बिट्टन की शादी में कम्मो बुआ के आते ही जो खसुर-फुसुर शुरू हुई वो विदाई के बाद भी रुकने का नाम नहीं ले रही।
कहीं नन्ही की अम्मा, तो कहीं बड़ी ताई जी, तो कहीं पिताजी की फुआ बराबर एक ही परिचर्चा कर रही हैं, कि "देखो जरा कम्मुईया को आदमी को गुजरे सालो नही बीता औ ई माथे पर बिंदी लगाए, पायल पहने घूम रही है, कौनो रीत रेवाज से इसे मतलब ही नाही है, देखो न चेहरा पै कउनो दुखो नहीं दिखि रहा, अब सहर से आई हैं, तो का एतनो नहीं जनतीं कि आदमी के मरे पे कौनो सिंगार नाही किया जात" ।
रेखा जिधर भी जा रही, यही प्रपंच उसे सुनाई दे रहा, आख़िर उसने देखा कि कम्मो बुआ छत के कोने में अकेली बैठी सुबक रही हैं, उससे रहा नहीं गया । वो दौड़ के उनके पास पहुँची और उन्हें समझाने लगी कि आप इतनी पढ़ी-लिखी होकर इन अनपढ़ी गंवार औरतों की बातों में आ गईं ।
आप खुद ही देखिए इनके हाल, ये सिवाय प्रपंच और बकवास के अलावा कुछ करती भी हैं और आप दिल्ली जैसे शहर में नौकरी करती हैं, वो भी ऑफिस में ।
इतना सुनते ही कम्मो रेखा के गले लग, फफक-फफक के रो पड़ी और कहने लगी कि मैं खुद ही बिंदी नहीं लगा रही थी, मगर मेरी सासू माँ ने पैरों में पायल और बिंदी लगा दी और बोलीं कि तेरी अभी उमर ही क्या है ? बेटा गया तो ये भगवान की मर्ज़ी थी, अब आज से तू ही मेरा बेटा और बहू दोनो है । तू अच्छे से रहा कर, जैसे पहले रहती थी। और यहाँ मेरे मायके वाले हैं, जिन्हें ससुराल वालों से ज्यादा साथ देना चाहिए, वो मेरा मजाक बना रहे हैं । मैं यहाँ अब कभी नहीं आऊँगी । मेरे ससुराल वाले शिक्षित और समझदार हैं । ये भ्रांतियाँ और कुरीतियाँ मेरे बस की नहीं ।
रेखा ने सहमति में सिर हिला दिया और बोली अभी जाकर इन सभी को ठीक करती हूँ, इतना लताड़ूँगी कि आइंदा इनकी ऐसी दकियानूसी बातें करने की हिम्मत नहीं होगी । और पापा को भी बताऊँगी सारी बात, पापा के नाम से तो ये प्रपंच करना भूल जाएँगी । जानती ही हो दीदी पापा कैसे हैं ? आशा की उम्मीद लिए दोनों बहनें दर्द भरी मुस्कराहट रोक नहीं पाईं, और मुस्कुराते हुए एक बार फिर एक दूसरे के गले लग गईं ।
**जिज्ञासा सिंह**
लखनऊ
बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति प्रिय जिज्ञासा जी। कम्मो बुआ जैसी लड़कियों को व्यर्थ की प्रताड़ना से, उनके ससुराल वालों के जैसे शिक्षित और जागरूक व्यक्ति ही निजात दिला सकते हैं। नितांत मूढ़ता और असभ्य आचरण की बदौलत ही सदियों से नारी अपनी ही कथित बिरादरी अर्थात नारियों द्वारा पीड़ित और प्रताड़ित रही है। पर शिक्षा द्वारा बदल रही सोच से धीरे-धीरे स्थिति बदलेगी और बदल भी रही है। सार्थक प्रयास के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और शुभकामनाएं आ
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा मेरी रचनाधर्मिता की प्रेरणा है,सदैव स्नेह देती रहिएगा ,मेरा विनम्र निवेदन है,असंख्य आभार और शुभकामनाएं प्रिय सखी ।
हटाएंबहुत ही मार्मिक लिखा है जिज्ञासा जी पर अब पहले से बहुत अंतर आगया है फिर भी देखने को कहीं न कहीं मिल ही जाता है।
जवाब देंहटाएंआपकी बात से सहमत हूं,दीदी परंतु गांवों में अभी भी ये चर्चा अक्सर देखने को मिलती है । आपकी विशेष टिप्पणी को सादर मन और आपको मेरा सादर अभिवादन ।
जवाब देंहटाएंआपकी यह लघुकथा निश्चय ही प्रशंसनीय है जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार जितेन्द्र जी, बस जीवन के अनुभवों को सहेजने का प्रयास जारी है ,आपको मेरा सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंसुंदर, सार्थक रचना !........
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बहुत बहुत आभार ।
जवाब देंहटाएंभावात्मक कहानी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय सर ।
जवाब देंहटाएंमार्मिक और सार्थक प्रसंग उठाया आपने आ0
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका 🙏
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