथ लिवा ले जाने को बोले थे तो उन लोगों के साथ-साथ फूफा ने कहा था कि हफ़्ते दस दिनों में मैं मन्नन तथा बिट्टन दोनों को लेकर आऊँगा। आपके यहाँ बच्चे और माँ की अच्छी सेवा हो जाएगी। आपका परिवार बहुत सेवाभाव वाला है न! बाबा ये बात बड़े गर्व से सबके सामने बताए थे, अब वो दिन आ गया था जब आजी बुआ के आने की तिथि उँगलियों के पोरों पर गिनने लगी थीं, और उस दिन शाम को दरवाज़े से लेकर बग़ीचे और छोटी बखरी से लेकर बड़ी बखरी तक पूरे घर की लिपाई-पुताई चल रही थी, बाबा ने लकड़ी वाला नक्काशीदार पालना, भाभी के कमरे से निकलवा के अंदर वाली ड्योढ़ी के बरामदे में डलवा दिया था और दादी ने ढोलक को दोबारा धूप दिखा के सारी डोरी कसकर, बड़ी चाची को नया सोहर गाने का निमंत्रण भी दे दिया था और अपना मौनी के नीचे गौर न्योतने बैठ गईं गौर ने भी बुआ के तुरत आगम को बता दिया था ख़ुशी के मारे आजी मंदिर की ड्योढ़ी पर हाथ जोड़े निहुरी ही थीं कि कक्कू वाले छोटे लल्ला ने हल्ला मचाया कि बुआ आ गईं! बुआ आ गईं! आजी जल्दी-जल्दी गेंडुआ में लौंग और गुड़ डाल, ढरकौना लिए दौड़ीं कि बड़े चाचा बोले कि,

“ई झुठ्ठा है काकी! अभी बुआ नहीं आईं।”

  इतना सुनते ही काकी लल्ला पर ऐसी फ़िरंट हुईं कि लल्ला के तरफ़ से घर के आठ सदस्य ने पैर छूकर माफ़ी माँगी, आख़िर नाती के आने की ख़ुशी ने उनका नक़ली क्रोध शांत कर दिया था। ये सब नाटक हो ही रहा था कि बुआ की डोली दरवाज़े पे आके उतर गई, साथ ही पैदल चलती छोटी बुआ और बड़के फूफा भी आकर ड्योढ़ी पर ही पलंग पर बैठ गए। दरवाज़े से लेकर रसोईं तक हलचल मच गई, बाबा के आदेश और आजी के कहे अनुसार बड़के फूफा और बुआ का खूब स्वागत-सत्कार होने के साथ-साथ छत्तीस व्यंजनों का भोज कराया गया।

     रात हो गई थी, फूफा को चौपाल में मशहरी और बुआ को मम्मी की मशहरी पर सोने का बिस्तर लग गया था चूँकि मम्मी और बुआ में बहुत पटती थी सो बुआ ख़ुद ही कहीं कि वे आज मम्मी के कमरे में सोएँगी। नवका लल्ला तो अभी तक, इस हाथ से उस हाथ इस गोदी से उस गोदी ही ट्रांसफ़र हो रहा था कि आजी नज़र उतारने के बहाने लल्ला को अपने अँचरा में छुपाए धीरे से मम्मी के कमरे में आ गईं और लल्ला को बुआ की गोदी में डालते हुए समझा गईं कि सवेरे जब टोला-पड़ोसी आएँ तो उनके सामने लल्ला को वही ले जाएँगी छुपा के, नहीं तो नज़र लग गई तो उतरने वाली नहीं, काहे से भरतिया की एक कही पर सौ बरस नज़र नहीं उतरती।

  आजी के जाते ही बड़की बुआ ने मम्मी के कमरे की कुण्डी लगाई और मम्मी के गले लग फ़क़क-फ़क़ककर रो पड़ीं, मम्मी की जंगली मकड़ी वाली कहानी हक़ीक़त हो गई थी। बड़के फूफा बड़की बुआ को सेवा के लिए मायके छोड़ने नहीं आए थे, वे आए थे छोटी बुआ का हाथ माँगने!

     अगले दिन सुबह सबकी आँख तब खुली जब घर में हलचल मची हुई थी सारी मेहरारूवें सिर पे पल्लू रखे ड्योढ़ी वाले बरामदे के अंदरूनी हिस्से में आश्चर्यचकित खड़ी ख़ुस्फ़ुसा रही थीं और दोनों आजियाँ खोपड़ी पर हाथ धरे मचिया पर आधी बैठी और आधी लटकी थीं बड़े बाबा छोटे बाबा को कौरियाये खड़े थे। काहे से कि छोटे बाबा सरसों तेल से तेलियाए पके बाँस के सोंटा से गुजरात के रिज़र्व बैंक के गवर्नर का पिछवाड़ा लाल कर दिए थे और गवर्नर साहब मुँह के बल बाबा के चरणों में पड़े थे साढ़े छः फीट का मुर्ग़ा कबूतर बन गया था और ज्योतिष के कुकड़ूकूँ की जगह गुटरगूँ कर रहा था। 

    सारा तहलका जब शांत हुआ तो आनन-फ़ानन में छोटी बुआ के लिए एक जाहिल-गँवार खोज दिया गया था और आगे के लिए एक ऐसी लक्ष्मणरेखा खींची गई कि ख़ानदान की कोई भी कन्या जीजा नाम की प्रजाति से आजीवन दूर रहेगी।

जिज्ञासा सिंह                                      

आवेग

 तड़ाक! तड़ाक!

“किसी को जूठा करके सेव देते हैं भला? तुमने सेवों में दाँत गड़ाकर सारे सेव जूठे कर दिए।”

सुधांशु बेटे का कान उमेठते हुए, गाल पर थप्पड़ जड़ते हुए चिल्लाए, तीन साल के बेटे के आँख से आँसू निकले गालों पे लटक गए, बेटा गाल सहलाते हुए बहन को देखकर बोला,

“ पापा! दीदी मीठे सेव ही खाती है न, मैं तो चख लहा था।”

जिज्ञासा सिंह 

इंतज़ार

  

वृद्धाश्रम में रहते मित्र की मृत्योपरांत, केशव और वृद्धाश्रम संचालक, उनके बेटे को फ़ोन करते रहे पर वह नॉर्वे से नहीं आया। निराश केशव ने अंतिम संस्कार स्वयं करने की इच्छा अपने बेटे ऋषभ को बताई। बेटा रोष में बोला,

 “पापा! मित्रता आश्रम तक ही रहे घर मत लाइएगा।”

   बेटे के दुर्भाव से आहत पिता ने मित्र का क्रियाकर्म कर, वृद्धाश्रम में ख़ाली बेड अपने लिए रिज़र्व कर लिया। घरवाले पेंशन का इंतज़ार करते रहे।

जिज्ञासा सिंह 

प्रतिशोध कहानी

‘रचना उत्सव’
प्रयागराज से प्रकाशित होने वाली प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका के ‘स्त्री शक्ति विशेषांक’ में प्रकाशित कहानी ‘प्रतिशोध’।

“तुम कहते हो न! तुमने आग नहीं देखी!

आग देखनी हो तो झाँक के कभी पानी में देखना। तुम्हें दिखेगी! आग बहती हुई स्याह रंग लिए, स्याह जैसे-जैसे पानी में फैलेगा नीला होता जाएगा, नीली बूँदों में झलझलाएगा हल्का पीला रंग, वही हल्का पीला बह-बहकर आगे फिर मटमैला होगा, मटमैला निथरेगा और निर्मल पानी हो जाएगा, आग का परावर्तित रूप।

जो अब भी आँखों में झिलमिला रहा है। ये कहते हुए कि पानी बनना ठीक है पानी बनो और समय के साथ बह जाओ, यहाँ आग केवल और केवल ख़ुद को ही जलाती है।”

         जगराना नटिन आज फिर अपने ४० सदस्यों के बेड़े के साथ सफ़र पर है, सफ़र कोई यात्रा नहीं है, ये ऐसी यात्रा है जो उसकी सात पीढ़ियों से सतत जारी है और जारी है वो संघर्ष, जिसके दायरे में आती है सबसे बड़ी आग; ये कोई आम आग नहीं! ये आग है पेट की! भूख की!!

     ये यात्रा थके हुए रंगों भरे सफ़र के बाद अपना डेरा डालेगी। इस डेरे का अगला पड़ाव अब कोई गाँव या नगर नहीं है, क्योंकि लोग अब नटों का करतब देखने के बजाय तरह-तरह के नए मनोरंजन में डूबे हैं, मजबूर नटबेड़िया जाति अब मज़दूरी करने पर उतर आयी है, एक और भी कारण है उनके मज़दूरी करने का कि वे भिखारी नहीं हैं, वे करतबी लोग हैं, अब अगर लोग उनकी कला नहीं देखना चाहते तो क्या वे भिखारी बन जायँ, कुछ नट कुनबों ने धंधा छोड़ के भीख माँगना प्रारम्भ किया तो लोग उन्हें भिखारी कहकर दुत्कारने लगे, सामाजिक अवहेलना और हिक़ारत देखकर जगराना ने अपने कुनबे को गुरूमंत्र दिया कि हम भीख नहीं माँगेंगे हम सीना ठोंककर काम करेंगे और एक दिन इसी समाज में अपना हक़ लेकर अपने बच्चों को ज़िंदगी जीने की मुख्यधारा में शामिल करेंगे। 

    इसी व्यवस्था को तलाशता ये खानाबदोश लोना कुनबा आज शुगर मिल के अहाते में डेरा डालेगा। अभी तक यहाँ से २५ किमी दूर एक छोटे क़स्बे में एक अस्पताल में क़रीब छः महीने से ये लोग मज़दूरी कर रहे थे कि अचानक कुनबे की उम्रदराज मुखिया जगराना का फ़रमान ज़ारी हुआ कि अब हम दूसरी जगह डेरा डालेंगे। वहीं अस्पताल के प्रांगण में ही उसे किसी ने नई शुगर मिल बनने की बात बताई और मिल के मालिक को अपना मित्र बताकर बात करवा दी। लोना कुनबा अब मिल प्रांगण में निवास बनाने में लगा हुआ है। 

     पचहत्तर बरस की पतली दुबली सामान्य क़द-काठी की जगराना केवल महिला ही नहीं वे नटों में मातृसत्ता की परिचायक हैं, नटों के बड़े कुनबे को उठाए उनकी खोपड़ी, जो चाँद पर पूरी तरह गंजी है, कहते हैं कि पहले बहुत सुंदर घने बालों वाली थी, अब बिन आदत के ईंट ढोने से वो गंजी हो गई है, वे श्रम की ठेकेदार हैं, न कि शारीरिक सुंदरता की, हालाँकि नटिनें अपनी सुंदरता से जाने कितने राहगीरों, सहश्रमियों, यहाँ तक कि बड़े-ऊँचे ओहदेदारों को अक्सर घायल करती रहती हैं, पर मजाल है, जगराना की नज़र से कोई शिकारी बचकर निकल जाय। उनकी जवानी की किस्सागोई कुनबे की अगली जमात के लिए मनोरंजन के साथ ही प्रेरणा भी है, 

जगराना की नज़रों और कानों से बच के कुनबे में किया जाने वाला कोई भी काम चोरी है, वे कर्मकांडों और झाड़-फूँक में भी माहिर हैं, झाड़-फूँक करने तो वे दूर तक बुलाई जाती हैं, इसके अलावा बच्चा होने पर दाई का काम भी बड़ी सुघड़ता से करती हैं, उनकी देखरेख में जच्चा-बच्चा का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। क्या पढ़े-लिखे, क्या धन्नासेठ उनके हाथों में जाने कौन सा जादू है? कि लोग उन्हें अपनी गाड़ी में बिठाकर ले जाते हैं।

 कहते हैं एक बार उनका डेरा रास्ते से गुज़र रहा था और लोनीकोट के राजा की गाड़ी भी उधर से ही गुजर रही थी, गाड़ी में चीत्कार मचा हुआ था। राजा आगे गुमसुम और उदास बैठे थे, रानी अपनी गोद में नवजात राजकुमार को लिए रो रही थी, पूँछने पर पता चला कि रानी के कोई औलाद नहीं थी पंद्रह साल बाद वे गर्भ से थीं, डॉक्टर के यहाँ इलाज चल रहा था, पर ये बच्चा सत्वासा पैदा हो गया और अब बचने की कोई संभावना नहीं है, डॉक्टर ने हाथ लगाने से मना कर दिया। और अब वे लोग राजमहल लौट रहे हैं।

   राजा-रानी के दुःख से मर्माहत जगराना ने अपने मंत्रों और जड़ी-बूटियों से राजकुमार की देंह में जान पहना दी थी, उस दिन राजा और रानी ने उन्हें १०० बीघे ज़मीन और जीवन भर के लिए उनके समाज को गोद लेने की पेशकश की थी लेकिन जगराना ने हाथ जोड़ लिया था बच्चे की जान के बदले वो राजा साहब के सामने झुक गई थीं। राजा ने उसी दिन उनके कुनबे का नाम लोना कुनबा रख दिया था, वो दिन और आज का दिन पूरे नट बिरादरी में जगराना के कुनबे को ख़ास इज़्जत थी, किसी की मज़ाल नहीं थी कि जगराना पर कोई उँगली उठा सके। न पुरुष न स्त्री कोई भी उनके प्रभुत्व को आज तक कम नहीं कर पाया।

    मुखिया होने के साथ-साथ वे कुनबे की तीसरी सबसे बुजुर्ग भी हैं, साथ में मायके का पूरा परिवार रहता है, तो ससुराल से देवर और ननद भी सहचरी हैं। उन्हें जगराना का शासन बर्दाश्त नहीं इसलिए वे चलते तो साथ ही हैं लेकिन अपना डेरा जगराना की नज़रों से बचने के लिए कुनबे से अलग ही बनाते हैं। जोमई नट जगराना का सगा भतीजा है, जिसके तीन बेटियाँ और दो बेटे ४० सदस्यों की मंडली का हिस्सा हैं, वहीं जगराना की बहन का पूरा परिवार वर्षों पहले से जगराना को अपना मुखिया मान चुका है, बड़ी बहन की सबसे बड़ी बेटी साकिया जगराना के बाद मुखिया का दायित्व निभाती है।

    कहने को तो मंडली का मूल निवास नेपाल और भारत की सरहद पर है कहीं, लेकिन हैं वे खानाबदोश ही, जहाँ जाते हैं,वहीं तम्बू गाड़ के चार-पाँच अलग-अलग झुग्गियाँ बना लेते हैं, एक झुग्गी में ५ या ६ लोग साथ-साथ रहते हैं, दस साल से कम उम्र बच्चों की कोई गिनती नहीं होती, वे कहीं भी चाची, मौसी, ताऊ, फूफा किसी के साथ रह सकते हैं, खा सकते हैं, सो सकते हैं। राशन और अन्य खर्चा हर सदस्य का अपना-अपना है। अपनी-अपनी झुग्गी का अपना-अपना राग बजता रहता है। 

       उनके कुनबे में मनुष्यों का जमावड़ा तो है ही, जानवर भी अपने रिश्तेदारों से बंधे हुए हैं, एक बूढ़ी भैंस के परिवार में तीन भैंसों के अलावा चार जवान भैंसें, तीन पंड़ा और पाँच पड़ियाँ हैं, तो दो बूढ़े कुत्ते, तीन बूढ़ी कुतियों के साथ-साथ जवान कुत्तों-कुतियों और उनके पिल्ले-पिल्लियों की बाढ़ है और तो और पंछियों में मुर्ग़ा-मुर्गी तो इतने हैं कि एक दड़बे की ज़रूरत पड़ती है, जिससे स्थानांतरण में उन्हें आसानी रहती है, हाँ मेहमान के तौर पर तरह-तरह के पंछी उनके डेरे पे उड़ते ही रहते हैं।

          ऐसे पंछी अक्सर कुनबे पर मंडराते हैं, और किसी सुंदर नए गुलाबी पंखों वाली मुर्गी को अपने सुनहरे पंखों का फड़फड़ाना दिखाते हैं, कभी-कभी आसमानी कलाबाज़ी के करतब का प्रदर्शन मुर्गियों के दिल को इस कदर घायल कर देता है, कि मुर्गियाँ उन पंछियों के बराबर उड़ तो पाती नहीं पर उड़ते हुए पंछी के साथ दौड़ने की लालसा नहीं छोड़ पातीं। फड़फड़ाकर उड़ना, फिर दौड़ना, फिर उड़ना, फिर दौड़ना उन्हें अनजाने छोर तक पहुँचा देता है, कुछ क्षण के लिए आसमानी सुनहरा पंख, गुलाबी कोमल पंखों का सहचर होना, एक फूलों वाली शाखा पर घोंसला बनाने का स्वप्न दिखा जाता है।

     स्वप्न का क्या कहें? स्वप्न में बने घोंसले रहने के समय अक्सर तितर-बितर ही हो जाते हैं। भाग-दौड़कर कितना भी समेटो वे बनते ही नहीं, एक सिरा बनता है तो दूसरा उधड़ ही जाता है, एक तिनके के पीछे भागते-भागते स्वप्न में बना हुआ घोंसला इतनी दूर हो जाता है कि लौटने पर रास्ते ही आपस में गड्ड-गड्ड आँड़े-तिरछे नज़र आने लगते हैं, अब या तो उन गड्ढों में उतरो या किनारे से निकल लो या फिर लौट लो, पर कहाँ? स्वप्न पीछा भी तो नहीं छोड़ता, वो जड़ से हिलाता है, तोलता है, मोलता है फिर झट्ट डंडी मार अपने तराज़ू में दोबारा चढ़ा लेता है और पुतलियों में बिंधा हुआ, अपने मन मुताबिक टका-सेर के भाव तोलता हुआ चलता है, करे तो क्या करे? ऐसे स्वप्नों का स्वाद ही इतना निराला होता है कि उड़ भले न पाओ पर प्यासा मन उड़ान पर जाने की लालसा नहीं छोड़ पाता। 

    कभी-कभी स्वप्नों की दुनिया के चोचले से अनजान कोई मासूम गुलाबी परिंदा जब स्वप्नों के दलदल के सागर में बह जाता है और गहरे तक उतर, डूबता-उतराता फँस जाता है, तो उसे कोई चंचल गोल्डन फ़िश नहीं बचा पाती उसे फिर धारदार दाँतों वाली शार्क सरीखी कोई चैतन्य मछली ही शिकारी से बचाने का उपाय कर पाती है, अब शार्क मिल गई तो ठीक नहीं तो फिर सागर का लाल होना तय है।

         आज की भोर जगराना के आसमान के सागर को लाल होने से बचा गई है, पर शोर है कि सागर का पानी लाल होने वाला है, अब ये लाल पानी किसके लहू से होगा? गुलाबी पंखों के नुचने से या आसमानी सुनहरे पंखों के कटने से या कुछ और। चढ़ता हुआ सूरज अपना ताप और चढ़ाने को आतुर है, वहीं रात को चढ़ा चाँद देहरी पर उतरकर अपनी शीतल छाँव से सूरज की किरणों को ओस की बूँदों की मालिश दे रहा है, देखते हैं मालिश शीतलता देती है या रगड़ से और गर्मी बढ़ा जाती है।

    इससे पहले लाल पानी के सागर की तेज लहरें फटाफट गिरें और अपने छींटे से जगराना के कुनबे को लाल करे, साकिया ने मोर्चा संभाल लिया है, उसके ज़िंदा रहते कुनबे पर लाल छींटें!! किस चिरौटे ने उड़ती चिड़िया की छाती का दूध पिया है? साकिया खानाबदोशी कुनबों की शान, जगराना के बाद शासन सत्ता की उत्तराधिकारी है।

      मर्दाना डीलडौल पर लटकती रूखे भूरे बालों की दो लम्बी चोटी, चोटी में धागे की गुँथी काली चौरी, चौरी में लटके, लाल-पीले-हरे-नीले चार-पाँच लटकनों में, जानवरों के छोटे बजनूदार घुँघरू और मुँह में परमानेंट भरी पान मसाले की पीक साकिया की पहचान है, एक बोलोगे, चार पाओगे का हिसाब जेब में रखकर चलती है। बोलकर तो कोई भी माई का लाल आज तक निकल नहीं पाया है, चार खसम ऐसे ही नहीं छोड़ दिए हैं, फिर भी कोई परवाह नहीं, जब चाहेगी मिन्टों में नया खसम ढूँढ लेगी, चैलेंज है! कर के देख लो! तीसरे वाले ने किया था और एक घंटे में बिना साकिया के हो गया था। अब ये चैलेंज ही चौथे को डरा रहा है, नहीं तो अब तक साकिया के चरणों में पाँचवा भी गिर चुका होता।

    ढीली स्त्रियाँ कुनबे को ढीला कर देंगीं, किसी भी तरह का ढीलापन उसे बर्दाश्त नहीं। मौसी का ज़माना जा रहा जो शीतल लेप से काम चल गया। साकिया के हिस्से की बागडोर में आग की लेपन है, और ये आग लाल बूँदों को भस्म करेगी, ऐसी लाल बूँदें उसने अपने अड़तीस बरस के बसंत में कभी भी लपटों पर नहीं पड़ने दी है, जब भी लाल बूँदें उसके कुनबे की आग के ऊपर पड़ने को आतुर होती, वो पहले तो मौसी के शीतल लेप से शांत की जातीं, और जब लेप शिथिल हो जाता, तो उस पर रोगन होता है, आग का।

       लाल छींटे आज फिर शीतल लेप की ड्योढ़ी लाँघकर झुग्गियों की ड्योढ़ी पर दस्तक दे रहे हैं, मातृसत्ता में चीत्कार है, झुग्गियों की ड्योढ़ी पर साकिया का शासन भविष्य में होने वाला है, उसकी सत्ता को कौन गीदड़ चुनौती देकर चला गया है? उसे कोई सच क्यों नहीं बता रहा? आख़िर मसला क्या है? मौसी किसको बचाना चाह रही है और क्यों? किसके सतीत्व का हनन हुआ है? उसके कुनबे में ऐसा तो कभी नहीं हुआ, अगर कभी कुछ हुआ है तो न्याय हुआ है, आज जगराना के शीतल लेप का बस इतना असर हुआ है कि कुनबे में वितरित होने वाला सूरज का ताप ढलकर शाम में ढल गया है, हर झुग्गी के आगे पानी का छिड़काव हो चुका है, मच्छरों को भगाने के लिए भूसे और पुआल को जगह-जगह जला दिया गया है,चिड़ियाँ घोंसले में जा चुकी हैं, उन्हीं के साथ भैंस कुनबे ने चारा ठूँसने के बाद पानी पीकर जुगाली भर ली है, अब वे टट्टर के नीचे बैठकर आराम से मच्छर उड़ा-उड़ा के पगुराएँगे, कुत्ते जाने कहाँ से एक गट्ठर खून सनी लत्ते की गठरी और जानवरों की हड्डियाँ खींच लाए हैं, चीर-फाड़ जारी है, बीच-बीच में हिस्से और अधिकारों का भौंकना भी जारी है, नन्हें पिल्लों को भी अपना हिस्सा माँगने के लिए दूर से ही महीन कीं-कीं और कभी-कभी भुक्क में बोलना पड़ रहा है, मुर्ग़े दरबे में बंद हैं, उनकी बाँग तो सुबह की गिरवीं है, हाँ कभी-कभी पंख फड़फड़ाने के साथ-साथ कुकड़ूकूँ का छोटा सा शोर एक साथ सुनाई पड़ जाता है, फिर अपने आप शांत हो जाता है। सभी कुछ स्थिर है, बस लाल छींटे की ख़बर फुसफुसाहट में तारी है, लम्बे बाँस के खम्भे पर लगा जो बल्ब टिमटिमा रहा है, उसके चारों तरफ़ गुजिया कीड़ों ने घेरा बना रखा है कि रोशनी ऐसे छन कर आ रही है जैसे दीवाली की दुपदुपाती झालर। किसी-किसी ने कंटिया जोड़कर एक बल्ब अपनी झुग्गी में भी लगाया हुआ है, पर ये क्या? 

“बिजली तो फिर गुल्ल हो गई।”

 जोमई की मँझली बेटी किशोरी ज़ोर से चिल्लायी, 

उसका चिल्लाना था कि एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा और आवाज़ आई, 

“बिजली तो गुल हुई पर तू जल रही है और हमें भी जला रही है।”

थप्पड़ की चोट को ड्योढ़ी पर ही छोड़ किशोरी सट्ट अपनी झोपड़ी में घुस गई।

  किशोरी तो झोपड़ी में चली गई पर साकिया की पैनी नज़र से न बच पाई, वो भाँप गई कि जोमई उससे कुछ छिपा रहा है, जो सुबह से सरगोशी चल रही है कुनबे में, उसका संबंध किशोरी से ही है। उसने आव देखा न ताव जगराना की खाट पर जाकर बैठ गई और अपने हाथ में बँधा ताबीज़ निकालने लगी, जगराना चिल्लाई, 

“ ये क्या कर रही? कुनबे का सत्यानाश करवाएगी क्या? जानती नहीं इस ताबीज़ में हमारे पुरखों की शक्तियाँ बँधी हैं, मेरे ज़िंदा रहते ऐसे सोचना भी मत! जानती नहीं, मेरे बाद तू और तेरे बाद इस कुनबे को कोई नहीं संभाल पाएगा।”

“ऐसे मैं कुनबे को सत्यानाश होने से क्या बचा पा रही हूँ? जब मुझे होनी-अनहोनी का ज्ञान ही नहीं होगा तो मैं क्या ख़ाक बचाऊँगी कुनबा? अब तो यहाँ मुझ ही से बातें छुपाई जा रहीं।”

“पहले यो ये बता कि आज सुबह से ही तू इतनी क्यों परेशान है? क्यों इतना ज़्यादा सोच रही है? रात तू कहाँ थी? वो तो छबीला जाग गई किशोरी को बगल में न देख, उसने अपने बाप को बताया फिर मैं और वह दोनों टॉर्च लेकर गए, अंधेरे में कुछ दिख नहीं रहा था, मैंने तेरी झुग्गी की तरफ़ झाँक कर देखा तू हमें दिखी ही नहीं तो हम दोनों ही चले गाए हमनें देखा कि सामने की बिल्डिंग के कमरे के दरवाज़े से किशोरी निकल रही थी हम बिल्कुल उसके सामने खड़े थे, वो ससुरी मरती क्या करती? पकड़ तो गई ही थी सो चुप्प आकर अपनी झुग्गी में दुपक गई, हमने लाख पूँछा लेकिन उसकी ज़ुबान न खुली। हम ये नहीं पता कर पाए कि उसके साथ कौन था?”

बताते-बताते जगराना बीच में ही चुप हो गई।

“जगराना तो चुप हो गई पर साकिया की आँखों से अंगार निकलने लगा और वो थर-थर काँपकर चिल्लाने लगी।

“ऐसा कैसे हो सकता है मौसी कि तेरे सामने कोई चुप रह सके, तूने क्यों नहीं पूँछा उससे? कमरे में उसके साथ कौन था? तुझे पता है, बोल मौसी! जल्दी बोल कौन था इसके साथ? तुझे सब पता है। मेरा कलेजा फटा जा रहा। तू मुझसे ज़रूर कुछ छिपा रही है।”

साकिया चिल्ला रही थी वहीं जगराना एक चुप्प कि हज़ार चुप्प थी। वो जानती थी कि साकिया कुछ भी बर्दाश्त कर लेगी पर लड़की की इज्जत के लिए क़ुर्बान हो जाएगी! 

   साकिया ने मौसी को कभी इस तरह चुप्पी साधे नहीं देखा था वो अचंभित थी कि आख़िर कौन है? जिसके लिए मौसी का खून नहीं खौल रहा। उसने जगराना को ज़ोर से पकड़कर झिंझोड़ा और बड़ी तेजी से झटका देते हुए उसके हाथ का ताबीज़ नोंचा और आसमान की तरफ़ उछाल दिया और इतनी ज़ोर से चिल्लाई कि, 

“तेरे हाथ पर ये लोना ताबीज़ अब शोभा नहीं देता मौसी।”

शोर सुनकर लोना कुनबा इकट्ठा हो, चारपाई को घेर कर खड़ा हो गया,

“क्या हुआ? क्या हुआ?” के शोरगुल में भी जगराना मौन थी।

   आसमान में काली अँधेरी रात का घना साया नट कुनबे पर गहराता जा रहा था, दो सत्ताधारी स्त्रियों में, एक वाचाल हुई जा रही थी तो एक मौन साधना किए हुए थी मौन का कुरूप रूप तब और कुरूप हो गया जब घेरकर खड़े होने वाले लोग अत्यधिक वाचाल हो-हो चिल्लाने लगे। 

   आख़िर बोलती क्यों नहीं? कौन है? जो हमारे कुनबे की इज़्ज़त क्षीण करना चाहता है। सबकी सुनते-सुनते जगराना की चुप्पी आख़िरकार टूट गई और आँचल को मुँह में ठूँसते हुए बोली कि, 

“एक-दो दिन रुक जाओ, जब कुत्ते भौंकेंगे और गिद्ध मण्डराएँगे तो सभी को पता चल जाएगा कि कल रात किसने आँख उठाई थी? तुम लोगों को नहीं याद पर मुझे साकिया कि इज़्जत लूटने पर ली गई, अपनी क़सम अभी भी याद है कि अगर बदला नहीं ले पाई तो मेरी लाश ही निकलेगी।”

“तो क्या? तो क्या?” सब एक साथ चिल्ला पड़े।

“कहा न! अगर कुत्ते और कौवे सुराग न दे पाए तो चीलें हमारे आकाश में ज़रूर उड़ेगी। हाँ! तुम सभी सुन लो! कल मैं कुछ दिनों के लिए बाहर जा रही हूँ।”

     सुबह हो गई थी, मुर्ग़े बाँग देकर चुप हो गए थे, पूरे लोना कुनबे में गहरा सन्नाटा था। पर सबकी निगाहें आसमान में मँडराते गिद्धों और चीलों को ढूँढ रही ही थीं, दो दिन और दो रात बीत गई परंतु वे नहीं दिखाई दिए।तीसरे दिन की सुबह हो गई थी सूरज की पहली किरन फूट रही थी कि अचानक कुत्तों ने तेज-तेज भौंकना शुरू कर दिया। तीन-चार नट उसी तरफ़ दौड़े तो पता चला कि झाड़ियों में मांस के टुकड़े पड़े हुए हैं, बदबू आ रही है, ये ख़बर सुनते ही साकिया अपनी ओढ़नी सम्भालती हुई दौड़ पड़ी, उसको जगराना की हक़ीक़त पता थी, वो जानती थी कि जो आग १४ बरस की उम्र में उसके जिस्म पर लगाई गई थी, वही आग मौसी के जिस्म पर भी १४ बरस की उम्र में अपना निशान छोड़ गई थी और अब चौदह बरस में किशोरी भी चल रही है, फ़र्क़ बस इतना है कि मौसी की आग उनके माँ-बाप ने समाज के डर से बुझवा दिया था जबकि उसके जिस्म में लगी हुई आग ख़ुद मौसी ने पानी डालकर बुझा दी थी, पर किशोरी की आग को तो मौसी को ही चिता देनी थी आख़िर ऐसी आग को बुझाना भी तो बहुत कठिन होता है जिसकी चिंगारी अपनी ही हो। 

    सोचते-सोचते वह झाड़ियों की तरफ़ बढ़ रही थी कि थोड़ी दूर जाते ही उसे जगराना की फटी ओढ़नी दिखाई दी और ओढ़नी से झाँकतीं दो उँगलियाँ भी। वह सनक कर मौसी-मौसी चिल्लाते हुए दौड़ने लगी। 

    अचानक से पैदा हुए वहम की तस्वीर, उसके सामने जगराना के क्षत-विक्षत शव के रूप में पड़ी हुई थी, वह कटे पेड़ की तरह चिंघाड़ मार कर गिर पड़ी, चील-कौवे पहले से ही मँडरा रहे थे, वे अपनी लय में लहरा-लहरा मँडराते रहे। उसके चिंघाड़ने की आवाज़ सुन कुत्तों का भौंकना मंद पड़ गया था, अब केवल और केवल भौंक रही थी तो पलक झपकते बदला लेने वाली साकिया। साथ में लोना कुनबा भी पिल्लों की तरह मिमिया रहा था।

जिज्ञासा सिंह

कहानी.. जंगली घास

“लखनऊ कनेक्शन वर्ल्डवाइड” पत्रिका में प्रकाशित कहानी जंगली घास





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“ऐ मौत आज तू इतनी शांत कैसे है?

मौत! तू कभी तो एक क्षण में आ धमकती है, कभी वर्षों मलमल के गद्दे पर सड़ा देती है, क्या कहें तुझसे? तुझसे बड़ा खिलाड़ी नहीं देखा!”

 

 सिंदूरी ज़मीन पर मरी हुई पड़ी है, दोनों बच्चे उसके शरीर से चिपके हुए हैं, ग्यारह महीनें का मुन्ना ब्लाउज़ को ऊपर करके उसके मरे हुए स्तनों में दो बूँद जीवन खोज रहा है, तीन साल की बिट्टन को थोड़ा-थोड़ा अहसास है, कि माँ अब कभी नहीं लौटेगी.. सामने लोगों की भीड़ में खड़ी केंवली आँटी की आँखों का आँसू बिट्टन को यह बता रहा है, कि माँ के साथ कोई बड़ी अनहोनी हो गई है, आख़िर बचपन से ही वो ऐसी घटनाओं की आदी जो हो चुकी है।

 

 लूना अपनी नौकरानी की हुई अचानक मौत पर उसका अंतिम दर्शन करने उसकी झुग्गी पर आई है, उसे तो सिंदूरी की मौत का पता ही नहीं चलता पर हाकिम सब्जीवाला सिंदूरी का पड़ोसी है, उसी ने आज सुबह, जब लूना सब्ज़ी लेने घर के बाहर निकली तो यह खबर सुनाई। लूना को विश्वास ही नहीं हुआ कि सिंदूरी अब इस दुनिया में नहीं है, सिंदूरी के मासूम बच्चों के दर्द से आहत वो अपने को उसकी झुग्गी पर आने से रोक नहीं पाई।

 

  अभी कल ही की तो बात है, जब उसने माली के न आने पर सिंदूरी से कहा था कि वो खुरपी लेके गमलों की गुड़ाई कर दे और जो ये घास के जैसे कटीले महीन पौधे उगे हैं, उन्हें जड़ से निकाल दे, तब जवाब देते हुए सिंदूरी ने कहा था.. 

 “मेमसाहब ये जंगली पौधे का बीज आपके गमले में कैसे उग गया? ये तो हमने बचपन में जंगल में बकरियाँ चराते बखत देखा था, इसे कितना भी काटो, जड़ से उखाड़ो, यह पता नहीं कैसे दोबारा उग आता है? उसने भी सिंदूरी की बात पर ग़ौर किया तो यही पाया कि वह सही ही कह रही है, क्योंकि ये जंगली पौधा कई बार साफ़ करने के बाद फिर कुछ ही दिनों में घास की तरह बढ़कर तेज़ी से उगता हुआ नज़र आ जाता है।सिंदूरी गमले की गुड़ाई करते वक्त बार-बार जंगली घास की ही बातें किए जा रही थी। कहते-कहते वह बताने लगी कि..

“मेमसाहब घास की ही तरह कुछ मरद भी जंगली होते हैं, जैसे हमारा मरद, जितनी बार पुलीस उसको सुधार करने के वास्ते जेल भेजती है, ओतनी बार वो जेल से एक नया कुकरम सीख कर आ जाता है।”

 

“क्या हुआ सिंदूरी?”

लूना ने जब उससे कुरेदकर पूँछा तो वह दुःखी मन से अपनी दुःखभरी दास्तान साझा करने लगी..

 

“मेम साहब पिछली बार जब बिट्टनिया के पापा जेल गए तब पुलीस वाला साहब हमको बताया था कि जेल में इसकी सारी हेकड़ी निकाल दी जाएगी। इस दुष्ट की जेल जाने पर ही बदमाशी ढीली पड़ेगी, ये सुधर कर आएगा। लेकिन ऊ जहरीली शराब के धन्धे में गया औ जब लौट के आया तौ जहरीली गोली खाने लगा, दुसरी बार ऊ भाँग-गाँजा रखने के आरोप में गया औ जब लौटा तौ नशा का इंजेक्शन लेने लगा। अबकी बार तौ जब वो हमको पटक के मार रहा था, किसी के भी बचाने पर हमें छोड़ नहीं रहा था तो हमारे पड़ोसी पुलीस बुला लिए थे, ऊ मौक़े पर ही धर लिया गया मेमसाहब! जाते बखत अंगारा जैसी आँख से घूर-घूर देख रहा था, अब पुलीस के सामने बोल तो सकता नहीं था, ग़ुस्से में गया है मेमसाहब! इस बार तौ आके हमारी जान ही ले लेगा। देखिएगा चाहे आप!

  

  हम सही कहते हैं मेमसाहब! हमारा मरद यही घास की तरह है, घास को ही देखो चाहे जितना काटी-छाँटी जाय फिर हरा होके नया रंग लेके उग आती है, जंगली घास तौ नन्हा-नन्हा जंगली फूल भी खिला देती है, भले ही ऊ फूल दो दिन म मुरझा जाय। पर हमारा मरद! हाय दैया! हमारा मरद! 

हमारा मरद तौ रंग की जगह बदरंग हो जाता है, ओहमा तौ कबहुँ फूल खिलबे नाहीं किया, जब खिला तब काँटा ही खिला। अब का कहें मेमसाहब?”

 

  “अरे तुम उसे समझाती क्यों नहीं? दुनिया के नियम धर्म की बात मुझे बताती हो कभी उसे भी समझाया करो, हो सकता है कुछ समझ में आ जाय, आख़िर तुम उसकी पत्नी हो, हर बात न सही कुछ तो मानेगा, मैं कह रही हूँ, इस बार जब वो आए तो उसे समझाना और जब वो न समझे तो मेरे पास लाना, मैं उससे बात करूँगी, मेरी भी न सुनी तो साहब से बात करवाऊँगी, साहब उसे अच्छी तरह समझा देंगे, नहीं समझा तो साहब के पास उसका भी उपाय है, आख़िर तुम्हारे साहब इतने बड़े वकील जो हैं।”

 

“वो तो ठीक है मेमसाहब! पर ऊ.. ऊऽ तौ!”

हिचकिचाती हुई सिंदूरी अपने होंठों को दाँतों से काटते और पैर के अँगूठे से फ़र्श को खुरचते हुए बोली, “ समझानाऽ.. समझाने की बात तो मेमसाहब कहिए ही न, हमारी तो लड़ाई ही इसी बात की है, ऊ कहता है कि मैं उसे समझाती क्यों हूँ? जब भी कोई ऐसी बात होती है तभी कहता है कि मैं उसे नीचा दिखाने के लिए ही उसके सामने बोलती हूँ। ऊ बड़ा घमंडी है मेमसाहब! जैसे ही साहब की बात करूँगी वो मेरे ऊपर घोर चढ़ाई कर-कर लड़ेगा कि तुम हमारी बात बाहर जाकर कहती हो, उल्टा-सीधा बकेगा। कोठी वालों को गाली देगा। साहब को भी नहीं छोड़ेगा, जो पाएगा वही मुँह से निकाल देगा, ताही से तो हम अपने कोठी वालों का नाम नहीं लेते उसके सामने।”

 

“ओह!”

लूना को ऐसी स्थितियों का अनुभव नहीं था, वह सिंदूरी की बातें सुन अचम्भित थी। रात को ख़ाना खाते वक्त उसने पति से सिंदूरी की परेशानी के बारे में बात की थी पति ने आश्वासन दिया था कि अब जब भी मैं घर पर रहूँ और सिंदूरी आए तो तुम ये बात छेड़ना, मैं उससे बात करूँगा और उसे समझाऊँगा कि उसे आगे क्या करना है? लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? कल लूना को अपनी सारी कहानी बताने के बाद सिंदूरी जब अपने घर पहुँची तो वहाँ जंगली घास का पौधा पहले से ज़्यादा बड़ा होकर, ज़हरीले काँटों के साथ उगा हुआ था पिछली जितनी भी डालें काटने के बारे में उसने अब तक विचार किया था उन सभी डालों में ज़हरीले काँटे जड़ तक झूल रहे थे, सिंदूरी ने सुना था कि कोई जंगली फूल होता है जो कीड़े-मकोड़ों को अपने गिरफ़्त में लेके खून चूस लेता है, परंतु आज उसके घर में उगा जंगली घास का पौधा उसका खून चूसने के लिए तैयार था। और वही हुआ जो सिंदूरी को डर था, घर पहुँचने से पहले ही उसका पति जेल से छूटकर नशे में धुत्त होकर, घर आ चुका था और सिंदूरी से प्रतिशोध लेने को तैयार बैठा था।

   

 लूना के सामने पड़ी, जंगली पौधे से चुसी   हुई सिंदूरी की लाश रात की हर कहानी बयान कर रही थी, उसका चेहरा कई जगह से फटा हुआ था, गले पर काला स्याह निशान, आँखें सूखे जमें खून से ढकीं और फूली हुईं, बुरी तरह उलझे बालों का झुण्ड, हाथ-पैर पर चोटों के अनगिनत घाव पति की दरिन्दगी की कहानी कह रहे थे। दरिन्दगी ऐसी कि एक जीते-जागते इन्सान को मौत तक ले गई। लाश से लिपटे दोनों बच्चे रोने के बाद सूखे पड़े, अपने कपोलों से मक्खियाँ उड़ा रहे थे, अथाह दर्द की कहानी कहतीं मासूम आँखें थककर बंद हुई जा रही थीं। 

 

जिज्ञासा सिंह

लखनऊ

 

अपना आसमान.. लघुकथा

 ऑर्डर-ऑर्डर-ऑर्डर!

    जज ने आनंदी के पक्ष में फ़ैसला सुनाया, आनंदी ने गौरव को कनखियों से देखा। गौरव उनसे अलग होकर दुखी नहीं था, 

होता भी क्यों? उसके जीवन में बहार जैसी रागिनी, पहले से जो थी। वकील को धन्यवाद कह, आनंदी बेटी के साथ चलकर गाड़ी में बैठ गई, सालों की ज़िल्लत आँखों से बहती कि, बेटी ने माँ की आँखों में निहारा, बोली,


“ माँ! आपकी आँखों में हमारा आसमान हँसता हुआ दिख रहा है।"

जिज्ञासा सिंह