गुलमोहर से इश्क़

   “उदास बैठी तुम अच्छी नहीं लगतीं ।”
“उठो ।”
“होठों पे गाढ़ी गुलाबी लिपस्टिक लगाओ कहीं घूम कर आते हैं। तुम्हारे ऊपर गुलाबी रंग बहुत खिलता है ।"
"मन नहीं है यार !”
“चलो न ।”
“दरिया के किनारे बैठते हैं । वहाँ पे किनारे बेंच के पीछे वो जो गुलमोहर का पेड़ है न देखना उससे तुम्हें इश्क़ हो जाएगा ।”
“इतना खिला है कि कुछ कहने को नहीं ।”
“कई दिनों से देख रही हूँ जितनी गर्मी की तपन बढ़ रही है, उतना वो खिल रहा है ।”
 “कल देखा था क़यामत ढा गया मुझपे ।”
 “अब आज तुम्हारी बारी है । हो क्यों न ?”   
“तुम भी तो किसी की आग की तपन में झुलस रही हो”
“और जब दो लोग एक जैसी मनःस्थिति में तपते हैं, झुलसते हैं, तपी हुई जड़ों से फूटकर कोपल बन, फिर से उगते हैं,  खिल उठते हैं, तो उनमें इश्क़ हो ही जाता है ।”

**जिज्ञासा सिंह**

यादों के चलचित्र

"जीवन में अचानक कुछ भी छोड़ना बड़ा मुश्किल काम है ।"

"छोड़ने को तो बहुत कुछ छोड़ा जा सकता है पर.."

"सच्च ! सच कह रही हो माँ !"

"हाँ ! बिल्कुल सच । सच कह रही हूँ.. बेटा ।"

"एक सुंदर नई दुनिया भी बसाई जा सकती है ।" 

"कुव्वत भी होती है कई लोगों में.."

"हमारा सब कुछ किसी के बंधन में हो सकता है, परंतु हमारी सोच पर तो केवल और केवल हमारा ही अधिकार होता है न । छोड़ना सोच पर आधारित  फ़ैसला है.. और सोच पर किसी दूसरे का हक़ कैसे हो सकता है ?"

"हम तो बस अपनी स्मृतियों से बँधे होते हैं, बीते जीवन की खट्टी मीठी स्मृतियाँ अपने से अलग नहीं होने देतीं।
फिर उन्हें छोड़ना… जिसे आप अपना तन मन धन सौंप चुके होते हैं , और भी संघर्ष है ।"
 
"शायद तुम्हें पता नहीं कि सब कुछ छोड़ा जा सकता है सिवाय यादों के ।"

"सिवाय यादों के ! क्या मतलब माँ !"

    "मतलब ये है बेटा जी ! ये जो हमारे साथ चलता फिरता यादों का चलचित्र है न.. उसे छोड़ना बड़ा मुश्किल है । क्योंकि यादें हमारे अंतर्मन से जुड़ी होती हैं, और अंतर्मन तो साथ ही रहता है, हम उसे कहाँ छोड़ सकते हैं ।"

**जिज्ञासा सिंह** 

अजीब इत्तेफ़ाक है ?

 

 अरे शर्मिष्ठा तुम ! यहाँ कैसे ?

मैं तो यहाँ छः महीने से हूँ 

देखा नहीं कभी तुम्हें..कल ही फ़ोन पे माँ से कह रही थी मैंकि शर्मिष्ठा आजकल पता नहीं कहाँ है ?  जाने क्यूँ तुम्हारा ख़याल कौंध रहा था ? 

अरे यार ! जब तक दिल्ली में थीरोज़ राघव की वही किच-किच कि अगर तुम आगरा में जॉब कर रही होती तो माँ बेटी को सम्भाल लेतीतुम आराम से नौकरी करतीपर तुम्हें मेरी बात समझ ही नहीं आई । हम दोनों जॉब पर चले जाते थे और बेटी आया के हवालेइसलिए दिल्ली की जॉब छोड़ यहीं ज्वाइन कर लियाराघव दिल्ली में ही हैंअक्सर  जाते हैं  माँ हैंतो बड़ा सुकून है बेटी की तरफ़ से  उसको अच्छी तरह सम्भाल लेती हैंबेटी भी खुश है उनके साथ  ख़ैर अब अपनी भी कुछ सुनाओ तुम्हारे क्या हाल हैं  पतिदेव कैसे हैं ?

      क्या कहूँ यार ! मेरी तो कुछ उल्टी ही कहानी हैमैंने आगरे में जॉब ही इसीलिए ली थी कि बच्चों की देखभाल बाबा-दादी के पास अच्छी तरह होगीहम दोनों कम कमाएँगे पर माता पिता के पास रहेंगे 

मगर यहाँ मेरी सासू माँ जब से कॉलेज से रिटायर हुई हैं रोज़ चरस किए हैंकि तुम लोग अब बाहर निकलो आगरे से 

  हम रिटायरमेंट के बाद तुम्हारे बच्चे नहीं सम्भाल सकते  सारी उम्र नौकरी की है अब आराम से दुनिया घूमना चाहते हैंअब हम कोई नयी ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकते 

       उसी सिलसिले में ऑफ़िस से बात करके  रही हूँ  अवंतिका ने शर्मिष्ठा का हाथ पकड़ते हुए कहा..

..अरेऽऽ  शर्मिष्ठा कुछ सोचते हुए बोली एक जैसी समस्या पर तुम्हारा जाना और मेरा आना  अजीब इत्तेफ़ाक है ?


**जिज्ञासा सिंह**