लब्धप्रतिष्ठ पत्रिका “गुलमोहर” के वार्षिक विशेषाँक में प्रकाशित मेरी कहानी “आवभगत”
कहानी- आवभगत
“जब कोई मंत्र न लगे, झाड़फूँक फेल होय जाय दवा-दरमद नक़ली निकल जाय, फिर भी अपना करमजाल खोपड़ी पर लादे धेरिया धरती पर गिर ही जाय तो क्या करें? भाग्य कोसने और हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं बचता!!”
जिस जमाने में बेटी पैदा होने के पहले ही मारने के लाखों उपाय किए जाते हों,
उसी जमाने में, दैया रे दैया! किसी के सात पुश्त कन्यारत्न हो ही न! आँगन में बजनू पायल पहन कोई ननमुनिया हिरणी दौड़ी न हो, काजल लगाए बदली अम्बर से मुँडेर पर उतरी ही न हो कि उधार माँगकर ननमुनिया की झील जैसी अँखियाँ में तनिक ढेपार देवें, याकि बुढ़वा बरगद की चार पुश्त पुरानी बँवर हाथ जोड़ि के माँग लावें और दुआरे की पूजैतिन बूढ़े बाबा के बाबा के बाबा की लगाई, बूढ़ी आजी के ढरकौना की सेई दूनों बाँह फ़ैलाए खड़ी, ड्योढ़ी की रक्षा करती निमिया पर सरावन के हिंडोलना डारि देवें ताहि पर ननमुनिया बैठ, घर बखरी निहार-निहार, निमिया की सखी पकड़िया म नीड़ बनाए बरसों-बरस की बाशिंदी कारी कोयलिया के तान में तान मिला-मिला मोहल्ला की सगरी ननमुनियों के संग गीत गावें औ झूलें…
“सोवो की बाबा जागो बाबा बगिया म द्वार चार होय रे!
न मैं सोऊँ न मैं जागूँ, बेटी मन म दहेजवा की सोच रे!”
आज उसी….
ड्योढ़ी के चबूतरे पर चार पलंग, आठ खाटें और चार तखत पड़े हुए हैं, उसी के बग़ल में बड़ी मम्मी के ब्याह में मिली पेवर शीशम की बड़की मशहरी पड़ी है, बड़की मशहरी पे चाची के मायके में मिला पेवर जूट का गद्दा पड़ा है, गद्दा के ऊपर छोटी चाची के भतीजे के मुंडन में मिली रेशम की जयपुरी चादर औ तकिया का सेट बिछा है, तकिया के बग़ल में दुई मसनदें पड़ी हैं, जिनमें मलमल जैसी मुलायम सेमल की रुई भरी है, ऐसा लग रहा, जैसे उमरावजान पिक्चर की रेखा बस नाचने ही आने वाली हैं और दोनों मसनदों के बीच फ़ारूख शेख़ बैठे उन्हें रूमानियत भरी निगाहों से भर-भर निहारेंगे, पर नहीं, यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है, क्योंकि ये साझा ड्योढ़ी है मेरे परबाबा और उनके छोटे भाई की और उन मसनदों के बीच सजे बैठे हैं, हमारे बाबा के कक्कू और छोटी काकी के बड़के दमाद, सभी के आकर्षण और स्नेह के केन्द्र, गुजरात में रिज़र्व बैंक के बड़का अधिकारी, पूरे ख़ानदान के बड़के फूफा!
अब उनका आकर्षण हो भी क्यों न??
ख़ानदान में चार पीढ़ी बाद पैदा हुईं बिटिया, बड़की फूफू के पति और पचास साल से सरपंच और परधान बड़े-छोटे दोनों बाबा के जान से प्यारे सोनैया जैसे दमाद जो हैं, हैं तो वे पिता जी की पीढ़ी के फूफा लेकिन वे हर पीढ़ी के भी बड़के फूफा हैं। सोनैया जैसे दमाद तो वे बाबा औ दादी के हैं ही. वे पुरुष जाति में भी लाखों, करोड़ों में एक हैं।
“अहहा! जैसे रुई के फाहा! छू लो तो मैले हो जाएँ, जैसे गुलाब के फूल! घड़ी भर बाद कुम्हला जाएँ।”
देखने में तो सवा छः फ़ीट लम्बे! जैसे लम्बाई वैसे बिलकुल सधी मोटाई.. ना एक सूत इधर, ना एक सूत उधर.. ऊपर से खोपड़ी में काला घुंघराला बाल..खूब घना.. लट माथे पे गिर-गिर जाय औ होंठ..दैया रे दैया.. बिलकुल तोता की टोंट जैसे सुंदर औ सुर्ख़ लाल.. आँखें तो जैसे नैन, बिन काजल के कजरारे.. एक बार देख ले अगला औ समोहित न हो जाय..तो जिसमें कुत्ता खाता है, उसी में खाना हमको भी खिलाना।
ये तो हुई खानदान में सबके बड़के फूफा के सुंदर गढ़न और डील-डौल की बात अब वही खानदान में फूफा के जबरा फैन की टोली में, घर की बिटियों से लेके बड़ी दादी, छोटी दादी, दोनों ताई, मम्मी, बड़ी मम्मी, तीनों चाची, पूरे मोहल्ला की उम्रदराज, जवान, नयी- नवेली, बूढ़ी-ठेढ़ी, हर मेहरारू ऐसी न थी जो फूफा की दीवानी ना हो। दीवानेपन के यही इतने ही कारण नहीं थे.. उनपर मर-मिटने का सबसे बड़ा कारण था फूफा का ज्योतिष का ज्ञानी होना..।
पंडित-पुरोहित वाला ज्योतिष नहीं, काफ़ी पढ़ाई करके वे ज्योतिष सीखे थे, मम्मी कहती थीं कि काशी के किसी प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य से ज्योतिष का ज्ञान लिए थे फूफा। वैसे तो पढ़ाई वे बैंकिंग का किए थे पर ज्योतिष पर उनका हाथ और दिमाग़ दोनों का ज़ोर था.. बड़ी मम्मी को तीन बेटा बताए थे और उनके तीन ही बेटा हुए.. फिर उनके कोई औलाद ही नहीं हुई.. ताई जी की बहन मौसी आई थीं तो फूफा यहाँ उनको मिल गए थे, अपनी आँखों देखी बात है ये.. मौसी ने जैसे ही हाथ दिखाया और पूँछा कि मौसा बैंकाक से कब आएँगे, फूफा ने कहा आँख बंद करो वे हाजिर हैं, सच्ची कहूँ! बिना चिट्ठी-चौपाती के उसी रात मौसा अपने घर डढ़ियाकला आ गए थे वो भी बैंकाक से, दूसरे दिन बड़े तड़के नाऊ हमारे घर आ गया था औ झट्ट मौसी नई साड़ी पहन महावर लगा, सबसे विदा लेके ख़ुशी-ख़ुशी चली गई थीं एक बात और बड़के ताऊ कचहरी गए थे इलाहाबाद पेशी पर, तीन दिन का कहके पाँच दिन बाद भी ना लौटे थे, दादी ने फूफा के सामने जैसे ही ये बात कही, फूफा ने कहा कुशल से हैं मुक़दमा की तारीख़ हो गई है, फ़ैसला साल भर बाद होगा और वही हुआ एक साल बाद घरुही वाले खेत का लफड़ा बड़के ताऊ निपटा पाए थे। अरे सबसे बढ़िया बात सुनो! छोटे ताऊ वाली चितरा बुआ के बच्चा होने वाला था दुइ बिटियों पर.. और उनकी कौनो खबर नहीं आ रही थी औ बड़के फूफा आए हुए थे तो ताई जी, छोटी आजी से कहने लगीं कि न हो काकी! फूफा को तो संसार की सबहि जानकारी है, उनसे एक बार पूँछो कि छोटी बेबी जी के कोई बच्चा हुआ कि नहीं, छूटते ही फूफा बोल पड़े थे कि कन्या रत्न आ चुका है, और आजी का मुँह उतर गया था एक तौ बिटिया ऊपर से तीसरी, तीसरे फूफा रत्न बोल दिहे थे। आजी तौ फूफा के ज्योतिष पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दी थीं पर फूफा के आदर-सम्मान की वजह से चुप रहीं।
छोटी बुआ की शादी ढूँढते-ढूँढते जब मँझले बाबा थक गए तो फूफा ही बताए थे कि चाहे जो जुगत कर लो इस लड़की की शादी २३ की उमर से पहले हो ही नहीं सकती.. और वही हुआ.. जब तक ब्याह ना हुआ था.. छोटी बुआ तो फूफा को देखते ही मचल पड़ती थीं.. तब दादी फूफा को चिढ़ाती थीं हँस के.. काहे जीजा एतना लेट बियाह बताए हो तो हम तो आप ही के साथ बीबी जी को भी बाँध देंगे फिर बड़की बीबी आपको घर में घुसने भी ना देंगी..।
अब कहनी को क्या कहें? दादी की चिढ़ावन वाली कहन को फूफा और बुआ ने दिल ही से लगा लिया.. छोटी बुआ औ फूफा चुप-चुप प्रेम में मगन होने लगे। नहले पे दहला तब हुआ जब बड़की फूफू गरभ से हुईं, बड़े अरमान से फूफा ने बड़े पापा को चिट्ठी भेजी कि भाई साहब हम तौ गुजरात हैं, आप को तो पता ही है, कि अम्मा दमे की मरीज़ हैं, जिज्जी ससुराल हैं, घर में काम करने वाला कोई नहीं है, घर में बड़ा होने के नाते हम ही को सब सोचना है, आपकी बहन जी की अब बड़ी गरुई अवस्था है, बड़ी परेशानी है, हो सके तो अपनी बहन बिट्टन को भेज दीजिए।
डाकिया देखते ही छोटी बुआ साइकिल पर ही टूट पड़ी थीं और डाकिया के थैले में अपना हाथ ऐसा घुसेड़ीं कि सब चिट्ठी-पत्तरी उल्ट-पल्ट गई थी एक दो चिट्ठी तो मुँह के बल ऐसी भेहरा के ज़मीन पर गिरीं कि धरती माता ही पढ़ने लगीं, अपने झोले की ख़स्ता हालत देख डाकिया मदर इंडिया के सुक्ख़ीलाल की तरह चिल्लाने-पोंगने लगा था आख़िर छोटे बाबा चिल्लाए कि मुनिया ठीक तरह से चिट्ठी लेओ। ये का तरीक़ा है, बुआ झेंपते हुए थोड़ा पीछे हटके डाकिया से पूँछने लगी थीं कि कोई चिट्ठी हो तो दो। उनकी आतुरता देख डाकिए ने एक नीला अंतर्देशी बुआ के हाथ में पकड़ाया नहीं कि बुआ बिना पीछे पलटे ही घर के पिछवाड़े की तरफ़ ऐसा दौड़ीं कि मुँह के बल गिरीं धम्म से। उनका ये अलभेसरापन देख छोटे बाबा किटकिटाते हुए दौड़ पड़े थे ये कहते हुए कि काहे रे मुनिया जादइ सयानी होय रही है का!! लेकिन डाकिया हँसते हुए बीच में ही सारा मामला लपक लिया, अरे रहय दें लड़किनी चिट्ठी चौपाती देख ऐसेने भेहरा जाती हैं।
डाकिया के कहने को न था और छोटी बुआ के भेहराने को कौन कहे? वो तो चिट्ठी पढ़ते ही बौरा गई थीं पिछवाड़े बैलगाड़ी के पहिया के पीछे खड़ी होके सत्रह बार बड़के फूफा की चिट्ठी पढ़ीं और सत्रहवीं लाइन को सत्रह बार चुम्मी दीं जिसमें सत्रह अक्षरों में लिखा था कि “हो सके तो अपनी बिट्टन को भेज दीजिए।” अब क्या था? बुआ पिछवाड़े लगे गूलर के पेड़ को लिपट के ऐसा घूमी कि लट्टू की घिर्री भी खिसिया जाय, ख़ैर चिट्ठी लेके दौड़ती हुई खिड़की के दरवाज़े से एक दालान से हरिना छलाँग लगाती हुई दूसरे दालान में पहुँच गईं जहाँ बड़ी आजी यानि उनकी अम्मा बैठी सिकहुली बीन रही थीं हवा में हाथ उछालती हुई ज़ोर से चिल्लाईं,
“देखौ! भैया देखौ! बड़के जीजा की चिट्ठी आई है, कहाँ-कहाँ? कहते हुए आजी ने हाथ लपकाया ही था कि चिट्ठी बुआ के हाथ से छूट के कास-मूँज भिगाने वाले पानी में तैर गई, हाँ-हाँ कहते हुए बुआ ने चिट्ठी को चट्ट से उठा लिया और अपनी सूती ओढ़नी से चिपका-चिपका धीरे-धीरे बड़े ही स्नेहिल भाव से पोंछा और दोनों परत को आहिस्ता से खोल उन सत्रह अक्षरों को फिर से झाँक लिया कि वे सही-सलामत हैं या पानी लगने से घुलकर हवा में उड़ गए, अभी वे सत्रह अक्षरों में खोने ही वाली थीं कि अम्मा ने झकझोरा,
“ सुना न बिटिया! मन्ननिया ने का लिखा है?”
“जिज़्जी की थोड़ी न है, अम्मा ई तो जीजा की है।”
ओढ़नी होंठों से दबाते हुए मचलकर वे बोली ही थीं फिर तो सारे घर में शोर ही मच गया कि बड़की बुआ की तबियत ख़राब है, सब के सब हाय-हाय करने लगे। आजी तो सबसे पहले भागीं शिवबरन पंडित के घर ग्रह-नक्षत्र पूँछने, बड़की अम्मा लौंग गुड़ लेके दौड़ गईं संझा मैया को अरघ देने। बचीं मम्मी! मम्मी ने मोर्चा सँभाला पूरे घर को ये समझाने का.. कि गरभ होने पर हल्की-फुल्की तबियत ख़राब हो सकती है, ये कोई घबराने की बात नहीं है।
हाँ बड़की बुआ के घर में बच्चा होने पर, घर में काम बढ़ जाएगा तो उस स्थिति को संभालने के लिए हम में से कोई चला जाएगा। मैं भी जा सकती हूँ, बुआ की सेवा करने में मुझे कोई दिक़्क़त नहीं है। मम्मी के मुँह से ये निकल ही रहा था कि वे जा सकती हैं, अभी उनकी आधी बात हलक में ही चिपकी थी कि इतने में लपक के छोटी बुआ सबके बीच में खड़ी हो गोल-गोल आँख घुमाते तपाक से चू पड़ीं,
“लेकिन जीजा तौ हमको बुलाए हैं। फिर आप तो जीजी के ननद के शादी में गई ही थीं और तौ और जीजी के सास आपको केतना बढ़िया जयपुरी चुनरी दिए थीं जो आजौ तक आप पहनती हैं, का कहेंगी वो? केतनी बार आपही को देंगी? अब क्या बार-बार आपही का जाना सही रहेगा, न! हो अबकी बार हम चले जायँ जीजा की बातौ रह जाएगी हम अपने जीजी का लल्ला भी खिला आएँगे, लल्ला भी खुश होय जाएगा कि हमारी मौसी आई हैं.. हि-ही-हि-ही!”
अब छोटी बुआ उमर में भले छोटी थीं लेकिन ओहदे में मम्मी की बुआ सास थीं। ख़ानदान भर की हर मेहरारू चिट्ठीदेसा के आने की बात सुनकर चिट्ठी वाचक के चारो तरफ़ घेरा बना कर खड़े होने की आदी थी ऐसे में सबके सामने छोटी बुआ की बात काटने का मतलब था कि अपने जाने की लालसा का प्रदर्शन कर देना। मम्मी चुप्प रह गईं।
अपने जाने का पासा खेलकर छोटी बुआ खींस निपोरकर जैसे ही हँसीं कि उनकी हाँ में हाँ मिलाती आजी के साथ-साथ खड़ीं घर की सब मेहरारू भी कुछ ऐसे हिहियाने लगी जैसे नानी अभी ही लल्ला के बुकवा लगाय रही होंय और पेट पर मालिश होते ही नौनिहाल खिलखिला पड़ा हो वो भी जाड़े की धूप में, जब अग़ल-बग़ल बैठी टोला मोहल्ला, घर बार की नानी-मामी-मौसी लल्ला को ही टुकुर-टुकुर निहार रही होंय।
सबकी हँसी से बुआ को संबल मिल चुका था वे अपनी पहली चाल में कामयाब हो चुकी थीं। अब बाबा के सामने चिट्ठी और बड़की बुआ की परेशानी का मायाजाल एक साथ बुनना था। वो तरकीब और जुगत की तलाश में थीं। जुगत की तो कहने ही क्या? वे हमेशा से जुगती स्वभाव की थीं, जब भी बड़की बुआ के लिए कोई स्पेशल सामान आता था तो वे कोई न कोई बहाना कर ऐसा जुगाड़ लगाती थीं कि वो सामान उनके पाले में आ जाय! अपनी सुंदरता का गुमान करते हुए, कभी कहतीं साँवले रंग पर ये नहीं जमता, लंबे लोगों पर ऊँची एड़ी नहीं फबती, मेकअप के समान पर तो जैसे उन्हीं का ही अधिकार है, चूँकि बड़की बुआ गम्भीर-शांत-सौम्य और छोटी बुआ से ज़्यादा पढ़ी-लिखी थीं, गीता-रामायण, धार्मिक शास्त्रों में उनकी रुचि थी वहीं ईश्वर प्रदत्त सौंदर्य की धनी छोटी बुआ फ़ैशन की वस्तुओं पर भी अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं। अगर बड़की बुआ कुछ शृंगार करना चाहें भी तो वे बड़ी चालाकी से बात को हमेशा पढ़ाई-लिखाई की तरफ़ मोड़ देती थीं।
छोटे बाबा की तीन सुपुत्रियों में सबसे छोटी, छोटी बुआ महामुश्किल से चौथी पास हो पाई थीं, पर चालबाज़ी और अदाबाज़ी में पी एच डी थीं, टोला- मोहल्ला ननियाउर-अजियाउर हर जगह कोई नया-नोसर नौजवान, जो खुली आँख से भी न दिख सके वह छोटी बुआ की झपकती आँख से भी नहीं छूट सकता था, मम्मी और ताई जी तो हर तीज-त्योहार, मुण्डन-विवाह में, घूँघट से एक दूसरे को इशारा ही करती रह जाती थीं बुआ जी के दिलफेंकी पर!! और छोटी बुआ जी किसी न किसी को ऐसा पटियाने में जुटी होती थीं जैसे सालों से उनकी जान-पहचान हो।
ऐसे ही एक वाक़या बताते-बताते तो घर की सारी मेहरारूवे लोट-पोट हो जाती थीं हुआ ये था कि गाँव में बाभनन टोला में शादी थी। छोटी बुआ, मँझली बुआ दोनों सज के गईं द्वारचार देखने। बुधई पंडित के घर से बड़े बाबा का बड़ा घरौटन संबंध था सो आजी के साथ-साथ सब दिनारी दुलहिनें भी स्पेशल बुलावे पर गईं थीं, ख़ूब गमक के द्वारचार की तैयारी हो रही थी पंडित के एक ही बिटिया थी, सो उन्होंने शादी बड़ी धूम-धाम से करी थी बारात तो पास ही के गाँव से आई थी लेकिन ऐसी बारात बाभनन में पहली बार आई थी । ढेर गोला-तमाशा आया था, एक अनार जले औ पूरी जँवार जगमग करे, राकेट तो बिलकुल आकाश छुए, जाने कितना तो नाच-बाजा लाए थे सब, देख-देख आदमी का मन भर गया! लेज़िम बाजा दो जोड़ी, लिल्ली घोड़ी का नाच, सफेड़ा नाच तीन जोड़ी औ नौटंकी तो ऐसी ज़ोरदार लाए थे कि पूँछो न! ऐसी नौटंकी गाँव में पहली बार आई थी! फूलन देवी औ लाखन डाकू का खेल हुआ था तीन दिन की बारात में जो मज़ा आया था सबको कि बाभनन की मूँछ ऊँची हो गई थी। अब उसी द्वारचार में अपनी छोटी बुआ, आगे खड़े होने के लिए घुसी जाएँ, जब आगे नहीं घुस पाईं तो आजी बड़ी ज़ोर डपटीं, कि,
“काहे रे का दुलहवा के खोपड़िया पे बैठ जाबे।”
बुआ का गलुक्का फूलने ही वाला था कि मँझली बुआ ने उनका हाथ पकड़ा और खींचकर ये कहते हुए ऊपर कोठे की तरफ़ ले जाने लगीं कि, भाभी लोग सब ऊपर ही हैं, हम लोग भी वहीं से देखेंगे बुआ खुश हो गईं। अब ऊपर कोठे और कोठे के छज्जे पर कौन सी भीड़ कम थी? लेकिन द्वारचार तो उन्हें अब कोठे की छत के छज्जे से ही देखना था सो उन्हें ये भी ध्यान नहीं रहा कि भरे जेठ की पसीनादार जुलजुलुवा गर्मी में नई भाभी के अमेरिकी मेकअप बॉक्स से किया हुआ मेकअप, मेलहरू काजल से हेलमेल को कुछ ऐसे आतुर है जैसे द्वारचार की भीड़ में हाथ में हाथ गहे बुआ दोनों बहिनें।
नीचे घर के ड्योढ़ी पर पान का बीड़ा खिलावन की रस्म हो रही थी, बाजा और तमाशा वाले झूम-झूम गिरे जा रहे थे लफेड़ा पतुरिया घूँघट उठा-उठा सबको आकर्षित कर रही थी, लेज़िम बाजा का तबलची और पिपीहरीबाज सुर के सातवें घोड़े पे विराजमान हो चुके थे। तो वहीं ऊपर कच्चे ईंटों के पुराने छज्जे पर प्रदर्शनी नुमा खड़ी मेहररूओं में सबसे आगे खड़ीं दोनों बुआ कँटीली करोनी के साथ कच्चे चावल का बीड़ा झोंकते हुए पीछे मुड़-मुड़ भाभी से नए ज़माने का द्वारचार गीत गाने की बार-बार फ़रमाइश कर रही थीं, वहीं बाभनें गाने में जुटी थी,
“हम तोसे पूँछी बारे दूलहे जी, आधी रात काहे आए ए छिया।”
“टुटहा मियनवा फटहा ओहरवा, बजना ले आए भडभडिया ए छिया।
मैया न लाए बहिनियाँ न लाए, भरि मेहरारू लवतेव ए छिया।
अपनी मैया के ओहपर दियना जलौते, वहि उँजियारे औतेव ए छिया।”
“वे जैसे ही चुप हुईं कि ओहका गाओ ओहका गाओ की गुहार लग गई, इतने में बुढ़िया पंडिताइन ने खींस निपोरी और तान छेड़ दी..
“बराती एक्को मने के नाहीं.. केहु ढचक चलें, केहु मटक चलें, केहू गदहवा की चाल,
बराती एक्को मने के नाहीं”
केहू के आँख टेढ़, केहू के गोड़ टूट, केहू के कूबड़ मसान,
बराती एक्को मने के नाहीं”
इतने में दरवाज़े से बड़े ताऊ जी चिल्लाए,
“ग़लत बात!! ऐसा गाना नहीं होना चाहिए! ये हमारे नए रिश्तेदार हैं।”
“हाँ-हाँ सही कह रहे आप।” उन्हीं के साथ दसियों लोग बोल पड़े,
“अरे तनी बखरी वालिन से कहो कुछ नया-नोसर गावें..।”
पंडित जी का लड़का बोला ही था कि.. उसके साथ कई लोगों की फ़रमाइश, ताई जी और मम्मी के गीत की आ गई।अब मम्मी और ताई जी के ऊपर कोई नया गीत गाने का ज़बरदस्त प्रेशर आ गया आख़िर बड़े अरमान से बोलाई गई थीं वे लोग, गाना तो गाना ही था। सो तान छिड़ गई..
“स्वागत में गाली सुनाओ सखियाँ स्वागत में”
“हमरे समधी जी के टोपी नहीं है लाल ओढ़निया ओढ़ाव सखियाँ स्वागत में।”
“यहि दूल्हे राजा के चंदन नहीं है, सिंदुर ओ बिन्दी लगाओ सखियाँ स्वागत में।”
“एक और! एक और!”
“समधी बड़ा रंगबाज़, हमका निहारे।
दुलहा बड़ा सींटीबाज़, हमका निहारे।
हमने समधिया को बोतल मँगाई, पी के खड़ा दारूबाज़ हमका निहारे।”
घरातियों की फ़रमाइश पर ताई जी ने जैसे ही सुरीली तान छेड़ी कि दूल्हे के पीछे खड़े ताऊजी ने ऊपर छज्जे पर देखते हुए अपनी मूँछे तिलोरीं, इधर ताई जी हहा के मम्मी के कंधे से लग गईं और कान में बोलीं जानती तो हो न! ई गाली तुम्हारे भाई साहब को कितनी पसंद है, मम्मी भी पापा की तरफ़ देख के खिल्ल से हँस दीं और दूर खड़े पापा ने भी इशारे में सहमति दी कि अच्छा लग रहा तुम्हारा गाना।
वाह-वाह के बीच ५१ रुपये का नेग, गाली गीत के लिए समधी जी ने जेब से निकाला ही था कि ताऊ जी ने हाथ पकड़ लिया ये कहते हुए कि ये अच्छी बात नहीं। ये तो संस्कार है जी, और समधी झट से गले लग गए। मीठी और मधुर तान छिड़ी हुई थी बाराती और घराती झूम रहे थे कि अचानक आवाज़ आई..
“आरारारा धम्म!”
जहाँ बुआएँ अपनी सहेलियों के साथ लटकी नैनमटक्का कर रही थीं, चरमरा के उसी छज्जे का कोना गिरा और ६-७ लड़कियाँ धड़ाम से गिरीं और दरवाज़े पे हलचल मच गई ये तो कहो कोने पर लड़कियाँ ही लटकी थीं और गिरीं भी बग़ल में लगी पुआल की खरही के ऊपर। सो किसी को ज़्यादा चोट नहीं आई पर हुलिया तो बिगड़ ही गया, सबसे ज़्यादा तो हमारी हिरोइन बुआ को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। शादी में कोई विघ्न न हो! अतः थोड़ी अफ़रातफ़री के बाद तुरंत ही ताऊ जी ने रस्मों की आगे की कार्रवाही शुरू करवा दी पर बुआ और बुआ की सहेलियों को जो पुआल के बीच से खींच-खींच निकाला गया उससे ऐसी शर्मिंदगी आई कि वे लोग घर चली गईं तो दूसरे दिन फिर शिष्टाचार में ही दिखाई पड़ीं।
तभी से गाँव-घर की हर मेहरारूवे, रंग-रंगीली छोटी बुआ को देखते ही उस वाकए को याद कर हँस पड़ती थीं। ताई जी का तो नहीं कह सकते लेकिन आज मम्मी का छोटी बुआ को तनिक भी मज़ाक में लेने का मन नहीं था क्योंकि मम्मी पढ़ी-लिखी तो थी हीं उनकी तीसरी इन्द्रिय भी काफ़ी सक्रिय अवस्था में रहती थी यही कारण था कि बड़े बाबा, मम्मी से घर की घरेलू समस्याओं में सलाह लिया करते थे किसी को नई जगह जाना हो या किसी लड़की की पढ़ाई-लिखाई से लेकर शादी ब्याह तक मम्मी से ही मशविरा किया जाता था, मम्मी की पढ़ने और पढाने दोनों में रुचि थी आख़िरकार उस जमाने में मम्मी इंटर तक अंग्रेज़ी जो पढ़ी थीं, मम्मी के पास अपना गूगल था उस समय, अरे इंटरनेट वाला नहीं भई! पुस्तकों वाला था, कोई प्रश्न जैसे ही करो वे झट ग्रंथ खोल, बाल में खाल निकाल-निकाल, सटीक जवाब खोज लेती थीं, उसी क्रम में आज भी उन्होंने छोटी बुआ का बड़ी बुआ की सेवा में जाने की आतुरता को भाँप लिया था, उनका जिज्ञासु और ख़खेड़ी मन यह क़तई मानने को तैयार नहीं था कि छोटी बुआ जी का अपनी बहन की सेवा करने का इतना मन है।
मम्मी पहले तो घरेलू मकड़ी बन जंगली जाले के सूत-सूत को उधेड़ और बुन रही थीं पर जब वे जाले के सिरे पर नहीं पहुँचीं तो आख़िरकार उन्होंने ख़ुद को जंगली मकड़ी बनाकर, जाले का वो सिरा पकड़ ही लिया जिससे जाला बनाने की क़वायद हुई होगी और उन्होंने झट ताई जी को अपनी शंका बताई और कई हवाले याद दिलाए कि वैसे तो उचना में छोटी बुआ बड़ी बुआ जी के आने पर तो मुँह ही फुला लेती हैं, अब आख़िर इतना प्रेम कैसे उमड़ रहा उनके अंदर? हो न हो! दाल में ज़रूर कुछ काला है, दोनों देवरानी-जेठानी अब इस निष्कर्ष पर पहुँच गई थीं कि हो न हो छोटी बुआ का दिल बड़के फूफा के बटन में टँक गया है, और बड़के फूफा तो पहले से ही मेहररुओं से बटन टँकवाने के आदी हैं, ताईजी और मम्मी दोनों ने सौ-सौ जुगाड़ लगाए पर जंगली मकड़ी के जाले की बुनावट को जानने के अलावा उसका बनना नहीं रोक पाईं और मकड़ी जाले के मध्य में जाकर बटन का होल बन गई।
बड़ी बुआ की तकलीफ़ सुनकर छोटे बाबा का दिल ऐसा रोया कि छोटी बुआ को लेकर ख़ुद ही बड़की बुआ के घर चल दिए और उनके गाँव में चार दिन रहकर छोड़कर लौट आ गए थे।
एक ही महीने के अन्दर बड़की बुआ के बेटा हो गया था आजी ने ख़ूब भारी-भरकम बधावा की तैयारी करके फिर बड़के बाबा को भेजा और लौट के बड़के बाबा ने भरे-पूरे घर के सामने बड़की बुआ के पूरे घर-परिवार की तारीफ़ तो करी ही, छोटी बुआ की कर्मठता की भूरि-भूरि प्रशंसा की, बड़की बुआ तो सचमुच प्रशंसा वाली थीं पर छोटी बुआ के कामकाज की प्रशंसा पर तो आजी, ताई जी और मम्मी को दिखा-दिखा के उछली पड़ रही थीं। काहे से ये दोनों ही अक्सर छोटी बुआ की आदतों का ज़िक्र कर दिया करती थीं। बाबा की तारीफ़ से न तो छोटी बुआ में कोई सुधार होना था न आजी का बहुत दिन उछलना ही चलने वाला था। वहाँ तो समय एक नयी कहानी गढ़ रहा था। जब बाबा बड़की बुआ का बधावा लेकर गए थे तो उनके सास-ससुर से बुआ को साथ लिवा ले जाने को बोले थे तो उन लोगों के साथ-साथ फूफा ने कहा था कि हफ़्ते दस दिनों में मैं मन्नन तथा बिट्टन दोनों को लेकर आऊँगा। आपके यहाँ बच्चे और माँ की अच्छी सेवा हो जाएगी। आपका परिवार बहुत सेवाभाव वाला है न! बाबा ये बात बड़े गर्व से सबके सामने बताए थे, अब वो दिन आ गया था जब आजी बुआ के आने की तिथि उँगलियों के पोरों पर गिनने लगी थीं, और उस दिन शाम को दरवाज़े से लेकर बग़ीचे और छोटी बखरी से लेकर बड़ी बखरी तक पूरे घर की लिपाई-पुताई चल रही थी, बाबा ने लकड़ी वाला नक्काशीदार पालना, भाभी के कमरे से निकलवा के अंदर वाली ड्योढ़ी के बरामदे में डलवा दिया था और दादी ने ढोलक को दोबारा धूप दिखा के सारी डोरी कसकर, बड़ी चाची को नया सोहर गाने का निमंत्रण भी दे दिया था और अपना मौनी के नीचे गौर न्योतने बैठ गईं गौर ने भी बुआ के तुरत आगम को बता दिया था ख़ुशी के मारे आजी मंदिर की ड्योढ़ी पर हाथ जोड़े निहुरी ही थीं कि कक्कू वाले छोटे लल्ला ने हल्ला मचाया कि बुआ आ गईं! बुआ आ गईं! आजी जल्दी-जल्दी गेंडुआ में लौंग और गुड़ डाल, ढरकौना लिए दौड़ीं कि बड़े चाचा बोले कि,
“ई झुठ्ठा है काकी! अभी बुआ नहीं आईं।”
इतना सुनते ही काकी लल्ला पर ऐसी फ़िरंट हुईं कि लल्ला के तरफ़ से घर के आठ सदस्य ने पैर छूकर माफ़ी माँगी, आख़िर नाती के आने की ख़ुशी ने उनका नक़ली क्रोध शांत कर दिया था। ये सब नाटक हो ही रहा था कि बुआ की डोली दरवाज़े पे आके उतर गई, साथ ही पैदल चलती छोटी बुआ और बड़के फूफा भी आकर ड्योढ़ी पर ही पलंग पर बैठ गए। दरवाज़े से लेकर रसोईं तक हलचल मच गई, बाबा के आदेश और आजी के कहे अनुसार बड़के फूफा और बुआ का खूब स्वागत-सत्कार होने के साथ-साथ छत्तीस व्यंजनों का भोज कराया गया।
रात हो गई थी, फूफा को चौपाल में मशहरी और बुआ को मम्मी की मशहरी पर सोने का बिस्तर लग गया था चूँकि मम्मी और बुआ में बहुत पटती थी सो बुआ ख़ुद ही कहीं कि वे आज मम्मी के कमरे में सोएँगी। नवका लल्ला तो अभी तक, इस हाथ से उस हाथ इस गोदी से उस गोदी ही ट्रांसफ़र हो रहा था कि आजी नज़र उतारने के बहाने लल्ला को अपने अँचरा में छुपाए धीरे से मम्मी के कमरे में आ गईं और लल्ला को बुआ की गोदी में डालते हुए समझा गईं कि सवेरे जब टोला-पड़ोसी आएँ तो उनके सामने लल्ला को वही ले जाएँगी छुपा के, नहीं तो नज़र लग गई तो उतरने वाली नहीं, काहे से भरतिया की एक कही पर सौ बरस नज़र नहीं उतरती।
आजी के जाते ही बड़की बुआ ने मम्मी के कमरे की कुण्डी लगाई और मम्मी के गले लग फ़क़क-फ़क़ककर रो पड़ीं, मम्मी की जंगली मकड़ी वाली कहानी हक़ीक़त हो गई थी। बड़के फूफा बड़की बुआ को सेवा के लिए मायके छोड़ने नहीं आए थे, वे आए थे छोटी बुआ का हाथ माँगने!
अगले दिन सुबह सबकी आँख तब खुली जब घर में हलचल मची हुई थी सारी मेहरारूवें सिर पे पल्लू रखे ड्योढ़ी वाले बरामदे के अंदरूनी हिस्से में आश्चर्यचकित खड़ी ख़ुस्फ़ुसा रही थीं और दोनों आजियाँ खोपड़ी पर हाथ धरे मचिया पर आधी बैठी और आधी लटकी थीं बड़े बाबा छोटे बाबा को कौरियाये खड़े थे। काहे से कि छोटे बाबा सरसों तेल से तेलियाए पके बाँस के सोंटा से गुजरात के रिज़र्व बैंक के गवर्नर का पिछवाड़ा लाल कर दिए थे और गवर्नर साहब मुँह के बल बाबा के चरणों में पड़े थे साढ़े छः फीट का मुर्ग़ा कबूतर बन गया था और ज्योतिष के कुकड़ूकूँ की जगह गुटरगूँ कर रहा था।
सारा तहलका जब शांत हुआ तो आनन-फ़ानन में छोटी बुआ के लिए एक जाहिल-गँवार खोज दिया गया था और आगे के लिए एक ऐसी लक्ष्मणरेखा खींची गई कि ख़ानदान की कोई भी कन्या जीजा नाम की प्रजाति से आजीवन दूर रहेगी।
जिज्ञासा सिंह