गुलमोहर से इश्क़

   “उदास बैठी तुम अच्छी नहीं लगतीं ।”
“उठो ।”
“होठों पे गाढ़ी गुलाबी लिपस्टिक लगाओ कहीं घूम कर आते हैं। तुम्हारे ऊपर गुलाबी रंग बहुत खिलता है ।"
"मन नहीं है यार !”
“चलो न ।”
“दरिया के किनारे बैठते हैं । वहाँ पे किनारे बेंच के पीछे वो जो गुलमोहर का पेड़ है न देखना उससे तुम्हें इश्क़ हो जाएगा ।”
“इतना खिला है कि कुछ कहने को नहीं ।”
“कई दिनों से देख रही हूँ जितनी गर्मी की तपन बढ़ रही है, उतना वो खिल रहा है ।”
 “कल देखा था क़यामत ढा गया मुझपे ।”
 “अब आज तुम्हारी बारी है । हो क्यों न ?”   
“तुम भी तो किसी की आग की तपन में झुलस रही हो”
“और जब दो लोग एक जैसी मनःस्थिति में तपते हैं, झुलसते हैं, तपी हुई जड़ों से फूटकर कोपल बन, फिर से उगते हैं,  खिल उठते हैं, तो उनमें इश्क़ हो ही जाता है ।”

**जिज्ञासा सिंह**

14 टिप्‍पणियां:

  1. एक सी जलन, एक सी तपन, एक सी घुटन, हो तो गुलमोहर नहीं उगते, कैक्टस उगते हैं.

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    1. जी, आपसे विनम्र आग्रह है, कि फिर से पढ़िए आदरणीय सर ! सन्दर्भ गुलमोहर के खिलने का नहीं, तपकर खिलने का है👏🏻

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  2. वाह! मुझे आपकी इस लेखनी से इश्क़ हो गया है।
    अति सुन्दर
    सादर

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  3. आपकी प्रशंसा शिरोधार्य है । नमन आपको ।

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  4. गुलमोहर के बिम्ब से तपन को खूब कहा है ।
    नव सृजन की संभावना रहती है । बहुत खूब ..... वैसे गुलमोहर से तो यूँ ही इश्क़ हो जाता है ।

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  5. बहुत बढ़िया प्रस्तुति, जिज्ञासा दी।

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  6. नाम नहीं दिख रहा । बहुत सारा स्नेह ।

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  7. बहुत ही सार्थक ललित गद्य,,, मन की समान व्यथा को जीते,,, , पिघल कर बहते,,,,, एकरस होकर मरते,,,,, मर कर फिर जी उठते नई कोपल नये किसलय का नाम ही तो है मुहब्बत...

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  8. आपका बहुत बहुत आभार मेरे इस ब्लॉग को भी अपना कीमती समय देने के लिए। टिप्पणी का स्वागत है।

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