इतनी सी बात.. लघुकथा

लब्धप्रतिष्ठ पत्रिका रचना उत्सव में प्रकाशित लघुकथा.. इतनी सी बात…



इतनी सी बात

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गाँव में बड़े मास्टर साहब के घर के पीछे झोपड़ियों में रहने वाली शीतला आज सुबह-सुबह मास्टर जी जी के ड्योढ़ी पर खड़ी थी। उसे देखते ही शहर से आई मास्टर जी की बेटी, पूछने लगी, 

”क्या है? काकी! क्या रात नींद नहीं आई? सुबह हीं आ गईं आप, कोई ख़ास काम है क्या?”


“नाहीं बिटिया, कुछ बात नाहीं न! बस ऊ तुम्हरे रसोई की लालटेन आज पूरी रात जली। हम अपनी छप्परिया म लेटे-लेटे बार-बार तुम्हरे जंगला म रोसनी टिमटिमात निहारें औ सोचें कि हाय दैया! लागत है, बड़ी मालकिन लालटेन बुझावे का भूल गईं। केतना तेल जलिगा होई, सोच-सोच हमें रात चैन ही नहीं पड़ रहा था कि कब सबेरा हो और हम बताईं जाके.. कि अब तो बत्ती बुझाओ, रात भर जली है, ताही से आईं हम बिटिया!


“बस इतनी सी बात पर आप यहाँ उठते ही चली आईं।” ख़ुश्बू ने हुँकारी भरते हुए काकी से कहा ही था, कि माँ ने टोंक दिया।”


“ये इतनी सी बात नहीं बेटा, हमारे घर में लाइट आ नहीं रही थी, हमने इसलिए लालटेन जलाई परंतु काकी के घर लाइट का कनेक्शन ही नहीं है, वो हमारे घर से एक शीशी मिट्टी का तेल माँग ले गई है, और उसे बचत कर के महीनों जलाएगी।”

 

जिज्ञासा सिंह



गुलाबी गलियाँ.. वेश्याओं के जीवन पर आधारित लघुकथाऐं

मेरी लघुकथा-आहट



“जी, आप लोग कौन?”

“हम सरकारी दफ़्तर से आए हैं। शिखा आपकी ही बेटी है??”

“जी हाँ। क्यों क्या हुआ? शिखा ने क्या कर दिया? उसे क्यों पूँछ रहे हैं?”

“आपको पता नहीं क्या?”

“ये आपके साथ पुलिस! पुलिस क्यों आई है? कोई बात है क्या?

“नहीं ऐसी कोई बात नहीं, उनके लिए ये सूचना पत्र लाए हैं, जिसके बदले हमें इस रसीद पर उनका हस्ताक्षर चाहिए।”

“सूचना पत्र! वो तो इस समय घर में ही नहीं है। उसका परीक्षाफल आने वाला है न, उसी सिलसिले में कहीं गई है।”

“हमें उसी परीक्षाफल के संदर्भ में ही कुछ सूचना देनी है।”

“सूचना?? क्या मतलब है आपका? मेरी बेटी का पढ़ने के अलावा किसी बात से कोई मतलब ही नहीं है, फिर कौन सा संदर्भ?”


…बदनाम बस्ती के बड़े गलियारे के छोटे से कमरे का पर्दा उठाए हुए दो लोग एक सिपाही के साथ खड़े हुए शिखा की माँ कुंजा से बातें कर रहे हैं,  कुंजा जिस्म बेचने के धंधे में बचपन से ही है, उसी कमाई से वह अपनी दो बेटियों को पढ़ा रही है, परंतु ग्राहकों और वसूली करने वालों के ख़ौफ़ का साया उसे इस धंधे में भी चैन नहीं लेने देता।

     इतने में सामने से शिखा आती हुई दिखती है, उसी समय पीछे से कई छोटी-बड़ी गाड़ियों का रेला आकर उसके दरवाज़े को घेर लेता है, अपने कमरे के बाहर, भीड़ देख कुंजा भयभीत हो, बेटी से कहती है.. कोई तुम्हें लेने आ रहा है, मुझे कुछ अजीब सी आहट हो रही है।

    गाड़ी से उतरकर शिखा के दो-तीन दोस्त आकर कुंजा को उठाकर, नाचते हुए चिल्लाने लगते हैं.. 

“आँटी शिखा ने टॉप किया है, आपकी बेटी जज बन गई है।”

 पुलिस के साथ खड़े दोनों व्यक्ति शिखा का अभिवादन करते हुए एक लिफ़ाफ़ा पकड़ाते हैं, शिखा लिफ़ाफ़ा खोलकर पढ़ती हुई गौरवान्वित हो, माँ के हाथों को चूम कर कहती है..  

“माँ अब तक आई आहटों को भुला के, जीवन में आती हुई अच्छी आहट का स्वागत करो।”


जिज्ञासा सिंह




 

पेंटिंग्स.. कहानी

“विभोम स्वर”
आलेखों, कहानियों, लघुकथाओं से सज्जित वैश्विक हिन्दी चिंतन की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित मेरी कहानी ‘पेंटिंग्स’! 





पेंटिंग्स

      “गिरने के भी बड़े-बड़े किस्से हैं, कोई चल के गिरता है, कोई खड़े-खड़े गिरता है, कोई लेटे-लेटे गिर जाता है, कोई सोच से ही गिर जाता है, कोई सोचता नहीं है, इसलिए गिरता है, कितने भी बड़े ओहदे वाला गिर जाता है, बिना ओहदे का तो पहले ही गिरा हुआ माना जाता है, किसी को देखते ही गिरने वाले तो बहुत देखे हैं, जिन्होंने कुछ देखा नहीं वो भी गिर जाते हैं, कुछ देखने के लिए भी गिर जाते हैं, कुछ दिखाने के लिए गिर जाते हैं, गिरते-गिरते इतना गिर जाते हैं, कि गिरने की सुर्ख़ियाँ बन जाते हैं।मनुष्य कितनी भी श्रेष्ठता पर पहुँच जाय, वो गिरने की आदतें नहीं छोड़ पाता, फिर उसका परिणाम चाहे जो हो, ऐसी आदतें कभी-कभी मौत तक को न्योता दे देती हैं, अतिशयोक्ति का स्थान तो हर जगह बरकरार है।”

 

   विनय बाबू को रिटायर हुए आठ बरस हो गए थे, बड़े ही उच्च पद से रिटायर हुए थे, रिटायरमेंट के समय जो पार्टी उन्होंने दी थी। उसमें हमारा जाना हुआ था, पार्टी में बहुत लोगों ने बताया कि विनय बाबू बहुत ही अच्छे पेंटर हैं, उनके पास विनय बाबू की पेंटिंग्स हैं, जो उनके घर की बैठक में शोभा पाती हैं, मैं हैरान थी कि वे एक प्रशासनिक अधिकारी के साथ-साथ बहुत अच्छे आर्टिस्ट भी हैं। पार्टी में ही मुझे ये भी पता चला कि उनकी पत्नी भी बहुत अच्छी मूर्तिकार थीं। पर अब वे इस दुनिया में नहीं थीं।


     विनय बाबू हमारी पुरानी कॉलोनी के हमारे परिचित थे, पर हमारा उनके घर कम ही आना-जाना था। रिटायरमेंट के पहले हमें बाज़ार में मिल गए थे, बहुत देर तक कॉलोनी के अपने पुराने मित्रों का हाल-चाल पूँछते रहे, उतनी देर में मैंने नोटिस किया कि वे पहले जैसे मस्तमौला नहीं रह गए थे। जाते-जाते उन्होंने हमें बताया कि वे रिटायर हो गए हैं, उसी उपलक्ष्य में अपने पार्क में ही एक रिटायरमेंट पार्टी रखी है, बहुत आग्रह किया था कि हम लोग उस पार्टी में ज़रूर आएँ और हम पति-पत्नी ने उनका विनम्रता से भरा आग्रह स्वीकार कर लिया था।


  पार्टी में विनय बाबू की पत्नी की मूर्तियों की चर्चा खूब हो रही थी, ख़ासतौर से महिलाओं को उनकी नग्न मूर्तियों में अधिक दिलचस्पी थी, कई तो यहाँ तक कहती थीं कि पहले तो वे कॉलेज में प्रोफ़ेसर थीं, रिटायरमेंट और बच्चों के बाहर सेटेल होने के बाद, पति के कहने पर ही वे इस प्रोफ़ेशन में आई थीं। दोनों का शौक़ भी काफ़ी मिलता जुलता था, पति को नग्न पेंटिंग और पत्नी को नग्न मूर्तियाँ बनाने का शौक़ था, जिसे कॉलोनी वालों ने उनके बाग़ीचे की साज-सज्जा और बैठक की दीवारों पे सजी पेंटिंग्स के रूप में साक्षात देखा था, ये भी सुनने में आता था कि विनय बाबू एक बार देखकर ही किसी की भी हुबहू पेंटिंग बनाने में माहिर थे, उनकी आँखों में जिसकी छवि अंकित हो जाती थी, उसकी पेंटिंग वे बनाकर ही दम लेते थे।


   उस दिन जब कुनिका का फ़ोन आया तो मैं उसकी सारी बातें सुनकर अवाक रह गई थी। उसने एक झटके में बताया था कि,

 

“विनय बाबू का मर्डर हो गया, ज़रा अपना टीवी खोलना, वही समाचार चल रहा है।”


   टीवी खोलते ही जो मैंने जो दृश्य देखा उससे तो मेरे हाथ-पाँव फूल गए थे, विनय बाबू की मिट्टी में दबी लाश पुलिस उन्हीं के घर में पेड़ के नीचे की मिट्टी से निकाल रही थी, गोरे-चिट्टे, लंबे-चौड़े, विनय बाबू का ऊपर का धड़ मिट्टी में घुसा हुआ दिख रहा था, चारों तरफ़ से पुलिस की टीम घेरे हुए थी, वहीं उसी आँगन के एक कोने में लगे अमरूद के पेड़ की जड़ में ही उगी एक मोटी डाल पर अपना पैर टिकाए खड़ी ऐंकर आँखों देखा हर दृश्य समझाते हुए चिल्ला रही थी,


  “शहर की पॉश कॉलोनी में रहने वाले अवकाश प्राप्त अधिकारी की लाश, उन्हीं के आँगन में मिट्टी में दबी हुई पाई गई है, कहते हैं दो दिनों से अधिकारी किसी को दिखाई नहीं पड़े, कल कामवाली आकर चली गई, दूधवाले ने घंटी बजाई और दरवाज़ा नहीं खुला तो वह भी चला गया, आज जब उनका दूधवाला और कामवाली एक ही साथ गेट पर पहुँचे और कई बार घंटी बजाने के बाद भी गेट नहीं खुला तथा कई दिन का पेपर लॉन में पड़ा हुआ दिखा, तब उन्हें शक हुआ, पड़ोसियों से पूँछने पर पता चला कि परसों ख़ाना बनाने वाली लड़की किसी के साथ आते हुए दिखी थी, उसके बाद से विनय बाबू को किसी ने नहीं देखा, वे यहाँ अकेले रहते थे उनकी पत्नी का देहांत दो साल पहले हो चुका है, तीन बच्चे हैं, दो विदेश में और एक हैदराबाद में।”


   “पड़ोसियों ने ही पुलिस को सूचना दी, पुलिस के आने के पश्चात घर का दरवाज़ा तोड़ा गया, घर में घुसते ही, बैठक में पेंचकस और छोटे-बड़े कई चाकूनुमा, पेंटिंग के औज़ार बिखरे मिले हैं, जिससे पुलिस अंदाज़ा लगा रही है कि मारने वाले किसी और मक़सद से आए थे और वो मक़सद पूरा न होने पर, घर ही के मामूली हथियारों से उनकी हत्या कर दी, घर के उलझे हुए सामनों को देखकर ऐसा लग रहा जैसे विनय बाबू ने अपने को बचाने के लिए काफ़ी संघर्ष किया होगा, दीवारों पर कई जगह खून के निशान हैं, दो जगह तो पंजे के साथ आधी-अधूरी उँगलियों के निशान हैं, महसूस होता है कि विनय बाबू दीवार के सहारे बचने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि उनके बैठक की कई पेंटिंग्स गिरी हुई मिली हैं, पेंटिंग्स को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे वो किसी ऐसे चित्रकार की हैं, जो नग्न पेंटिंग बनाने का शौक रखता था, काफ़ी अश्लील चित्रों को उकेरा गया है, कुछ लोग कह रहे हैं कि विनय बाबू ख़ुद ही बड़े अच्छे पेंटर थे, ये उनकी हस्तरचित पेंटिंग्स हैं।”


   मैं सारा समाचार सुनकर सन्न थी, चूँकि वो हमारी कॉलोनी के पुराने निवासी थे। कॉलोनी में जब हमारा परिवार नया-नया आया था, तब वे हमें अक्सर टहलते हुए दिख जाया करते थे, आते-जाते हम लोगों का आपस में थोड़ा-बहुत परिचय भी हो गया था, मैंने अभी टीवी बंद नहीं किया था बस विज्ञापन ने मेरा ध्यान भटका दिया था, उतनी देर में मैं विनय बाबू के स्वभाव का मूल्यांकन करने लगी, कि किस तरह जब मैं अपने बच्चों को पार्क में घुमाने जाती थी तो विनय बाबू भी किसी न किसी बहाने हमारी सहेलियों के झुंड के पास खड़े होकर बात करने लगते थे एक बार तो उन्होंने मुझे अपने घर भी बुलाया था, मेरी ५ माह की बेटी का अच्छा सा नाम सुझाने के लिए, पर मेरी दोस्तों ने आँख के इशारे से उनके घर जाने को मना कर दिया था, मना करते वक्त उनके चेहरे पर आश्चर्य के साथ-साथ हास्यमिश्रित भाव भी थे।


    उन्हीं दिनों एक दिन मेरी पड़ोसन ने भी मुझे विनय बाबू से बात करते हुए देखा तो कुछ देर बाद मेरे घर आ गई थीं और मुझसे हँसते हुए कहा था, कि इनसे थोड़ा दूरी बना के रखना। तुम नई हो न! इन्हें अभी जानती नहीं हो।


   विज्ञापन के पश्चात टीवी पर एंकर ने ज़ोर-ज़ोर चिल्लाने के बजाय आराम से बोलना प्रारंभ कर दिया था,


“विनय बाबू से जुड़ा हर समाचार हम समय-समय पर आपको देते रहेंगे फ़िलहाल अब शहर की दूसरी खबरों की ओर चलते हैं।”


    चूँकि विनय बाबू की हत्या का मामला  हमारे शहर का समाचार था तो वह लोकल चैनल्स पर ही आ रहा था, राष्ट्रीय स्तर पर बस एक दो पंक्ति का ही प्रसारण हुआ था। अतः मैं अगले समाचार तक अपने घर के काम निपटाने लगी, पर मेरा मन अब काम में नहीं लग रहा था? शाम हो गई थी, अचानक घंटी घनघना उठी। मैंने गेट खोला सामने नीता खड़ी थी मेरे घर दस साल से काम करने वाली पुरानी कामवाली। उसने घर में घुसते ही धमाका कर दिया, चिल्लाते हुए बोली,


   “नेम साहब! कुछ सुना आपने, वो १७ नंबर वाले बाबू जी को कोई मार डाला, मल्डर होइगा उनका, कोई घर ही मा मारि के गाड़ दीन्हा रात को। टीबी में सब आय रहा, खोलौ तनिक, देखौ तौ टीबी मा उनकी रासलीला। आख़िर छिछोरऊ चले गये, हमहूँ करे रहयँ उनके घर तीन महीना काम। नेमसाहब ज़िंदा रहीं तब, वे कालिज चली जायँ और ई लिटायर रहयँ। हम पोंछा करी औ ऊ पीछे-पीछे कमरा-कमरा चलयँ

ऐसा लगय कि कब पकर लेहयँ। जब वे अकेल रहयँ नेमसाहब! तौ सही कहित हम, बहुत डर लागय। उनके घर मा हमेशा नौकर रहत रहय। नौकर का बियाह रहय तौ हमसे चिरौरी करीं नेमसाहब कि एक महीना काम कर दे। पैसा के लालच मा हम काम तौ पकर लिया लिकिन ई साहब परेसान कर दीन्ह रहयँ। नेमसाहब कमौ काम का जादा पैसा देती रहयँ, देय-लेय मा नेमसाहब बड़ी खरी रहयँ, जो अच्छाई है सो तौ कहय का ही परी, साहब कय बड़ी छिछोरपन की आदत रहय औ नेमसाहब ई बात जानय न। कौन कहे मियाँ-बीवी के बीच की बात? कहव वे साहब की आदत जानती होएँ और कहती न होयँ। कहौ न कहौ भाभी जी कौनो ऐसी ही बात मा मरे हैं साहब। काहे से टीबी मा कहि रहे कि ख़ाना बनावे वाली सबसे बाद मा आई रहय। ऊके बाद म साहब का कोई बाहर नाही देखा है, देख लेव आप! यही कौनो लड़क़िनी वाला मसला ही होए।”

 

    मैं बराबर टीवी देखती रही और विनय बाबू की हत्या को एक-एक मिनट समझती रही, आख़िरकार नीता की बात सत्य साबित हुई, हफ़्ते भर में पुलिस ने एक आईएस अधिकारी की हत्या का पर्दाफ़ाश कर दिया था ऐंकर उस हफ़्ते के आख़िरी दिन फिर चिल्ला रही थी,


“आख़िरकार अवकाशप्राप्त ज़िलाधिकारी की हत्या का राज़ खुल ही गया, जो तथ्य निकलकर सामने आए हैं उसके अनुसार पुलिस का कहना है कि पत्नी की मृत्यु के उपरांत विनय बाबू अपना जीवन-यापन नौकरों और कामवालियों के सहारे चला रहे थे दो साल पहले उनकी पुरानी कामवाली अपने गाँव रहने चली गई थी, तब से उन्होंने कई नई उम्र की लड़कियों को काम पर रखा। एक रखते जब वो छोड़ जाती तो वे दूसरी रख लेते क़रीब तीन महीने पहले उन्होंने जो कामवाली रखी उसकी उम्र महज़ अट्ठारह-बीस साल होगी, कमरे की पैमाईश करते वक्त पुलिस को अचानक दीवार पर खून सने उँगलियों के जगह-जगह अलग तरह के निशान और फ़र्श पर टूटी चूड़ी का नन्हा सा टुकड़ा दिखा हालाँकि कमरे से हर दाग-धब्बा पोंछा गया था परंतु वह टुकड़ा सोफ़े के कोने में छिपा हुआ था जो हत्यारों को सफ़ाई के वक्त नहीं दिखा। हत्यारों में किसी महिला के शामिल होने का पुलिस का शक अब यक़ीन में बदल रहा था कि हो न हो कोई महिला भी शामिल थी। आस-पड़ोस में उस कामवाली के और काम न होने से पुलिस के समक्ष उसे ढूँढने का बड़ा अल्टीमेटम था, गेट पर खड़े पड़ोसियों और कई काम वालियों से पूँछताँछ करने पर पता चला कि वे लोग उसे नहीं पहचानते, उसी समय उधर से निकल रहे एक मज़दूर मियाँ-बीवी ने धीरे से पूँछा कि यहाँ क्या हुआ है? इतना कहकर वे दोनों आगे बढ़ गए और चलते हुए मेन सड़क की तरफ़ मुड़ गए, उनको जाते देखकर भीड़ में खड़ी एक महिला बोली कि ये दोनों तो कल भी ऐसे ही टहल रहे थे, अचानक से पुलिस की टीम में भगदड़ सी मच गई एक सिपाही उछला और उन दोनों की तरफ़ दौड़ा उसके पीछे-पीछे सड़क की तरफ़ ही पुलिस की पूरी टीम दौड़ने लगी। मैंने देखा कि चिल्लाती हुई एंकर भी हाथ में माइक लिए कैमरे की तरफ़ देखते हुए भीड़ की तरफ़ पीठ किए उल्टा भाग रही थी, चिल्लाते-भागते वह पुलिस तक पहुँचकर, कभी पुलिस कभी उन दोनों मज़दूर-मजदूरिन के मुँह में माइक घुसाने की कोशिश में लगी हुई थी पुलिस के ऑब्जेक्शन के बावज़ूद सड़क के किनारे पर खड़ी हो उछल-उछल चिल्ला रही थी,


“आख़िरकार प्रशासनिक अधिकारी की हत्या की थ्योरी पुलिस ने पूरी तरह सुलझा ली उसकी हत्या अधिकारी की घरेलू नौकरानी ने अपने मंगेतर और अपनी बहन-बहनोई के साथ मिलकर की थी, उसको जब पकड़ा गया तो उसने जो कहानी सुनाई उससे किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं।


   उसने बताया कि,

    

   “मुझे साहब के यहाँ काम करते हुए तीन महीने हो गए थे, साहब मेरी पगार महीना पूरा होते ही दे देते थे, लेकिन साहब गंदी आदतों के शिकार थे, वे मेरे साथ अक्सर छेड़छाड़ करते थे, छेड़छाड़ का पैसा वे अलग से देते थे, जब भी छेड़ते थे उसके बाद ज़रूर कुछ पैसा देते थे। इस बार जब एक दिन मैं पोंछा कर रही थी, तो उन्होंने चुपके से पीछे से आकर, मेरे गाल को चूमते हुए मुझे बाहों में भर लिया था, मैं बहुत आहत हो गई थी पर फिर मैंने सोचा कोई रेप थोड़ी किया है साहब ने, मेरे जैसी लड़कियों के साथ तो ऐसा होता रहता है।” 

  

    ये कहते-कहते वह हिचक-हिचक रोते हुए अपनी बात बताने लगी, 


   “मैंने सोचा कि साहब पैसा तो दे ही देते हैं, लेकिन साहब वही पुराना रेट दे रहे थे उसके कई बार माँगने पर भी उन्होंने मुझे पैसा नहीं दिया तो मुझे बहुत गुस्सा आ गया था, हत्या वाले दिन मैंने साहब से कई बार पैसा माँगा पर उन्होंने नहीं दिया, जबकि वे उसी दिन बैंक से बहुत सारा पैसा निकालकर लाए थे और फ़ोन पर भैया-दीदी लोगों से बात करते हुए कह रहे थे, कि दीवाली आने वाली है, तुम लोग आओगे तो ठीक है, नहीं तो वे हैदराबाद वाले भैया जी के साथ अमरीका चले जाएँगे, भैया ने कहा कि आप अमरीका ही आ जाओ। मैंने ये सब अपने कानों से सुना था, मेरी भी शादी होने वाली थी, इसलिए मुझे भी ज़्यादा पैसे की ज़रूरत थी। 

      

   मैं सोचने लगी कि ये अमरीका चले गए तो मुझे तो पैसे मिलने से रहे और मैंने उनसे बीस हज़ार रुपये माँगे थे। वे रुपयों की कई गड्डी रखे थे पर मुझे एक हज़ार रुपया पकड़ा दिए। मेरा भी माथा गरम हो गया, मैंने भी सबक़ सिखाने को ठान ली।”

     

“मैं उस दिन शाम को काम पे न जाके रात को नौ बजे अपने बहन-जीजा और अपने मंगेतर के साथ साहब के घर जा पहुँची, उन्होंने मेरी बहन जो मेरे साथ ही खड़ी थी उसे देखकर पूँछा कि इसे क्यूँ लाई हो? मैंने देर रात का बहाना कर दिया। ये सुनकर साहब ने एक दो बार मना किया कि अब कल काम पर आना पर मैंने कहा कि कल मुझे कुछ और काम है, आपका काम पड़ा रह जाएगा, ये सुनके उन्होंने गेट खोल दिया और मैंने जल्दी से अपने जीजा और मंगेतर को भी अंदर कर लिया, साहब उन लोगों को देखकर सकपका से गए और फ़ोन उठाने चले तो मैंने ये कहा कि हम लोग केवल पैसे की बात करने आए हैं, बाक़ी आप किसी को फ़ोन मत करिए।”


      “अब मैं बीस हज़ार के बजाय उनसे पचास हज़ार माँग रही थी, पर साहब बड़ी मुश्किल से दस पर राज़ी हुए, मेरी बात न मानने पर हम कई बार उनसे कहते रहे कि लोगों के सामने हम अपना मुँह खोल देंगे कि आपने मेरे साथ क्या किया है? इतनी बात सुनके मेरा मंगेतर बौखला गया और वो साहब के ऊपर चढ़ गया और उनका गला दबाते हुए बोला कि हमें शादी करनी है नहीं तो ताऊ! हम आज ही तुम्हारे हाथ उखाड़कर पुलिस के चले जाते। इतने पर भी साहब पैसे देने को राज़ी नहीं हुए ऊपर से हमें पुलिस से पकड़वाने की धमकी देने लगे अब हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचा था हाथापाई होने लगी हमें कुछ भी नहीं सूझा, मुझे पता था कि साहब तरह-तरह के चाकूनुमा औज़ारों से पेंटिंग बनाते हैं, मैं घबराहट में छोटे-बड़े सारे औज़ार उठा लाई, हमने उनके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया और छोटे औज़ारों से कनपटी और सिर में कई छेद कर दिए और बड़े-बड़े नुकीले औज़ार से कई जगह से उनकी गर्दन काट दी, हम उन्हें डराकर पैसा वसूलना चाहते थे पर वे हमें बराबर पुलिस की धमकी देते रहे, उनकी धमकियों से हम लोग बुरी तरह डर गए। हम केवल पैसे के इरादे से गए थे, पर बात बढ़ने पर हमें उनकी हत्या करनी पड़ गई।”


     ऐंकर चिल्ला-चिल्लाकर मेरे कानों के पर्दे फाड़ रही थी और मैं अपने घर के टीवी के सामने वाली दीवार पर, कोट-पैंट पहनें एक गिद्ध की नई पेंटिंग लगाने की कल्पना कर रही थी।


जिज्ञासा सिंह

आवभगत.. कहानी ब्लॉग पर

लब्धप्रतिष्ठ पत्रिका “गुलमोहर” के वार्षिक विशेषाँक में प्रकाशित मेरी कहानी “आवभगत”


कहानी- आवभगत            

 “जब कोई मंत्र न लगे, झाड़फूँक फेल होय जाय दवा-दरमद नक़ली निकल जाय, फिर भी अपना करमजाल खोपड़ी पर लादे धेरिया धरती पर गिर ही जाय तो क्या करें? भाग्य कोसने और हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं बचता!!”

   जिस जमाने में बेटी पैदा होने के पहले ही मारने के लाखों उपाय किए जाते हों,

     उसी जमाने में, दैया रे दैया! किसी के सात पुश्त कन्यारत्न हो ही न! आँगन में बजनू पायल पहन कोई ननमुनिया हिरणी दौड़ी न हो, काजल लगाए बदली अम्बर से मुँडेर पर उतरी ही न हो कि उधार माँगकर ननमुनिया की झील जैसी अँखियाँ में तनिक ढेपार देवें, याकि बुढ़वा बरगद की चार पुश्त पुरानी बँवर हाथ जोड़ि के माँग लावें और दुआरे की पूजैतिन बूढ़े बाबा के बाबा के बाबा की लगाई, बूढ़ी आजी के ढरकौना की सेई दूनों बाँह फ़ैलाए खड़ी, ड्योढ़ी की रक्षा करती निमिया पर सरावन के हिंडोलना डारि देवें ताहि पर ननमुनिया बैठ, घर बखरी निहार-निहार, निमिया की सखी पकड़िया म नीड़ बनाए बरसों-बरस की बाशिंदी कारी कोयलिया के तान में तान मिला-मिला मोहल्ला की सगरी ननमुनियों के संग गीत गावें औ झूलें…

“सोवो की बाबा जागो बाबा बगिया म द्वार चार होय रे!

न मैं सोऊँ न मैं जागूँ, बेटी मन म दहेजवा की सोच रे!”

 आज उसी….

    ड्योढ़ी के चबूतरे पर चार पलंग, आठ खाटें और चार तखत पड़े हुए हैं, उसी के बग़ल में बड़ी मम्मी के ब्याह में मिली पेवर शीशम की बड़की मशहरी पड़ी है, बड़की मशहरी पे चाची के मायके में मिला पेवर जूट का गद्दा पड़ा है, गद्दा के ऊपर छोटी चाची के भतीजे के मुंडन में मिली रेशम की जयपुरी चादर औ तकिया का सेट बिछा है, तकिया के बग़ल में दुई मसनदें पड़ी हैं, जिनमें मलमल जैसी मुलायम सेमल की रुई भरी है, ऐसा लग रहा, जैसे उमरावजान पिक्चर की रेखा बस नाचने ही आने वाली हैं और दोनों मसनदों के बीच फ़ारूख शेख़ बैठे उन्हें रूमानियत भरी निगाहों से भर-भर निहारेंगे, पर नहीं, यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है, क्योंकि ये साझा ड्योढ़ी है मेरे परबाबा और उनके छोटे भाई की और उन मसनदों के बीच सजे बैठे हैं, हमारे बाबा के कक्कू और छोटी काकी के बड़के दमाद, सभी के आकर्षण और स्नेह के केन्द्र, गुजरात में रिज़र्व बैंक के बड़का अधिकारी, पूरे ख़ानदान के बड़के फूफा!

अब उनका आकर्षण हो भी क्यों न??

    ख़ानदान में चार पीढ़ी बाद पैदा हुईं बिटिया, बड़की फूफू के पति और पचास साल से सरपंच और परधान बड़े-छोटे दोनों बाबा के जान से प्यारे सोनैया जैसे दमाद जो हैं, हैं तो वे पिता जी की पीढ़ी के फूफा लेकिन वे हर पीढ़ी के भी बड़के फूफा हैं। सोनैया जैसे दमाद तो वे बाबा औ दादी के हैं ही. वे पुरुष जाति में भी लाखों, करोड़ों में एक हैं।

   “अहहा! जैसे रुई के फाहा! छू लो तो मैले हो जाएँ, जैसे गुलाब के फूल! घड़ी भर बाद कुम्हला जाएँ।”

   देखने में तो सवा छः फ़ीट लम्बे! जैसे लम्बाई वैसे बिलकुल सधी मोटाई.. ना एक सूत इधर, ना एक सूत उधर.. ऊपर से खोपड़ी में काला घुंघराला बाल..खूब घना.. लट माथे पे गिर-गिर जाय औ  होंठ..दैया रे दैया.. बिलकुल तोता की टोंट जैसे सुंदर औ सुर्ख़ लाल.. आँखें तो जैसे नैन, बिन काजल के कजरारे.. एक बार देख ले अगला औ समोहित न हो जाय..तो जिसमें कुत्ता खाता है, उसी में खाना हमको भी खिलाना। 

      ये तो हुई खानदान में सबके बड़के फूफा के सुंदर गढ़न और डील-डौल की बात अब वही खानदान में फूफा के जबरा फैन की टोली में, घर की बिटियों से लेके बड़ी दादी, छोटी दादी, दोनों ताई, मम्मी, बड़ी मम्मी, तीनों चाची, पूरे मोहल्ला की उम्रदराज, जवान, नयी- नवेली, बूढ़ी-ठेढ़ी, हर मेहरारू ऐसी न थी जो फूफा की दीवानी ना हो। दीवानेपन के यही इतने ही कारण नहीं थे.. उनपर मर-मिटने का सबसे बड़ा कारण था फूफा का ज्योतिष का ज्ञानी होना..।

     पंडित-पुरोहित वाला ज्योतिष नहीं, काफ़ी पढ़ाई करके वे ज्योतिष सीखे थे, मम्मी कहती थीं कि काशी के किसी प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य से ज्योतिष का ज्ञान लिए थे फूफा। वैसे तो पढ़ाई वे बैंकिंग का किए थे पर ज्योतिष पर उनका हाथ और दिमाग़ दोनों का ज़ोर था.. बड़ी मम्मी को तीन बेटा बताए थे और उनके तीन ही बेटा हुए.. फिर उनके कोई औलाद ही नहीं हुई.. ताई जी की बहन मौसी आई थीं तो फूफा यहाँ उनको मिल गए थे, अपनी आँखों देखी बात है ये.. मौसी ने जैसे ही हाथ दिखाया और पूँछा कि मौसा बैंकाक से कब आएँगे, फूफा ने कहा आँख बंद करो वे हाजिर हैं, सच्ची कहूँ! बिना चिट्ठी-चौपाती के उसी रात मौसा अपने घर डढ़ियाकला आ गए थे वो भी बैंकाक से, दूसरे दिन बड़े तड़के नाऊ हमारे घर आ गया था औ झट्ट मौसी नई साड़ी पहन महावर लगा, सबसे विदा लेके ख़ुशी-ख़ुशी चली गई थीं एक बात और बड़के ताऊ कचहरी गए थे इलाहाबाद पेशी पर, तीन दिन का कहके पाँच दिन बाद भी ना लौटे थे, दादी ने फूफा के सामने जैसे ही ये बात कही, फूफा ने कहा कुशल से हैं मुक़दमा की तारीख़ हो गई है, फ़ैसला साल भर बाद होगा और वही हुआ एक साल बाद घरुही वाले खेत का लफड़ा बड़के ताऊ निपटा पाए थे। अरे सबसे बढ़िया बात सुनो! छोटे ताऊ वाली चितरा बुआ के बच्चा होने वाला था दुइ बिटियों पर.. और उनकी कौनो खबर नहीं आ रही थी औ बड़के फूफा आए हुए थे तो ताई जी, छोटी आजी से कहने लगीं कि न हो काकी! फूफा को तो संसार की सबहि जानकारी है, उनसे एक बार पूँछो कि छोटी बेबी जी के कोई बच्चा हुआ कि नहीं, छूटते ही फूफा बोल पड़े थे कि कन्या रत्न आ चुका है, और आजी का मुँह उतर गया था एक तौ बिटिया ऊपर से तीसरी, तीसरे फूफा रत्न बोल दिहे थे। आजी तौ फूफा के ज्योतिष पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दी थीं पर फूफा के आदर-सम्मान की वजह से चुप रहीं।

      छोटी बुआ की शादी ढूँढते-ढूँढते जब मँझले बाबा थक गए तो फूफा ही बताए थे कि चाहे जो जुगत कर लो इस लड़की की शादी २३ की उमर से पहले हो ही नहीं सकती.. और वही हुआ.. जब तक ब्याह ना हुआ था.. छोटी बुआ तो फूफा को देखते ही मचल पड़ती थीं.. तब दादी फूफा को चिढ़ाती थीं हँस के.. काहे जीजा एतना लेट बियाह बताए हो तो हम तो आप ही के साथ बीबी जी को भी  बाँध देंगे फिर बड़की बीबी आपको घर में घुसने भी ना देंगी..।

     अब कहनी को क्या कहें? दादी की चिढ़ावन वाली कहन को फूफा और बुआ ने दिल ही से लगा लिया.. छोटी बुआ औ फूफा चुप-चुप प्रेम में मगन होने लगे। नहले पे दहला तब हुआ जब बड़की फूफू गरभ से हुईं, बड़े अरमान से फूफा ने बड़े पापा को चिट्ठी भेजी कि भाई साहब हम तौ गुजरात हैं, आप को तो पता ही है, कि अम्मा दमे की मरीज़ हैं, जिज्जी ससुराल हैं, घर में काम करने वाला कोई नहीं है, घर में बड़ा होने के नाते हम ही को सब सोचना है, आपकी बहन जी की अब बड़ी गरुई अवस्था है, बड़ी परेशानी है, हो सके तो अपनी बहन बिट्टन को भेज दीजिए।

    डाकिया देखते ही छोटी बुआ साइकिल पर ही टूट पड़ी थीं और डाकिया के थैले में अपना हाथ ऐसा घुसेड़ीं कि सब चिट्ठी-पत्तरी उल्ट-पल्ट गई थी एक दो चिट्ठी तो मुँह के बल ऐसी भेहरा के ज़मीन पर गिरीं कि धरती माता ही पढ़ने लगीं, अपने झोले की ख़स्ता हालत देख डाकिया मदर इंडिया के सुक्ख़ीलाल की तरह चिल्लाने-पोंगने लगा था आख़िर छोटे बाबा चिल्लाए कि मुनिया ठीक तरह से चिट्ठी लेओ। ये का तरीक़ा है, बुआ झेंपते हुए थोड़ा पीछे हटके डाकिया से पूँछने लगी थीं कि कोई चिट्ठी हो तो दो। उनकी आतुरता देख डाकिए ने एक नीला अंतर्देशी बुआ के हाथ में पकड़ाया नहीं कि बुआ बिना पीछे पलटे ही घर के पिछवाड़े की तरफ़ ऐसा दौड़ीं कि मुँह के बल गिरीं धम्म से। उनका ये अलभेसरापन देख छोटे बाबा किटकिटाते हुए दौड़ पड़े थे ये कहते हुए कि काहे रे मुनिया जादइ सयानी होय रही है का!! लेकिन डाकिया हँसते हुए बीच में ही सारा मामला लपक लिया, अरे रहय दें लड़किनी चिट्ठी चौपाती देख ऐसेने भेहरा जाती हैं।

     डाकिया के कहने को न था और छोटी बुआ के भेहराने को कौन कहे? वो तो चिट्ठी पढ़ते ही बौरा गई थीं पिछवाड़े बैलगाड़ी के पहिया के पीछे खड़ी होके सत्रह बार बड़के फूफा की चिट्ठी पढ़ीं और सत्रहवीं लाइन को सत्रह बार चुम्मी दीं जिसमें सत्रह अक्षरों में लिखा था कि “हो सके तो अपनी बिट्टन को भेज दीजिए।” अब क्या था? बुआ पिछवाड़े लगे गूलर के पेड़ को लिपट के ऐसा घूमी कि लट्टू की घिर्री भी खिसिया जाय, ख़ैर चिट्ठी लेके दौड़ती हुई खिड़की के दरवाज़े से एक दालान से हरिना छलाँग लगाती हुई दूसरे दालान में पहुँच गईं जहाँ बड़ी आजी यानि उनकी अम्मा बैठी सिकहुली बीन रही थीं हवा में हाथ उछालती हुई ज़ोर से चिल्लाईं,

“देखौ! भैया देखौ! बड़के जीजा की चिट्ठी आई है, कहाँ-कहाँ? कहते हुए आजी ने हाथ लपकाया ही था कि चिट्ठी बुआ के हाथ से छूट के कास-मूँज भिगाने वाले पानी में तैर गई, हाँ-हाँ कहते हुए बुआ ने चिट्ठी को चट्ट से उठा लिया और अपनी सूती ओढ़नी से चिपका-चिपका धीरे-धीरे बड़े ही स्नेहिल भाव से पोंछा और दोनों परत को आहिस्ता से खोल उन सत्रह अक्षरों को फिर से झाँक लिया कि वे सही-सलामत हैं या पानी लगने से घुलकर हवा में उड़ गए, अभी वे सत्रह अक्षरों में खोने ही वाली थीं कि अम्मा ने झकझोरा,

“ सुना न बिटिया! मन्ननिया ने का लिखा है?”

“जिज़्जी की थोड़ी न है, अम्मा ई तो जीजा की है।”

     ओढ़नी होंठों से दबाते हुए मचलकर वे बोली ही थीं फिर तो सारे घर में शोर ही मच गया कि बड़की बुआ की तबियत ख़राब है, सब के सब हाय-हाय करने लगे। आजी तो सबसे पहले भागीं शिवबरन पंडित के घर ग्रह-नक्षत्र पूँछने, बड़की अम्मा लौंग गुड़ लेके दौड़ गईं संझा मैया को अरघ देने। बचीं मम्मी! मम्मी ने मोर्चा सँभाला पूरे घर को ये समझाने का.. कि गरभ होने पर हल्की-फुल्की तबियत ख़राब हो सकती है, ये कोई घबराने की बात नहीं है।

    हाँ बड़की बुआ के घर में बच्चा होने पर, घर में काम बढ़ जाएगा तो उस स्थिति को संभालने के लिए हम में से कोई चला जाएगा। मैं भी जा सकती हूँ, बुआ की सेवा करने में मुझे कोई दिक़्क़त नहीं है। मम्मी के मुँह से ये निकल ही रहा था कि वे जा सकती हैं, अभी उनकी आधी बात हलक में ही चिपकी थी कि इतने में लपक के छोटी बुआ सबके बीच में खड़ी हो गोल-गोल आँख घुमाते तपाक से चू पड़ीं,

“लेकिन जीजा तौ हमको बुलाए हैं। फिर आप तो जीजी के ननद के शादी में गई ही थीं और तौ और जीजी के सास आपको केतना बढ़िया जयपुरी चुनरी दिए थीं जो आजौ तक आप पहनती हैं, का कहेंगी वो? केतनी बार आपही को देंगी? अब क्या बार-बार आपही का जाना सही रहेगा, न! हो अबकी बार हम चले जायँ जीजा की बातौ रह जाएगी हम अपने जीजी का लल्ला भी खिला आएँगे, लल्ला भी खुश होय जाएगा कि हमारी मौसी आई हैं.. हि-ही-हि-ही!”

    अब छोटी बुआ उमर में भले छोटी थीं लेकिन ओहदे में मम्मी की बुआ सास थीं।  ख़ानदान भर की हर मेहरारू चिट्ठीदेसा के आने की बात सुनकर चिट्ठी वाचक के चारो तरफ़ घेरा बना कर खड़े होने की आदी थी ऐसे में सबके सामने छोटी बुआ की बात काटने का मतलब था कि अपने जाने की लालसा का प्रदर्शन कर देना। मम्मी चुप्प रह गईं।

    अपने जाने का पासा खेलकर छोटी बुआ खींस निपोरकर जैसे ही हँसीं कि उनकी हाँ में हाँ मिलाती आजी के साथ-साथ खड़ीं घर की सब मेहरारू भी कुछ ऐसे हिहियाने लगी जैसे नानी अभी ही लल्ला के बुकवा लगाय रही होंय और पेट पर मालिश होते ही नौनिहाल खिलखिला पड़ा हो वो भी जाड़े की धूप में, जब अग़ल-बग़ल बैठी टोला मोहल्ला, घर बार की नानी-मामी-मौसी लल्ला को ही टुकुर-टुकुर निहार रही होंय।

    सबकी हँसी से बुआ को संबल मिल चुका था वे अपनी पहली चाल में कामयाब हो चुकी थीं। अब बाबा के सामने चिट्ठी और बड़की बुआ की परेशानी का मायाजाल एक साथ बुनना था। वो तरकीब और जुगत की तलाश में थीं। जुगत की तो कहने ही क्या? वे हमेशा से जुगती स्वभाव की थीं, जब भी बड़की बुआ के लिए कोई स्पेशल सामान आता था तो वे कोई न कोई बहाना कर ऐसा जुगाड़ लगाती थीं कि वो सामान उनके पाले में आ जाय! अपनी सुंदरता का गुमान करते हुए, कभी कहतीं साँवले रंग पर ये नहीं जमता, लंबे लोगों पर ऊँची एड़ी नहीं फबती, मेकअप के समान पर तो जैसे उन्हीं का ही अधिकार है, चूँकि बड़की बुआ गम्भीर-शांत-सौम्य और छोटी बुआ से ज़्यादा पढ़ी-लिखी थीं, गीता-रामायण, धार्मिक शास्त्रों में उनकी रुचि थी वहीं ईश्वर प्रदत्त सौंदर्य की धनी छोटी बुआ फ़ैशन की वस्तुओं पर भी अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं। अगर बड़की बुआ कुछ शृंगार करना चाहें भी तो वे बड़ी चालाकी से बात को हमेशा पढ़ाई-लिखाई की तरफ़ मोड़ देती थीं।

    छोटे बाबा की तीन सुपुत्रियों में सबसे छोटी, छोटी बुआ महामुश्किल से चौथी पास हो पाई थीं, पर चालबाज़ी और अदाबाज़ी में पी एच डी थीं, टोला- मोहल्ला ननियाउर-अजियाउर हर जगह कोई नया-नोसर नौजवान, जो खुली आँख से भी न दिख सके वह छोटी बुआ की झपकती आँख से भी नहीं छूट सकता था, मम्मी और ताई जी तो हर तीज-त्योहार, मुण्डन-विवाह में, घूँघट से एक दूसरे को इशारा ही करती रह जाती थीं बुआ जी के दिलफेंकी पर!! और छोटी बुआ जी किसी न किसी को ऐसा पटियाने में जुटी होती थीं जैसे सालों से उनकी जान-पहचान हो।

    ऐसे ही एक वाक़या बताते-बताते तो घर की सारी मेहरारूवे लोट-पोट हो जाती थीं हुआ ये था कि गाँव में बाभनन टोला में शादी थी। छोटी बुआ, मँझली बुआ दोनों सज के गईं द्वारचार देखने। बुधई पंडित के घर से बड़े बाबा का बड़ा घरौटन संबंध था सो आजी के साथ-साथ सब दिनारी दुलहिनें भी स्पेशल बुलावे पर गईं थीं, ख़ूब गमक के द्वारचार की तैयारी हो रही थी पंडित के एक ही बिटिया थी, सो उन्होंने शादी बड़ी धूम-धाम से करी थी बारात तो पास ही के गाँव से आई थी लेकिन ऐसी बारात बाभनन में पहली बार आई थी । ढेर गोला-तमाशा आया था, एक अनार जले औ पूरी जँवार जगमग करे, राकेट तो बिलकुल आकाश छुए, जाने कितना तो नाच-बाजा लाए थे सब, देख-देख आदमी का मन भर गया! लेज़िम बाजा दो जोड़ी, लिल्ली घोड़ी का नाच, सफेड़ा नाच तीन जोड़ी औ नौटंकी तो ऐसी ज़ोरदार लाए थे कि पूँछो न! ऐसी नौटंकी गाँव में पहली बार आई थी! फूलन देवी औ लाखन डाकू का खेल हुआ था तीन दिन की बारात में जो मज़ा आया था सबको कि बाभनन की मूँछ ऊँची हो गई थी। अब उसी द्वारचार में अपनी छोटी बुआ, आगे खड़े होने के लिए घुसी जाएँ, जब आगे नहीं घुस पाईं तो आजी बड़ी ज़ोर डपटीं, कि,

“काहे रे का दुलहवा के खोपड़िया पे बैठ जाबे।”

    बुआ का गलुक्का फूलने ही वाला था कि मँझली बुआ ने उनका हाथ पकड़ा और खींचकर ये कहते हुए ऊपर कोठे की तरफ़ ले जाने लगीं कि, भाभी लोग सब ऊपर ही हैं, हम लोग भी वहीं से देखेंगे बुआ खुश हो गईं। अब ऊपर कोठे और कोठे के छज्जे पर कौन सी भीड़ कम थी? लेकिन द्वारचार तो उन्हें अब कोठे की छत के छज्जे से ही देखना था सो उन्हें ये भी ध्यान नहीं रहा कि भरे जेठ की पसीनादार जुलजुलुवा गर्मी में नई भाभी के अमेरिकी मेकअप बॉक्स से किया हुआ मेकअप, मेलहरू काजल से हेलमेल को कुछ ऐसे आतुर है जैसे द्वारचार की भीड़ में हाथ में हाथ गहे बुआ दोनों बहिनें। 

     नीचे घर के ड्योढ़ी पर पान का बीड़ा खिलावन की रस्म हो रही थी, बाजा और तमाशा वाले झूम-झूम गिरे जा रहे थे लफेड़ा पतुरिया घूँघट उठा-उठा सबको आकर्षित कर रही थी, लेज़िम बाजा का तबलची और पिपीहरीबाज सुर के सातवें घोड़े पे विराजमान हो चुके थे। तो वहीं ऊपर कच्चे ईंटों के पुराने छज्जे पर प्रदर्शनी नुमा खड़ी मेहररूओं में सबसे आगे खड़ीं दोनों बुआ कँटीली करोनी के साथ कच्चे चावल का बीड़ा झोंकते हुए पीछे मुड़-मुड़ भाभी से नए ज़माने का द्वारचार गीत गाने की बार-बार फ़रमाइश कर रही थीं, वहीं बाभनें गाने में जुटी थी,

“हम तोसे पूँछी बारे दूलहे जी, आधी रात काहे आए ए छिया।”

  “टुटहा मियनवा फटहा ओहरवा, बजना ले आए भडभडिया ए छिया।

मैया न लाए बहिनियाँ न लाए, भरि मेहरारू लवतेव ए छिया।

अपनी मैया के ओहपर दियना जलौते, वहि उँजियारे औतेव ए छिया।”

“वे जैसे ही चुप हुईं कि ओहका गाओ ओहका गाओ की गुहार लग गई, इतने में बुढ़िया पंडिताइन ने खींस निपोरी और तान छेड़ दी..

“बराती एक्को मने के नाहीं.. केहु ढचक चलें, केहु मटक चलें, केहू गदहवा की चाल,

बराती एक्को मने के नाहीं”

केहू के आँख टेढ़, केहू के गोड़ टूट, केहू के कूबड़ मसान,

बराती एक्को मने के नाहीं”

इतने में दरवाज़े से बड़े ताऊ जी चिल्लाए,

“ग़लत बात!! ऐसा गाना नहीं होना चाहिए! ये हमारे नए रिश्तेदार हैं।” 

“हाँ-हाँ सही कह रहे आप।” उन्हीं के साथ दसियों लोग बोल पड़े, 

“अरे तनी बखरी वालिन से कहो कुछ नया-नोसर गावें..।”

   पंडित जी का लड़का बोला ही था कि.. उसके साथ कई लोगों की फ़रमाइश, ताई जी और मम्मी के गीत की आ गई।अब मम्मी और ताई जी के ऊपर कोई नया गीत गाने का ज़बरदस्त प्रेशर आ गया आख़िर बड़े अरमान से बोलाई गई थीं वे लोग, गाना तो गाना ही था। सो तान छिड़ गई..

“स्वागत में गाली सुनाओ सखियाँ स्वागत में”

“हमरे समधी जी के टोपी नहीं है लाल ओढ़निया ओढ़ाव सखियाँ स्वागत में।”

“यहि दूल्हे राजा के चंदन नहीं है, सिंदुर ओ बिन्दी लगाओ सखियाँ स्वागत में।”

“एक और! एक और!”

“समधी बड़ा रंगबाज़, हमका निहारे।

दुलहा बड़ा सींटीबाज़, हमका निहारे।

हमने समधिया को बोतल मँगाई, पी के खड़ा दारूबाज़ हमका निहारे।”

      घरातियों की फ़रमाइश पर ताई जी ने जैसे ही सुरीली तान छेड़ी कि दूल्हे के पीछे खड़े ताऊजी ने ऊपर छज्जे पर देखते हुए अपनी मूँछे तिलोरीं, इधर ताई जी हहा के मम्मी के कंधे से लग गईं और कान में बोलीं जानती तो हो न! ई गाली तुम्हारे भाई साहब को कितनी पसंद है, मम्मी भी पापा की तरफ़ देख के खिल्ल से हँस दीं और दूर खड़े पापा ने भी इशारे में सहमति दी कि अच्छा लग रहा तुम्हारा गाना।

    वाह-वाह के बीच ५१ रुपये का नेग, गाली गीत के लिए समधी जी ने जेब से निकाला ही था कि ताऊ जी ने हाथ पकड़ लिया ये कहते हुए कि ये अच्छी बात नहीं। ये तो संस्कार है जी, और समधी झट से गले लग गए। मीठी और मधुर तान छिड़ी हुई थी बाराती और घराती झूम रहे थे कि अचानक आवाज़ आई.. 

“आरारारा धम्म!” 

     जहाँ बुआएँ अपनी सहेलियों के साथ लटकी नैनमटक्का कर रही थीं, चरमरा के उसी छज्जे का कोना गिरा और ६-७ लड़कियाँ धड़ाम से गिरीं और दरवाज़े पे हलचल मच गई ये तो कहो कोने पर लड़कियाँ ही लटकी थीं और गिरीं भी बग़ल में लगी पुआल की खरही के ऊपर। सो किसी को ज़्यादा चोट नहीं आई पर हुलिया तो बिगड़ ही गया, सबसे ज़्यादा तो हमारी हिरोइन बुआ को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। शादी में कोई विघ्न न हो! अतः थोड़ी अफ़रातफ़री के बाद तुरंत ही ताऊ जी ने रस्मों की आगे की कार्रवाही शुरू करवा दी पर बुआ और बुआ की सहेलियों को जो पुआल के बीच से खींच-खींच निकाला गया उससे ऐसी शर्मिंदगी आई कि वे लोग घर चली गईं तो दूसरे दिन फिर शिष्टाचार में ही दिखाई पड़ीं।

      तभी से गाँव-घर की हर मेहरारूवे, रंग-रंगीली छोटी बुआ को देखते ही उस वाकए को याद कर हँस पड़ती थीं। ताई जी का तो नहीं कह सकते लेकिन आज मम्मी का छोटी बुआ को तनिक भी  मज़ाक में लेने का मन नहीं था क्योंकि मम्मी पढ़ी-लिखी तो थी हीं उनकी तीसरी इन्द्रिय भी काफ़ी सक्रिय अवस्था में रहती थी यही कारण था कि बड़े बाबा, मम्मी से घर की घरेलू समस्याओं में सलाह लिया करते थे किसी को नई जगह जाना हो या किसी लड़की की पढ़ाई-लिखाई से लेकर शादी ब्याह तक मम्मी से ही मशविरा किया जाता था, मम्मी की पढ़ने और पढाने दोनों में रुचि थी आख़िरकार उस जमाने में मम्मी इंटर तक अंग्रेज़ी जो पढ़ी थीं, मम्मी के पास अपना गूगल था उस समय, अरे इंटरनेट वाला नहीं भई! पुस्तकों वाला था, कोई प्रश्न जैसे ही करो वे झट ग्रंथ खोल, बाल में खाल निकाल-निकाल, सटीक जवाब खोज लेती थीं, उसी क्रम में आज भी उन्होंने छोटी बुआ का बड़ी बुआ की सेवा में जाने की आतुरता को भाँप लिया था, उनका जिज्ञासु और ख़खेड़ी मन यह क़तई मानने को तैयार नहीं था कि छोटी बुआ जी का अपनी बहन की सेवा करने का इतना मन है।

    मम्मी पहले तो घरेलू मकड़ी बन जंगली जाले के सूत-सूत को उधेड़ और बुन रही थीं पर जब वे जाले के सिरे पर नहीं पहुँचीं तो आख़िरकार उन्होंने ख़ुद को जंगली मकड़ी बनाकर, जाले का वो सिरा पकड़ ही लिया जिससे जाला बनाने की क़वायद हुई होगी और उन्होंने झट ताई जी को अपनी शंका बताई और कई हवाले याद दिलाए कि वैसे तो उचना में छोटी बुआ बड़ी बुआ जी के आने पर तो मुँह ही फुला लेती हैं, अब आख़िर इतना प्रेम कैसे उमड़ रहा उनके अंदर? हो न हो! दाल में ज़रूर कुछ काला है, दोनों देवरानी-जेठानी अब इस निष्कर्ष पर पहुँच गई थीं कि हो न हो छोटी बुआ का दिल बड़के फूफा के बटन में टँक गया है, और बड़के फूफा तो पहले से ही मेहररुओं से बटन टँकवाने के आदी हैं, ताईजी और मम्मी दोनों ने सौ-सौ जुगाड़ लगाए पर जंगली मकड़ी के जाले की बुनावट को जानने के अलावा उसका बनना नहीं रोक पाईं और मकड़ी जाले के मध्य में जाकर बटन का होल बन गई। 

    बड़ी बुआ की तकलीफ़ सुनकर छोटे बाबा का दिल ऐसा रोया कि छोटी बुआ को लेकर ख़ुद ही बड़की बुआ के घर चल दिए और उनके गाँव में चार दिन रहकर छोड़कर लौट आ गए थे। 

     एक ही महीने के अन्दर बड़की बुआ के बेटा हो गया था आजी ने ख़ूब भारी-भरकम बधावा की तैयारी करके फिर बड़के बाबा को भेजा और लौट के बड़के बाबा ने भरे-पूरे घर के सामने बड़की बुआ के पूरे घर-परिवार की तारीफ़ तो करी ही, छोटी बुआ की कर्मठता की भूरि-भूरि प्रशंसा की, बड़की बुआ तो सचमुच प्रशंसा वाली थीं पर छोटी बुआ के कामकाज की प्रशंसा पर तो आजी, ताई जी और मम्मी को दिखा-दिखा के उछली पड़ रही थीं। काहे से ये दोनों ही अक्सर छोटी बुआ की आदतों का ज़िक्र कर दिया करती थीं। बाबा की तारीफ़ से न तो छोटी बुआ में कोई सुधार होना था न आजी का बहुत दिन उछलना ही चलने वाला था। वहाँ तो समय एक नयी कहानी गढ़ रहा था। जब बाबा बड़की बुआ का बधावा लेकर गए थे तो उनके सास-ससुर से बुआ को साथ लिवा ले जाने को बोले थे तो उन लोगों के साथ-साथ फूफा ने कहा था कि हफ़्ते दस दिनों में मैं मन्नन तथा बिट्टन दोनों को लेकर आऊँगा। आपके यहाँ बच्चे और माँ की अच्छी सेवा हो जाएगी। आपका परिवार बहुत सेवाभाव वाला है न! बाबा ये बात बड़े गर्व से सबके सामने बताए थे, अब वो दिन आ गया था जब आजी बुआ के आने की तिथि उँगलियों के पोरों पर गिनने लगी थीं, और उस दिन शाम को दरवाज़े से लेकर बग़ीचे और छोटी बखरी से लेकर बड़ी बखरी तक पूरे घर की लिपाई-पुताई चल रही थी, बाबा ने लकड़ी वाला नक्काशीदार पालना, भाभी के कमरे से निकलवा के अंदर वाली ड्योढ़ी के बरामदे में डलवा दिया था और दादी ने ढोलक को दोबारा धूप दिखा के सारी डोरी कसकर, बड़ी चाची को नया सोहर गाने का निमंत्रण भी दे दिया था और अपना मौनी के नीचे गौर न्योतने बैठ गईं गौर ने भी बुआ के तुरत आगम को बता दिया था ख़ुशी के मारे आजी मंदिर की ड्योढ़ी पर हाथ जोड़े निहुरी ही थीं कि कक्कू वाले छोटे लल्ला ने हल्ला मचाया कि बुआ आ गईं! बुआ आ गईं! आजी जल्दी-जल्दी गेंडुआ में लौंग और गुड़ डाल, ढरकौना लिए दौड़ीं कि बड़े चाचा बोले कि,

“ई झुठ्ठा है काकी! अभी बुआ नहीं आईं।”

  इतना सुनते ही काकी लल्ला पर ऐसी फ़िरंट हुईं कि लल्ला के तरफ़ से घर के आठ सदस्य ने पैर छूकर माफ़ी माँगी, आख़िर नाती के आने की ख़ुशी ने उनका नक़ली क्रोध शांत कर दिया था। ये सब नाटक हो ही रहा था कि बुआ की डोली दरवाज़े पे आके उतर गई, साथ ही पैदल चलती छोटी बुआ और बड़के फूफा भी आकर ड्योढ़ी पर ही पलंग पर बैठ गए। दरवाज़े से लेकर रसोईं तक हलचल मच गई, बाबा के आदेश और आजी के कहे अनुसार बड़के फूफा और बुआ का खूब स्वागत-सत्कार होने के साथ-साथ छत्तीस व्यंजनों का भोज कराया गया।

     रात हो गई थी, फूफा को चौपाल में मशहरी और बुआ को मम्मी की मशहरी पर सोने का बिस्तर लग गया था चूँकि मम्मी और बुआ में बहुत पटती थी सो बुआ ख़ुद ही कहीं कि वे आज मम्मी के कमरे में सोएँगी। नवका लल्ला तो अभी तक, इस हाथ से उस हाथ इस गोदी से उस गोदी ही ट्रांसफ़र हो रहा था कि आजी नज़र उतारने के बहाने लल्ला को अपने अँचरा में छुपाए धीरे से मम्मी के कमरे में आ गईं और लल्ला को बुआ की गोदी में डालते हुए समझा गईं कि सवेरे जब टोला-पड़ोसी आएँ तो उनके सामने लल्ला को वही ले जाएँगी छुपा के, नहीं तो नज़र लग गई तो उतरने वाली नहीं, काहे से भरतिया की एक कही पर सौ बरस नज़र नहीं उतरती।

  आजी के जाते ही बड़की बुआ ने मम्मी के कमरे की कुण्डी लगाई और मम्मी के गले लग फ़क़क-फ़क़ककर रो पड़ीं, मम्मी की जंगली मकड़ी वाली कहानी हक़ीक़त हो गई थी। बड़के फूफा बड़की बुआ को सेवा के लिए मायके छोड़ने नहीं आए थे, वे आए थे छोटी बुआ का हाथ माँगने!

     अगले दिन सुबह सबकी आँख तब खुली जब घर में हलचल मची हुई थी सारी मेहरारूवें सिर पे पल्लू रखे ड्योढ़ी वाले बरामदे के अंदरूनी हिस्से में आश्चर्यचकित खड़ी ख़ुस्फ़ुसा रही थीं और दोनों आजियाँ खोपड़ी पर हाथ धरे मचिया पर आधी बैठी और आधी लटकी थीं बड़े बाबा छोटे बाबा को कौरियाये खड़े थे। काहे से कि छोटे बाबा सरसों तेल से तेलियाए पके बाँस के सोंटा से गुजरात के रिज़र्व बैंक के गवर्नर का पिछवाड़ा लाल कर दिए थे और गवर्नर साहब मुँह के बल बाबा के चरणों में पड़े थे साढ़े छः फीट का मुर्ग़ा कबूतर बन गया था और ज्योतिष के कुकड़ूकूँ की जगह गुटरगूँ कर रहा था। 

    सारा तहलका जब शांत हुआ तो आनन-फ़ानन में छोटी बुआ के लिए एक जाहिल-गँवार खोज दिया गया था और आगे के लिए एक ऐसी लक्ष्मणरेखा खींची गई कि ख़ानदान की कोई भी कन्या जीजा नाम की प्रजाति से आजीवन दूर रहेगी।

जिज्ञासा सिंह