इंतज़ार

  

वृद्धाश्रम में रहते मित्र की मृत्योपरांत, केशव और वृद्धाश्रम संचालक, उनके बेटे को फ़ोन करते रहे पर वह नॉर्वे से नहीं आया। निराश केशव ने अंतिम संस्कार स्वयं करने की इच्छा अपने बेटे ऋषभ को बताई। बेटा रोष में बोला,

 “पापा! मित्रता आश्रम तक ही रहे घर मत लाइएगा।”

   बेटे के दुर्भाव से आहत पिता ने मित्र का क्रियाकर्म कर, वृद्धाश्रम में ख़ाली बेड अपने लिए रिज़र्व कर लिया। घरवाले पेंशन का इंतज़ार करते रहे।

जिज्ञासा सिंह 

प्रतिशोध.. कहानी





‘रचना उत्सव’
प्रयागराज से प्रकाशित होने वाली प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका के ‘स्त्री शक्ति विशेषांक’ में प्रकाशित कहानी ‘प्रतिशोध’।

“तुम कहते हो न! तुमने आग नहीं देखी!

आग देखनी हो तो झाँक के कभी पानी में देखना। तुम्हें दिखेगी! आग बहती हुई स्याह रंग लिए, स्याह जैसे-जैसे पानी में फैलेगा नीला होता जाएगा, नीली बूँदों में झलझलाएगा हल्का पीला रंग, वही हल्का पीला बह-बहकर आगे फिर मटमैला होगा, मटमैला निथरेगा और निर्मल पानी हो जाएगा, आग का परावर्तित रूप।

जो अब भी आँखों में झिलमिला रहा है। ये कहते हुए कि पानी बनना ठीक है पानी बनो और समय के साथ बह जाओ, यहाँ आग केवल और केवल ख़ुद को ही जलाती है।”

         जगराना नटिन आज फिर अपने ४० सदस्यों के बेड़े के साथ सफ़र पर है, सफ़र कोई यात्रा नहीं है, ये ऐसी यात्रा है जो उसकी सात पीढ़ियों से सतत जारी है और जारी है वो संघर्ष, जिसके दायरे में आती है सबसे बड़ी आग; ये कोई आम आग नहीं! ये आग है पेट की! भूख की!!

     ये यात्रा थके हुए रंगों भरे सफ़र के बाद अपना डेरा डालेगी। इस डेरे का अगला पड़ाव अब कोई गाँव या नगर नहीं है, क्योंकि लोग अब नटों का करतब देखने के बजाय तरह-तरह के नए मनोरंजन में डूबे हैं, मजबूर नटबेड़िया जाति अब मज़दूरी करने पर उतर आयी है, एक और भी कारण है उनके मज़दूरी करने का कि वे भिखारी नहीं हैं, वे करतबी लोग हैं, अब अगर लोग उनकी कला नहीं देखना चाहते तो क्या वे भिखारी बन जायँ, कुछ नट कुनबों ने धंधा छोड़ के भीख माँगना प्रारम्भ किया तो लोग उन्हें भिखारी कहकर दुत्कारने लगे, सामाजिक अवहेलना और हिक़ारत देखकर जगराना ने अपने कुनबे को गुरूमंत्र दिया कि हम भीख नहीं माँगेंगे हम सीना ठोंककर काम करेंगे और एक दिन इसी समाज में अपना हक़ लेकर अपने बच्चों को ज़िंदगी जीने की मुख्यधारा में शामिल करेंगे। 

    इसी व्यवस्था को तलाशता ये खानाबदोश लोना कुनबा आज शुगर मिल के अहाते में डेरा डालेगा। अभी तक यहाँ से २५ किमी दूर एक छोटे क़स्बे में एक अस्पताल में क़रीब छः महीने से ये लोग मज़दूरी कर रहे थे कि अचानक कुनबे की उम्रदराज मुखिया जगराना का फ़रमान ज़ारी हुआ कि अब हम दूसरी जगह डेरा डालेंगे। वहीं अस्पताल के प्रांगण में ही उसे किसी ने नई शुगर मिल बनने की बात बताई और मिल के मालिक को अपना मित्र बताकर बात करवा दी। लोना कुनबा अब मिल प्रांगण में निवास बनाने में लगा हुआ है। 

     पचहत्तर बरस की पतली दुबली सामान्य क़द-काठी की जगराना केवल महिला ही नहीं वे नटों में मातृसत्ता की परिचायक हैं, नटों के बड़े कुनबे को उठाए उनकी खोपड़ी, जो चाँद पर पूरी तरह गंजी है, कहते हैं कि पहले बहुत सुंदर घने बालों वाली थी, अब बिन आदत के ईंट ढोने से वो गंजी हो गई है, वे श्रम की ठेकेदार हैं, न कि शारीरिक सुंदरता की, हालाँकि नटिनें अपनी सुंदरता से जाने कितने राहगीरों, सहश्रमियों, यहाँ तक कि बड़े-ऊँचे ओहदेदारों को अक्सर घायल करती रहती हैं, पर मजाल है, जगराना की नज़र से कोई शिकारी बचकर निकल जाय। उनकी जवानी की किस्सागोई कुनबे की अगली जमात के लिए मनोरंजन के साथ ही प्रेरणा भी है, 

जगराना की नज़रों और कानों से बच के कुनबे में किया जाने वाला कोई भी काम चोरी है, वे कर्मकांडों और झाड़-फूँक में भी माहिर हैं, झाड़-फूँक करने तो वे दूर तक बुलाई जाती हैं, इसके अलावा बच्चा होने पर दाई का काम भी बड़ी सुघड़ता से करती हैं, उनकी देखरेख में जच्चा-बच्चा का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। क्या पढ़े-लिखे, क्या धन्नासेठ उनके हाथों में जाने कौन सा जादू है? कि लोग उन्हें अपनी गाड़ी में बिठाकर ले जाते हैं।

 कहते हैं एक बार उनका डेरा रास्ते से गुज़र रहा था और लोनीकोट के राजा की गाड़ी भी उधर से ही गुजर रही थी, गाड़ी में चीत्कार मचा हुआ था। राजा आगे गुमसुम और उदास बैठे थे, रानी अपनी गोद में नवजात राजकुमार को लिए रो रही थी, पूँछने पर पता चला कि रानी के कोई औलाद नहीं थी पंद्रह साल बाद वे गर्भ से थीं, डॉक्टर के यहाँ इलाज चल रहा था, पर ये बच्चा सत्वासा पैदा हो गया और अब बचने की कोई संभावना नहीं है, डॉक्टर ने हाथ लगाने से मना कर दिया। और अब वे लोग राजमहल लौट रहे हैं।

   राजा-रानी के दुःख से मर्माहत जगराना ने अपने मंत्रों और जड़ी-बूटियों से राजकुमार की देंह में जान पहना दी थी, उस दिन राजा और रानी ने उन्हें १०० बीघे ज़मीन और जीवन भर के लिए उनके समाज को गोद लेने की पेशकश की थी लेकिन जगराना ने हाथ जोड़ लिया था बच्चे की जान के बदले वो राजा साहब के सामने झुक गई थीं। राजा ने उसी दिन उनके कुनबे का नाम लोना कुनबा रख दिया था, वो दिन और आज का दिन पूरे नट बिरादरी में जगराना के कुनबे को ख़ास इज़्जत थी, किसी की मज़ाल नहीं थी कि जगराना पर कोई उँगली उठा सके। न पुरुष न स्त्री कोई भी उनके प्रभुत्व को आज तक कम नहीं कर पाया।

    मुखिया होने के साथ-साथ वे कुनबे की तीसरी सबसे बुजुर्ग भी हैं, साथ में मायके का पूरा परिवार रहता है, तो ससुराल से देवर और ननद भी सहचरी हैं। उन्हें जगराना का शासन बर्दाश्त नहीं इसलिए वे चलते तो साथ ही हैं लेकिन अपना डेरा जगराना की नज़रों से बचने के लिए कुनबे से अलग ही बनाते हैं। जोमई नट जगराना का सगा भतीजा है, जिसके तीन बेटियाँ और दो बेटे ४० सदस्यों की मंडली का हिस्सा हैं, वहीं जगराना की बहन का पूरा परिवार वर्षों पहले से जगराना को अपना मुखिया मान चुका है, बड़ी बहन की सबसे बड़ी बेटी साकिया जगराना के बाद मुखिया का दायित्व निभाती है।

    कहने को तो मंडली का मूल निवास नेपाल और भारत की सरहद पर है कहीं, लेकिन हैं वे खानाबदोश ही, जहाँ जाते हैं,वहीं तम्बू गाड़ के चार-पाँच अलग-अलग झुग्गियाँ बना लेते हैं, एक झुग्गी में ५ या ६ लोग साथ-साथ रहते हैं, दस साल से कम उम्र बच्चों की कोई गिनती नहीं होती, वे कहीं भी चाची, मौसी, ताऊ, फूफा किसी के साथ रह सकते हैं, खा सकते हैं, सो सकते हैं। राशन और अन्य खर्चा हर सदस्य का अपना-अपना है। अपनी-अपनी झुग्गी का अपना-अपना राग बजता रहता है। 

       उनके कुनबे में मनुष्यों का जमावड़ा तो है ही, जानवर भी अपने रिश्तेदारों से बंधे हुए हैं, एक बूढ़ी भैंस के परिवार में तीन भैंसों के अलावा चार जवान भैंसें, तीन पंड़ा और पाँच पड़ियाँ हैं, तो दो बूढ़े कुत्ते, तीन बूढ़ी कुतियों के साथ-साथ जवान कुत्तों-कुतियों और उनके पिल्ले-पिल्लियों की बाढ़ है और तो और पंछियों में मुर्ग़ा-मुर्गी तो इतने हैं कि एक दड़बे की ज़रूरत पड़ती है, जिससे स्थानांतरण में उन्हें आसानी रहती है, हाँ मेहमान के तौर पर तरह-तरह के पंछी उनके डेरे पे उड़ते ही रहते हैं।

          ऐसे पंछी अक्सर कुनबे पर मंडराते हैं, और किसी सुंदर नए गुलाबी पंखों वाली मुर्गी को अपने सुनहरे पंखों का फड़फड़ाना दिखाते हैं, कभी-कभी आसमानी कलाबाज़ी के करतब का प्रदर्शन मुर्गियों के दिल को इस कदर घायल कर देता है, कि मुर्गियाँ उन पंछियों के बराबर उड़ तो पाती नहीं पर उड़ते हुए पंछी के साथ दौड़ने की लालसा नहीं छोड़ पातीं। फड़फड़ाकर उड़ना, फिर दौड़ना, फिर उड़ना, फिर दौड़ना उन्हें अनजाने छोर तक पहुँचा देता है, कुछ क्षण के लिए आसमानी सुनहरा पंख, गुलाबी कोमल पंखों का सहचर होना, एक फूलों वाली शाखा पर घोंसला बनाने का स्वप्न दिखा जाता है।

     स्वप्न का क्या कहें? स्वप्न में बने घोंसले रहने के समय अक्सर तितर-बितर ही हो जाते हैं। भाग-दौड़कर कितना भी समेटो वे बनते ही नहीं, एक सिरा बनता है तो दूसरा उधड़ ही जाता है, एक तिनके के पीछे भागते-भागते स्वप्न में बना हुआ घोंसला इतनी दूर हो जाता है कि लौटने पर रास्ते ही आपस में गड्ड-गड्ड आँड़े-तिरछे नज़र आने लगते हैं, अब या तो उन गड्ढों में उतरो या किनारे से निकल लो या फिर लौट लो, पर कहाँ? स्वप्न पीछा भी तो नहीं छोड़ता, वो जड़ से हिलाता है, तोलता है, मोलता है फिर झट्ट डंडी मार अपने तराज़ू में दोबारा चढ़ा लेता है और पुतलियों में बिंधा हुआ, अपने मन मुताबिक टका-सेर के भाव तोलता हुआ चलता है, करे तो क्या करे? ऐसे स्वप्नों का स्वाद ही इतना निराला होता है कि उड़ भले न पाओ पर प्यासा मन उड़ान पर जाने की लालसा नहीं छोड़ पाता। 

    कभी-कभी स्वप्नों की दुनिया के चोचले से अनजान कोई मासूम गुलाबी परिंदा जब स्वप्नों के दलदल के सागर में बह जाता है और गहरे तक उतर, डूबता-उतराता फँस जाता है, तो उसे कोई चंचल गोल्डन फ़िश नहीं बचा पाती उसे फिर धारदार दाँतों वाली शार्क सरीखी कोई चैतन्य मछली ही शिकारी से बचाने का उपाय कर पाती है, अब शार्क मिल गई तो ठीक नहीं तो फिर सागर का लाल होना तय है।

         आज की भोर जगराना के आसमान के सागर को लाल होने से बचा गई है, पर शोर है कि सागर का पानी लाल होने वाला है, अब ये लाल पानी किसके लहू से होगा? गुलाबी पंखों के नुचने से या आसमानी सुनहरे पंखों के कटने से या कुछ और। चढ़ता हुआ सूरज अपना ताप और चढ़ाने को आतुर है, वहीं रात को चढ़ा चाँद देहरी पर उतरकर अपनी शीतल छाँव से सूरज की किरणों को ओस की बूँदों की मालिश दे रहा है, देखते हैं मालिश शीतलता देती है या रगड़ से और गर्मी बढ़ा जाती है।

    इससे पहले लाल पानी के सागर की तेज लहरें फटाफट गिरें और अपने छींटे से जगराना के कुनबे को लाल करे, साकिया ने मोर्चा संभाल लिया है, उसके ज़िंदा रहते कुनबे पर लाल छींटें!! किस चिरौटे ने उड़ती चिड़िया की छाती का दूध पिया है? साकिया खानाबदोशी कुनबों की शान, जगराना के बाद शासन सत्ता की उत्तराधिकारी है।

      मर्दाना डीलडौल पर लटकती रूखे भूरे बालों की दो लम्बी चोटी, चोटी में धागे की गुँथी काली चौरी, चौरी में लटके, लाल-पीले-हरे-नीले चार-पाँच लटकनों में, जानवरों के छोटे बजनूदार घुँघरू और मुँह में परमानेंट भरी पान मसाले की पीक साकिया की पहचान है, एक बोलोगे, चार पाओगे का हिसाब जेब में रखकर चलती है। बोलकर तो कोई भी माई का लाल आज तक निकल नहीं पाया है, चार खसम ऐसे ही नहीं छोड़ दिए हैं, फिर भी कोई परवाह नहीं, जब चाहेगी मिन्टों में नया खसम ढूँढ लेगी, चैलेंज है! कर के देख लो! तीसरे वाले ने किया था और एक घंटे में बिना साकिया के हो गया था। अब ये चैलेंज ही चौथे को डरा रहा है, नहीं तो अब तक साकिया के चरणों में पाँचवा भी गिर चुका होता।

    ढीली स्त्रियाँ कुनबे को ढीला कर देंगीं, किसी भी तरह का ढीलापन उसे बर्दाश्त नहीं। मौसी का ज़माना जा रहा जो शीतल लेप से काम चल गया। साकिया के हिस्से की बागडोर में आग की लेपन है, और ये आग लाल बूँदों को भस्म करेगी, ऐसी लाल बूँदें उसने अपने अड़तीस बरस के बसंत में कभी भी लपटों पर नहीं पड़ने दी है, जब भी लाल बूँदें उसके कुनबे की आग के ऊपर पड़ने को आतुर होती, वो पहले तो मौसी के शीतल लेप से शांत की जातीं, और जब लेप शिथिल हो जाता, तो उस पर रोगन होता है, आग का।

       लाल छींटे आज फिर शीतल लेप की ड्योढ़ी लाँघकर झुग्गियों की ड्योढ़ी पर दस्तक दे रहे हैं, मातृसत्ता में चीत्कार है, झुग्गियों की ड्योढ़ी पर साकिया का शासन भविष्य में होने वाला है, उसकी सत्ता को कौन गीदड़ चुनौती देकर चला गया है? उसे कोई सच क्यों नहीं बता रहा? आख़िर मसला क्या है? मौसी किसको बचाना चाह रही है और क्यों? किसके सतीत्व का हनन हुआ है? उसके कुनबे में ऐसा तो कभी नहीं हुआ, अगर कभी कुछ हुआ है तो न्याय हुआ है, आज जगराना के शीतल लेप का बस इतना असर हुआ है कि कुनबे में वितरित होने वाला सूरज का ताप ढलकर शाम में ढल गया है, हर झुग्गी के आगे पानी का छिड़काव हो चुका है, मच्छरों को भगाने के लिए भूसे और पुआल को जगह-जगह जला दिया गया है,चिड़ियाँ घोंसले में जा चुकी हैं, उन्हीं के साथ भैंस कुनबे ने चारा ठूँसने के बाद पानी पीकर जुगाली भर ली है, अब वे टट्टर के नीचे बैठकर आराम से मच्छर उड़ा-उड़ा के पगुराएँगे, कुत्ते जाने कहाँ से एक गट्ठर खून सनी लत्ते की गठरी और जानवरों की हड्डियाँ खींच लाए हैं, चीर-फाड़ जारी है, बीच-बीच में हिस्से और अधिकारों का भौंकना भी जारी है, नन्हें पिल्लों को भी अपना हिस्सा माँगने के लिए दूर से ही महीन कीं-कीं और कभी-कभी भुक्क में बोलना पड़ रहा है, मुर्ग़े दरबे में बंद हैं, उनकी बाँग तो सुबह की गिरवीं है, हाँ कभी-कभी पंख फड़फड़ाने के साथ-साथ कुकड़ूकूँ का छोटा सा शोर एक साथ सुनाई पड़ जाता है, फिर अपने आप शांत हो जाता है। सभी कुछ स्थिर है, बस लाल छींटे की ख़बर फुसफुसाहट में तारी है, लम्बे बाँस के खम्भे पर लगा जो बल्ब टिमटिमा रहा है, उसके चारों तरफ़ गुजिया कीड़ों ने घेरा बना रखा है कि रोशनी ऐसे छन कर आ रही है जैसे दीवाली की दुपदुपाती झालर। किसी-किसी ने कंटिया जोड़कर एक बल्ब अपनी झुग्गी में भी लगाया हुआ है, पर ये क्या? 

“बिजली तो फिर गुल्ल हो गई।”

 जोमई की मँझली बेटी किशोरी ज़ोर से चिल्लायी, 

उसका चिल्लाना था कि एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा और आवाज़ आई, 

“बिजली तो गुल हुई पर तू जल रही है और हमें भी जला रही है।”

थप्पड़ की चोट को ड्योढ़ी पर ही छोड़ किशोरी सट्ट अपनी झोपड़ी में घुस गई।

  किशोरी तो झोपड़ी में चली गई पर साकिया की पैनी नज़र से न बच पाई, वो भाँप गई कि जोमई उससे कुछ छिपा रहा है, जो सुबह से सरगोशी चल रही है कुनबे में, उसका संबंध किशोरी से ही है। उसने आव देखा न ताव जगराना की खाट पर जाकर बैठ गई और अपने हाथ में बँधा ताबीज़ निकालने लगी, जगराना चिल्लाई, 

“ ये क्या कर रही? कुनबे का सत्यानाश करवाएगी क्या? जानती नहीं इस ताबीज़ में हमारे पुरखों की शक्तियाँ बँधी हैं, मेरे ज़िंदा रहते ऐसे सोचना भी मत! जानती नहीं, मेरे बाद तू और तेरे बाद इस कुनबे को कोई नहीं संभाल पाएगा।”

“ऐसे मैं कुनबे को सत्यानाश होने से क्या बचा पा रही हूँ? जब मुझे होनी-अनहोनी का ज्ञान ही नहीं होगा तो मैं क्या ख़ाक बचाऊँगी कुनबा? अब तो यहाँ मुझ ही से बातें छुपाई जा रहीं।”

“पहले यो ये बता कि आज सुबह से ही तू इतनी क्यों परेशान है? क्यों इतना ज़्यादा सोच रही है? रात तू कहाँ थी? वो तो छबीला जाग गई किशोरी को बगल में न देख, उसने अपने बाप को बताया फिर मैं और वह दोनों टॉर्च लेकर गए, अंधेरे में कुछ दिख नहीं रहा था, मैंने तेरी झुग्गी की तरफ़ झाँक कर देखा तू हमें दिखी ही नहीं तो हम दोनों ही चले गाए हमनें देखा कि सामने की बिल्डिंग के कमरे के दरवाज़े से किशोरी निकल रही थी हम बिल्कुल उसके सामने खड़े थे, वो ससुरी मरती क्या करती? पकड़ तो गई ही थी सो चुप्प आकर अपनी झुग्गी में दुपक गई, हमने लाख पूँछा लेकिन उसकी ज़ुबान न खुली। हम ये नहीं पता कर पाए कि उसके साथ कौन था?”

बताते-बताते जगराना बीच में ही चुप हो गई।

“जगराना तो चुप हो गई पर साकिया की आँखों से अंगार निकलने लगा और वो थर-थर काँपकर चिल्लाने लगी।

“ऐसा कैसे हो सकता है मौसी कि तेरे सामने कोई चुप रह सके, तूने क्यों नहीं पूँछा उससे? कमरे में उसके साथ कौन था? तुझे पता है, बोल मौसी! जल्दी बोल कौन था इसके साथ? तुझे सब पता है। मेरा कलेजा फटा जा रहा। तू मुझसे ज़रूर कुछ छिपा रही है।”

साकिया चिल्ला रही थी वहीं जगराना एक चुप्प कि हज़ार चुप्प थी। वो जानती थी कि साकिया कुछ भी बर्दाश्त कर लेगी पर लड़की की इज्जत के लिए क़ुर्बान हो जाएगी! 

   साकिया ने मौसी को कभी इस तरह चुप्पी साधे नहीं देखा था वो अचंभित थी कि आख़िर कौन है? जिसके लिए मौसी का खून नहीं खौल रहा। उसने जगराना को ज़ोर से पकड़कर झिंझोड़ा और बड़ी तेजी से झटका देते हुए उसके हाथ का ताबीज़ नोंचा और आसमान की तरफ़ उछाल दिया और इतनी ज़ोर से चिल्लाई कि, 

“तेरे हाथ पर ये लोना ताबीज़ अब शोभा नहीं देता मौसी।”

शोर सुनकर लोना कुनबा इकट्ठा हो, चारपाई को घेर कर खड़ा हो गया,

“क्या हुआ? क्या हुआ?” के शोरगुल में भी जगराना मौन थी।

   आसमान में काली अँधेरी रात का घना साया नट कुनबे पर गहराता जा रहा था, दो सत्ताधारी स्त्रियों में, एक वाचाल हुई जा रही थी तो एक मौन साधना किए हुए थी मौन का कुरूप रूप तब और कुरूप हो गया जब घेरकर खड़े होने वाले लोग अत्यधिक वाचाल हो-हो चिल्लाने लगे। 

   आख़िर बोलती क्यों नहीं? कौन है? जो हमारे कुनबे की इज़्ज़त क्षीण करना चाहता है। सबकी सुनते-सुनते जगराना की चुप्पी आख़िरकार टूट गई और आँचल को मुँह में ठूँसते हुए बोली कि, 

“एक-दो दिन रुक जाओ, जब कुत्ते भौंकेंगे और गिद्ध मण्डराएँगे तो सभी को पता चल जाएगा कि कल रात किसने आँख उठाई थी? तुम लोगों को नहीं याद पर मुझे साकिया कि इज़्जत लूटने पर ली गई, अपनी क़सम अभी भी याद है कि अगर बदला नहीं ले पाई तो मेरी लाश ही निकलेगी।”

“तो क्या? तो क्या?” सब एक साथ चिल्ला पड़े।

“कहा न! अगर कुत्ते और कौवे सुराग न दे पाए तो चीलें हमारे आकाश में ज़रूर उड़ेगी। हाँ! तुम सभी सुन लो! कल मैं कुछ दिनों के लिए बाहर जा रही हूँ।”

     सुबह हो गई थी, मुर्ग़े बाँग देकर चुप हो गए थे, पूरे लोना कुनबे में गहरा सन्नाटा था। पर सबकी निगाहें आसमान में मँडराते गिद्धों और चीलों को ढूँढ रही ही थीं, दो दिन और दो रात बीत गई परंतु वे नहीं दिखाई दिए।तीसरे दिन की सुबह हो गई थी सूरज की पहली किरन फूट रही थी कि अचानक कुत्तों ने तेज-तेज भौंकना शुरू कर दिया। तीन-चार नट उसी तरफ़ दौड़े तो पता चला कि झाड़ियों में मांस के टुकड़े पड़े हुए हैं, बदबू आ रही है, ये ख़बर सुनते ही साकिया अपनी ओढ़नी सम्भालती हुई दौड़ पड़ी, उसको जगराना की हक़ीक़त पता थी, वो जानती थी कि जो आग १४ बरस की उम्र में उसके जिस्म पर लगाई गई थी, वही आग मौसी के जिस्म पर भी १४ बरस की उम्र में अपना निशान छोड़ गई थी और अब चौदह बरस में किशोरी भी चल रही है, फ़र्क़ बस इतना है कि मौसी की आग उनके माँ-बाप ने समाज के डर से बुझवा दिया था जबकि उसके जिस्म में लगी हुई आग ख़ुद मौसी ने पानी डालकर बुझा दी थी, पर किशोरी की आग को तो मौसी को ही चिता देनी थी आख़िर ऐसी आग को बुझाना भी तो बहुत कठिन होता है जिसकी चिंगारी अपनी ही हो। 

    सोचते-सोचते वह झाड़ियों की तरफ़ बढ़ रही थी कि थोड़ी दूर जाते ही उसे जगराना की फटी ओढ़नी दिखाई दी और ओढ़नी से झाँकतीं दो उँगलियाँ भी। वह सनक कर मौसी-मौसी चिल्लाते हुए दौड़ने लगी। 

    अचानक से पैदा हुए वहम की तस्वीर, उसके सामने जगराना के क्षत-विक्षत शव के रूप में पड़ी हुई थी, वह कटे पेड़ की तरह चिंघाड़ मार कर गिर पड़ी, चील-कौवे पहले से ही मँडरा रहे थे, वे अपनी लय में लहरा-लहरा मँडराते रहे। उसके चिंघाड़ने की आवाज़ सुन कुत्तों का भौंकना मंद पड़ गया था, अब केवल और केवल भौंक रही थी तो पलक झपकते बदला लेने वाली साकिया। साथ में लोना कुनबा भी पिल्लों की तरह मिमिया रहा था।

जिज्ञासा सिंह