यात्रा संस्मरण- हमारे दिल में उतर गए नेपाली लाली गुराँस🥀🥀

यात्रा संस्मरण- हमारे दिल में उतर गए नेपाली लाली गुराँस🥀🥀








  1. यात्रा-संस्मरण- लाली बुराँश और मुक्तिनाथ की पुकार


फूलों की दुनिया भी बड़ी अनोखी है, जंगल में फूल, पहाड़ों में फूल, पानी में फूल तो रेगिस्तानों में भी फूल!


हम जंगल में खो जाएँगे, पहाड़ों में थक जाएँगे, पानी में डूब जाएँगे, रेगिस्तानों में जल जाएँगे लेकिन फूल… फूल मुस्कुराएँगे। हाँ… हमारी तरह नहीं वे अपनी तासीर के हिसाब से जगह का चुनाव करेंगे और हँसेंगे-खिलखिलाएँगे। 


हम उन्हें अपने हिसाब से खिलाना चाहेंगे, वे कभी नहीं खिलेंगे, खिलेंगे भी अगर, तो खुलकर नहीं, दबकर! हमारे तापमान में दबकर! 


फिलहाल फूलों को हमने अपने हिसाब से खिलाते-खिलाते उनका इस्तेमाल भी अपने हिसाब से करने की नियति बना ली है और आजकल तो हम अपने परिवेश, अपने वातावरण के अपने फूलों के बजाय विदेशी फूलों पर लालायित हैं। 


फूलों का संसार मुझे हमेशा से आकर्षित करता रहा है, मेरे निवास के आसपास वातावरण के हिसाब से मुझे गेंदा, गुलाब, चम्पा, चमेली, गुड़हल, कनेर, बेला, मोगरा आदि विभिन्न फूलों का सानिध्य मिला, अलबत्ता मुझे विदेशी फूल आकर्षित करते रहे, परंतु मेरे प्रिय, मेरे अपने पर्यावरण के अनुकूल वाले फूल ही रहे। हाँ! जब कहीं यात्रा-भ्रमण पर जाती हूँ तो वहाँ की परिस्थितिकी के मित्र फूल विशेष रूप से आकर्षित करते हैं। 


 यात्रा के क्रम में इस बार जाना हुआ नेपाल। नेपाल की मेरी यह आठवीं यात्रा थी। नेपाल अपने सुंदर हरे-भरे पहाड़ों, पत्थरों को आँचल में लपेटे बहती नादियों, दूध जैसे उजले झरनों, प्राचीन मंदिरों, मठों तथा मिलनसार-सहयोगी लोगों का देश है, राष्ट्र के स्तर पर कोई मतभेद हो सकता है परंतु मानवीयता के हिसाब से मुझे नेपाल बहुत आकर्षित करता है, ख़ासतौर से नेपाल का पहाड़ी क्षेत्र!


मैंने नेपाल की यात्राएँ अपने परिवार तथा मित्रों के साथ की हैं, यात्राओं की शुरुआत भारत-नेपाल बॉर्डर रूपैडीहा नेपालगंज से प्रारम्भ हुई जो कभी बढ़नी बॉर्डर तो कभी सोनौली बॉर्डर से होकर होती हैं।


दो बार से हमारी यात्रा बढ़नी बॉर्डर से हो रही है। चूँकि पिछले वर्ष हम नेपाल में स्थित भगवान विष्णु के  पौराणिक मंदिर “मुक्तिनाथ मंदिर” गए थे। 


मुक्तिनाथ मंदिर नेपाल के मस्तंग जिले में समुद्र तल से ३८०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित, हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ स्थल है, जहाँ भगवान विष्णु के साथ-साथ माता सरस्वती और माता लक्ष्मी की पूजा होती है, काफ़ी समय पहले हमें हमारे नेपाली मित्र से, इस मंदिर की महत्ता के साथ-साथ यहाँ जाते समय मार्ग की नैसर्गिक सुंदरता का वर्णन, इतना विविध और रोमांचक लगा कि हमने वहाँ जाने की योजना बनाई।


पिछले वर्ष हम जून के प्रथम सप्ताह में वहाँ गए थे जबकि इस वर्ष मध्य जून में जा पाए। पहली बार तो हम गूगल बाबा और मित्रों की मदद से गए थे, परंतु इस बार हम दोबारा आध्यात्मिक और नैसर्गिक आनंद की अनुभूति लिए बिना कोई नई जानकारी लिए पुराने चिरपरिचित मार्ग से चल दिए। दोनों बार की यात्रा हमने हमारी अपनी ही गाड़ी से की और ड्राइवर भी हमारा ही था।


लखनऊ से बढ़नी बॉर्डर हम लगभग तीन घंटे में पहुँच गए, वहाँ भनसार जैसे आवश्यक काग़ज़ात बनवाने के बाद हमारी नेपाल की यात्रा प्रारम्भ हो गई थी। चूँकि गाड़ी हमारी सेवेन सीटेड थी और ड्राइवर लेकर हम पाँच लोग थे, अतः मैंने अपना ठिकाना सबसे पीछे वाली डबल सीट पर बनाया, कारण था कि कुछ दिन पहले ही मैं वायरल से उठी थी जिसकी वजह कुछ-कुछ शारीरिक परेशानियाँ थीं और पीछे की सीट पर मैं आराम से अपने पैरों को फैलाकर, योगा कर सकती थी, पढ़ सकती थी, इसके अलावा सारा खाने का सामान भी मेरी पहुँच में था, चुपचाप निकालो और खा लो.. आगे वालों को कोई ख़बर नहीं। मैंने अपनी सारी दवाइयाँ, पढ़ने के लिए कहानी की एक क़िताब और छोटे तकिए, अपनी यात्रा को सुविधाजनक बनाने का लगभग हर छोटा सामान अपने आजू-बाजू बने छोटे आलों के अलावा आस-पास रख लिया। वैसे हम लोग ज़्यादा लगेज़ लेकर चलने के आदी नहीं हैं, अतः गाड़ी में ख़ाली जगह, वापस लौटने तक बनी रहती है।


फ़िलहाल यात्रा चालू हो चुकी थी। मैं पीछे बैठी अपनी खुटुर-पुटुर किए जा रही और पीछे की छोटी खिड़की से बाहर के नज़ारे का भरपूर आनन्द लिए जा रही, बीच-बीच में अपने मुँह के साथ-साथ सभी के मुँह को मीठा-खट्टा भी करा रही। 


ये एक और बात है कि अपना मुँह ज़्यादा मीठा कर रही। बढ़नी के बाद हमारा अगला पड़ाव, नेपाल की आर्थिक राजधानी बुटवल में पड़ा, जहाँ हमने केवल रुकने के वास्ते रात गुजारी और दूसरी सुबह नौ बजे सीधे पोखरा के लिए निकल लिए, पोखरा काठमांडू के बाद नेपाल का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण वह स्थान है जो सैलानियों को अति प्रिय है, खैर! पोखरा हम शाम के छः बजे पहुँच गए, अपने होटल में सामान व्यवस्थित करने के बाद हम पोखरा की प्रसिद्ध फेवा झील की तरफ़ निकल गए, वहाँ से पोखरा की मार्केट की सैर की खाना खाकर अपने होटल लौट आए, पोखरा के बारे में फिर कभी लिखूँगी।


 हमने पोखरा में अपनी रात गुज़ारी और सुबह मुक्तिनाथ जी जाने की तैयारी में लग गए। चूँकि मुक्तिनाथ जाने का मार्ग संरक्षित जगह में आता है, तो वहाँ के लिए परमिट लेना पड़ता है, हमने अपने होटल मैनेजर की मदद से परमिट के साथ-साथ सारे आवश्यक काग़ज़ात बनवाए और नाश्ता करने के उपरांत अपने असली गंतव्य की तरफ़ रवाना हो गए।


पोखरा से मुक्तिनाथ जाने का मार्ग बहुत ही दुर्गम है, परन्तु हम अभी पिछले साल वहाँ की एक नैसर्गिक यात्रा कर चुके थे तो हमारा रोमांच चरम पर था, हमारी गाड़ी के पोखरा छोड़ते ही हम हिमालय रेंज और पोखरा के बीच वैली में बसी बस्ती के बीच से गुजरते हुए हाईवे पर पहुँच चुके थे और उस खूबसूरत गाँव या कॉलोनी, जो भी कह लें, जो हमारी सड़क के दोनों तरफ़ बराबर से हमारे साथ चल रहे थे, उनकी सुंदरता का वर्णन केवल और केवल आँखें महसूस कर सकती हैं, लिखना तो आवश्यक समझ कर लिखा जा सकता है, कतार से बने हुए नेपाली सभ्यता का परिचय देते सुंदर कॉटेजनुमा घर, उन घरों के आगे ख़ूबसूरत फूलों की लतरें, गमलों में सजे हुए सुर्ख रंगों के विभिन्न फूलों की सजावट आपका मन मोह लेती है, साफ़-सफ़ाई तो इस कदर कि मन करे कि उसका हाथ ही चूम लूँ जिसने इस धरती को स्वर्ग की तर्ज पर सजाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। कई जगह हमने देखा कि स्त्रियाँ एक हाथ में कूड़ा उठाने का पैन और दूसरे हाथ में छोटे-छोटे चौकोर टिन की पत्ती से नालियाँ-दीवारें खुरच-खुरच साफ़ कर रही हैं और पैन में कूड़ा रख रही, कहीं रंच मात्र भी गंदगी है तो उसे ख़त्म करनी है, कूड़े से कोई समझौता नहीं। यही कारण है कि उनके लगाए फूल-पौधे साफ़-सुथरे क़रीने से सजे हुए, रास्ते से ही दिख जाते हैं।


हम जिस लालच में मुक्तिनाथ लगातार दूसरे साल जा रहे थे, उनमें पौराणिक मुक्तिनाथ जी के दर्शन के साथ-साथ पोखरा से मुक्तिनाथ मार्ग के एक तरफ़ बहती काली गंडक तो दूसरी तरफ़ दुर्गम और खूबसूरत पर्वत श्रृंखलाओं को देखने की लालसा थी। इस यात्रा के दौरान हमारी सड़क के किनारे जो भी दर्शनीय स्थल पड़ते हम वहाँ पर रुक रहे थे और वहाँ के सुंदर दृश्यों का आनंद लेने के पश्चात आगे बढ़ रहे थे और हमारे साथ ही बढ़ती जा रही थीं अन्नपूर्णा और धौलागिरी पर्वत श्रृंखलाओं की मनमोहती चोटियाँ। हम कभी घाटी तो कभी पहाड़ तो कभी घने सुंदर चीड़-देवदार के जंगलों से रूबरू हो रहे थे, तो ख़ूबसूरत नेपाली गाँवों, गाँवों की झलकती संस्कृति से आनंदित भी हो रहे थे। हमारा सबसे ख़ूबसूरत पड़ाव कुछ इस तरह आया जिसने हमें, हमारी इस यात्रा को हमेशा के लिए यादगार बना दिया। 


   दोपहर के डेढ़ बज रहे थे हम लोगों ने निर्णय किया कि कहीं रुककर कुछ खाते हैं, बच्चों ने गूगल से पता किया तो उसने बताया कि हमसे कुछ ही आगे एक अच्छा रेस्तराँ है, जहाँ नेपाली तथा चाइनीज़ व्यंजन बढ़िया मिलेगा। चूँकि हम सबको भूख ज़्यादा नहीं थी तो हमने उतरते ही चाय और कुछ खाने के आइटम्स ऑर्डर कर दिए। ऑर्डर के बाद हम लोग रेस्तराँ से बाहर निकलकर उस जगह की साज-सज्जा को देखने लगे। हमने महसूस किया कि रेस्तराँ की वास्तुकला काफ़ी-कुछ भारतीय वास्तुकला से मिल रही थी, अगर कुछ अलग था तो वह था उस रेस्तराँ की सजावट। जिसे रंग-बिरंगे नीले, पीले, बैगनी, गुलाबी, मैजेंटा कलर के अनेक रंग-बिरंगे फूलों से क़रीने से सजाया गया था। 


गेट में घुसते ही बाउंड्री से घिरा हुआ कलात्मक शैली में बना घरनुमा रेस्तराँ और अंदर का हॉल उतना आकर्षक नहीं था जितना कि जगह के अनुसार बनी चौड़ी-पतली क्यारियाँ, पक्की फर्श पर रखे बड़े-बड़े गमले और क्यारियों में हँसते-खिलखिलाते स्वस्थ और सुंदर फूल। हम अभी फूलों का आनंद लेते कि हमारा ऑर्डर रेडी हो गया। चूँकि फूलों की क्यारियों के मध्य भी टेबल सजी हुई थी, अतः हमनें वहीं बैठना चुना और गुलाब की कई किस्में, लिली, ट्यूलिप, डैफ़ोडिल, स्नोड्रॉप्स, पेंजी तथा ऑर्किड के फूलों की मनमोहक चित्रशाला देखते हुए मोमोज़, फ़्राइड राइस, का आनंद लेते हुए नेपाली मसाला चाय पी तथा बिल चुकाया और फूलों को दूर-दूर से निहारते हुए चल दिए। हम वहाँ से निकल तो लिए लेकिन जाने का मन बिल्कुल नहीं कर रहा था, मन कर रहा था कि इन फूलों के पास ही रुक जाएँ और इनका भरपूर आनंद उठाएँ फिर आगे बढ़ें, लेकिन हमें शाम होने से पहले अपने गंतव्य तक पहुँचना था अतः हम चल दिए। बच्चे भी अभी चलने के इच्छुक नहीं थे। बेटी बार-बार कह रही कि हमें वहाँ रुकना चाहिए था माँ … फ़िलहाल! फूलों की बात करते हुए हम आगे का सफ़र तय करने को चल पड़े थे।


अभी हम मुश्किल से एक किमी ही निकले होंगे कि पता चला कि आगे गंडकी नदी पर जो नया पुल बन रहा है उसकी निर्माण सामग्री लाया हुआ ट्रक बीच मार्ग पर लुढ़ककर फँस गया है, हम लोग क़रीब आधे घंटे तक वाहनों की क़तार में वहीं खड़े रहे, ऊबकर पतिदेव यथास्थिति पता करने के लिए गाड़ी से उतर गए, अभी उनको गए १० मिनट हुआ था कि हमारा ड्राइवर भी उतर गया, जाते वक्त हमने उससे कहा कि जाम खुलने की जैसी स्थिति हो, हमें आकर बता जाना फिर चाहे दोबारा जाकर वहाँ खड़े होना। 


ड्राइवर को गए १० मिनट होने को था कि बेटा भी गाड़ी से उतर गया, अभी वह कुछ दूर ही गया था कि वापस लौट आया, उसने बेटी से कहा कि उधर बहुत सुंदर घाटी है, कैमरा ले लो हम लोग घूमकर आते हैं, वे दोनों उतर गए मैंने देखा वे सुंदर देवदार वृक्षों से आच्छादित वनांचल की तरफ़ जा रहे हैं, मैं उन्हें जाता देख रही थी कि एकाएक मेरे मन में ख़्याल आया कि क्यों न मैं भी उतर जाऊँ, मैंने गाड़ियों की भीड़ में नज़र दौड़ाई मैंने देखा मेरा ड्राइवर, जाम के मुख्य केंद्र को देखकर वापस लौट रहा था, मैंने उससे जाम खुलने की यथास्थिति का हाल पूछा उसने बताया कि अभी तो समय लगेगा, अभी बड़ी क्रेन आएगी तभी जाम खुल पाएगा, मैंने भी आपदा में अवसर देखा और पहाड़ों की सुंदर वादियों की पड़ताल करने निकल ली।


 दो दिन की लगातार यात्रा ने मेरे पैरों में भी जाम लगा दिया था, बड़ा भारीपन था कि अचानक मैंने देखा कुछ दूरी पर बेटा एक पहाड़ी पत्थर के ऊपर चढ़ा बैठा और बेटी उसके सामने झुकी तस्वीरें क्लिक रही थी, मुझे देखते ही बेटा इशारे कर-कर के, मुझे अपनी तरफ़ बुलाने लगा। ककरीले-पथरीले रास्ते से होते हुए मैं पहाड़ी पर बमुश्किल पहुँची ही थी कि बेटी ने बायीं तरफ़ इशारा किया मैंने देखा दो बड़ी चट्टानों के बीच में पंक्तिबद्ध सजे सफेद पहाड़ी-जंगली फूलों की पतली सी कतार बनी हुई है, वह कुछ ऐसी क़तार थी जैसे कि ग्रे बालों की चोटी में मोगरे की घनी लड़ियाँ गूँथ दी गई हो। बेटी मुझसे कहने लगी माँ “ये इन पत्थरों के बीच कैसे उग आए हैं? बताओ भला!  इनकी क्षमता तो देखो। मैं मुस्कुराई मैंने नोटिस किया कि बेटी भी मेरी तरह सोच रही है, कि दो सख़्त विशाल चट्टानों के मध्य उगे ये नाज़ुक फूल कौन सी प्रजाति के हैं, मैं मन जी मन कोमल पंखुड़ियों और फूलों के साहस और जिजीविषा को सलाम कर रही थी कि बेटे ने फूल की फ़ोटो खींचकर गूगल सर्च किया और हमें बताया कि माँ! मैं निश्चित तो नहीं कह सकता पर शायद इस फूल का नाम “एडलवाइस” है, ये ऊँचे पहाड़ों पर ही उगता है, और जो आप लोग बातें कर रही थीं कि चट्टानों के बीच इतना नाज़ुक फूल! तो सच में ये फूल पत्थरों के मध्य भी खिलते हैं, ये प्रेम और साहस के प्रतीक माने जाते हैं!”


अभी हम फूल की चर्चा कर ही रहे थे कि हमारे आस-पास के ऊँचे-नीचे मैदानों में सफेद भेड़ों का झुंड घास ढूँढता दिखाई दिया हम जल्दी-जल्दी फ़ोटो खींचने लगे, हमारे हाथ अभी चार-छः अच्छी तस्वीरें ही आई थीं कि एक भूरी चमकीली आँखों वाला गोरा-चिट्टा गड़रिया हमें दिखायी पड़ा जो धीरे-धीरे अपनी भेड़ों को साधते हुए इधर-उधर किए जा रहा था, उसके साथ उसके दो काले कुत्ते भेड़ों को उनकी सीमा में रहने को ताकीद कर रहे थे, इतने में गड़रिया दूसरी दिशा में जाने लगा, अभी वह जा ही रहा था कि मैंने देखा कि मेरा बेटा दौड़ता हुआ गया और उसके आगे खड़ा हो गया और अगले पल उससे हाथ मिलाने लगा, हाथ मिलाने के बाद वह उसके साथ-साथ चलने भी लगा, वह जा रहा था कि भेड़ों के बीच से होते हुए उसके पीछे-पीछे बेटी भी जाने लगी, मैंने बच्चों को रोकने की कोशिश की कहीं भेड़े बेटी को चोट न पहुँचा दें। 


मेरी आवाज़ सुनकर बेटा बोला माँ जल्दी इधर आओ आपको बहुत सुंदर सी जगह दिखाते हैं, ये शेफ़र्ड भैया जी हमें वहीं ले जा रहे हैं, चूँकि उस जगह काफ़ी घास थी और थोड़ा समतल एरिया था तो मैं भी आराम से चल ले रही थी, हम अभी क़रीब सौ मीटर ही गए होंगे कि सामने कतारबद्ध “रोडोडेंड्रोन लगे हुए थे, जिन्हें हिंदी में बुरांश कहते हैं, देखकर मेरे मुँह से निकला ये तो अद्भुत हैं, इतने सुंदर फूल तो मैंने जीवन में कभी नहीं देखे। उन्हें निहारते-निहारते मैं वहीं एक समतल पत्थर पर बैठ गई और उन्हें काफ़ी देर तक निहारती रही मेरा कवि हृदय उन फूलों की सुंदरता के बारे में गुनगुना उठा,


“तुम कितने सुंदर और चटकीले हो प्यारे बुराँश 

तुम्हें देखकर रुक गई है मेरी श्वाँस 

आह! तुम्हारी आभा का मनमोहक तत्व 

भूल गई हूँ अपना और इस धरा का अस्तित्व

सच! तुम इस पृथ्वी पर ही हो या स्वर्ग में 

क्या कहूँ तुम्हारे वैभव के उत्सर्ग में 

मेरे शब्द फीके हैं और संदर्भ बेमानी 

निःशब्द हूँ चुप हो गई है मेरी वाणी” 

 

वे सुर्ख लाल रंग के फूलों से सजे पेड़ थे, हरी पत्तियों के ऊपर बुराँश के फूल बहुत सुंदर दिख रहे थे, सबसे ख़ास बात फूलों में एक ऐसी ताज़गी और चमक थी, जो हमने कभी नहीं देखी थी, शायद ऊँचा पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण वहाँ धूल-मिट्टी न हो, लेकिन उनकी चमक ऐसी थी जिसे भुलाया नहीं जा सकता। “रोडोडेंड्रोन” जिन्हें नेपाली में लालीगुराँस कहते हैं, ये नेपाल का राष्ट्रीय पुष्प है, इस पुष्प को पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों में भी उपयोग किया जाता है। यह फूल शुभता और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है।


हमें बेटे के नए मित्र गड़रिए ने बताया कि यहाँ तो ये बहुत कम है, अगर आप इसी मार्ग पर और आगे जाने के बाद ट्रेकिंग करते हैं, तो वहाँ आप लाली गुराँस की कई क़िस्मों, कई रंगों के फूल को देख पाएँगे। 


बुराँश की ये खूबसूरत क़तार तातोपानी से जोमसोम के बीच में खूबसूरत पहाड़ों की वादियों में स्थित है, मार्च से जून तक के बीच यह क्षेत्र लाल, गुलाबी और सफेद बुराँश के फूलों से भर जाता है। यह इलाका लगभग 2,800 से 3,200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है, यह इन फूलों के लिए आदर्श जलवायु मानी जाती है। 

 बुराँशके चमकदार लाल फूल बसंत ऋतु के आगमन का संकेत होते हैं। जब यह फूल खिलते हैं तो पहाड़ी ढलानों और जंगलों को ऐसा लगता है जैसे किसी ने रंगों की चादर ओढ़ा दी हो। यह दृश्य बेहद मनमोहक होता है।

यह जगह हमें सौगात में मिली थी और मिली थीं भेड़ें और भेड़ों का शागिर्द! जिसने हमें बताया कि इस मार्ग में खासकर घासा और ल्येते गाँवों के आसपास भी बुराँश के पेड़ देखे जा सकते हैं। उसने नेपाली भाषा में बुराँश की महिमा बयान करते हुए एक छोटी कविता भी सुनाई,

काव्यात्मक संदर्भ नेपाली में:

लाली गुराँस का डाली हरू 

हिऊँजस्तो मनमा फुलदछ 

जुनदिन बाटो थाकिंछ 

थ्यो दिन यी फूल बोलदछ 

(अनुवाद- जब रास्ता थका देता है, लालीगुराँस के फूल बोलने लगते हैं…) 

हम अभी बुराँश में खोए हुए थे कि बेटे के फ़ोन पर फ़ोन आ गया कि जाम खुल रहा है, जल्दी आओ तुम लोग। (हमारे पास नेपाली सिम थे जिससे बात हो जा रही थी)

जाम खुल गया था हम गाड़ी में बैठ गए मगर रेस्तराँ की फूलों की क्यारियाँ और ये ख़ूबसूरत रोडोडेंड्रोन (बुराँश) के लाल-गुलाबी फूल बार-बार हमें अपनी और खींच रहे थे। लेकिन अब हमें काफ़ी देर हो चुकी थी अतः हमारी गाड़ी अपनी ले में अब रफ़्तार पकड़ चुकी थी।

चूँकि हमने अपने देश भारत में भी बुराँश के फूल अवश्य देखे होंगे परंतु कभी इतना गौर नहीं किया था याकि नेपाली लालीगुराँस हमारे दिल में ही उतर गए थे। मैंने बेटे से कहा कि अगर नेटवर्क आए तो ज़रा बुराँश सर्च करो, हमारा नेट चल गया था और मैं बेटे के फ़ोन से गूगल जी के माध्यम से गुराँस के बारे में पढ़ते हुए अपनी पीछे की सीट पर आसीन हो चुकी थी। गूगल जी ने बताया कि, 

भेड़, बकरियों, गायों और याक के चरागाहों के समान ऊँचाई वाले क्षेत्रों में रोडोडेंड्रोन के विशाल वृक्ष पाए जाते हैं। सर्दियों के महीनों में, ताज़ी पत्तियाँ अच्छा चारा बनती हैं, लेकिन जब फूल खिलते हैं, तो पत्तियाँ जानवरों के लिए ज़हरीली हो जाती हैं और कभी-कभी मछलियों के लिए ज़हर के रूप में भी इस्तेमाल की जाती हैं। इसकी लकड़ी का उपयोग फ़र्नीचर, घर की बीम और बगीचे की बाड़ बनाने में किया जा सकता है। पहाड़ियों पर रहने वाले कुछ समूह इस लकड़ी का उपयोग घरेलू बर्तन, बंदूक की नाल और औज़ारों के हैंडल बनाने में करते हैं। इन पुष्पों का इस्तेमाल पारंपरिक औषधियों में भी किया जाता है, मार्च से अप्रैल के बीच यह क्षेत्र लाल, गुलाबी और सफेद बुराँश के फूलों से भर जाता है।

मार्च से अप्रैल के महीनों में जब बुराँश पूरे शबाब पर होते हैं, हालाँकि मई-जून में भी ये अपना सौंदर्य बिखेर रहे थे। इन महीनों में देश-विदेश से पर्यटक खासतौर पर इसे देखने आते हैं। अन्नपूर्णा, घोरेपानी और पूनहिल जैसे ट्रेकिंग मार्ग, इन फूलों की वजह से इस मौसम में बेहद लोकप्रिय हो जाते हैं। बुराँश को देखकर और पढ़कर मैंने कुछ जानकारी हासिल कर ली थी। 

गूगल पर सर्च करनेवाले बाद हमें पता चला कि मनमोहक पहाड़ी पुष्प बुराँश हमारे उत्तराखंड का राज्य पुष्प है,हमें बड़ी ख़ुशी हुई कि हम बुराँश की ख़ूबसूरती अपने देश में भी देख पाएंगे। 

 हम लोग सीधे मुक्तिनाथ जी पहुँचने की जल्दी में थे क्योंकि हमारा होटल वहीं बुक था।

 हम साढ़े छः के क़रीब वहाँ पहुँच गए थे। हमने वहाँ रुकने के बाद चाय पी, थोड़ा विश्राम किया तथा रात के खाने का ऑर्डर देकर, होटल से बाहर निकल आए। थोड़ी खरीदारी की और होटल लौटकर रात का भोजन किया। रात के दस बज गए थे, थकान भी हो रही थी, अतः सो गए।

अगले दिन सुबह हमने सबसे पहले मुक्तिनाथ मंदिर जाने की सीढ़ियों की कठिन चढ़ाई चढ़कर सबसे पहले १०८ धराओं में स्नान किया तत्पश्चात मुक्तिनाथ भगवान के दिव्य दर्शन किए और दोपहर तक वहीं रुके। उतरने के पहले मंदिर के पास ही स्थित बुद्ध जी की विशाल प्रतिमा की परिक्रमा की और धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरते हुए अपने होटल आ गए। बचे हुए दिन में आस-पास के क्षेत्र की घुमाई की। शाम को कुछ ऊनी कपड़े, मोतियों की मालाएँ खरीदीं, निशानी के तौर पर एक मैडिटेशन मंजीरा ख़रीदा, बाहर ही खाना खाया, और होटल लौट आए। 

अगले दिन नाश्ता करने के उपरांत हमने होटल छोड़ दिया और पोखरा वापसी को गाड़ी में बैठ लिए। गाड़ी बढ़ रही थी! लौटते समय धौलगिरी और अन्नपूर्णा के सुंदर पहाड़ों, पहाड़ों पर आच्छादित चाँदी सी चमकती बर्फीली चोटियों, साथ में गंडक नदी के ऊँचे-नीचे, आँड़े-तिरछे-चौड़े बहाव का आनंद लेते हुए, मुस्तंग से ताजे एप्रिकॉट, राजमा डाल, तथा पहाड़ी मसालों की खरीदारी करते हुए, कागबेनी, बेनी से गुज़रते हुए फिर फूलों वाले रेस्तराँ में पहुँच चुके थे। 

रेस्तराँ में स्नैक्स के साथ चाय पी, इस बार फूलों के साथ रहने में हमने कोई कोताही नहीं की। वहाँ एक ब्लूबेरी का पेड़ा भी था, जिससे हमने ब्लूबेरी तोड़ी अपने हाथों से, हाथों से फूलों को सहलाया दिल्लगी की, फ़ोटो खिंचाई और प्यार से निहारते हुए, उनसे कहा कि फिर मिलेंगे दोस्त! 

हम फूलों में इतने रम गए थे कि वहाँ से हटने का मन नहीं हो रहा था, जबकि हमारी गाड़ी पीं-पीं हॉर्न बजा रही थी। इस बार मैं पीछे न बैठकर बीच वाली सीट पर बैठी थी, आख़िर रास्ते में अभी एक झरने से मोती जो चुनना था। एक घंटे बाद रूपसे झरना आ गया था, वहाँ पर हमने खूब मज़ा किया, और ख़ूब फ़ोटोग्राफ़ी भी की। 

वहाँ से निकलने के बाद हम गाड़ी में अपनी पुरानी सीट पर जम गए और फिर उतरे सीधे पोखरा।

पोखरा में हमारा होटल, भोजन तैयार किए हमारा  इंतज़ार कर रहा था, रात हो चुकी थी, होटल पहुँचकर हमने नीचे ही भोजन कर लिया। फिर अपने-अपने कमरे में गए। कमरे में पहुँचते ही हम धम्म से बिस्तर पर गिर पड़े फिर तो काफ़ी देर बाद उठकर अपने को फ्रेश किया और फ़ोन पर तस्वीरें देखते हुए, आराम से सो गए। आँख खुली सुबह सीधे सात बजे। 

तैयार होकर नाश्ता किया। उसके बाद पोखरा की ख़ूबसूरत बाज़ार में ख़रीदारी की। आराम से सारा सामान गाड़ी में रखा और हम अपने घर लखनऊ के लिए वापस रवाना हो लिए। गाड़ी में सबसे पीछे छुपी बैठी मैं गड़रिए और भेड़ों के ऊपर एक बालगीत लिखने के बाद आराम से सो गई;… और जब नींद खुली तो हम भारतीय सीमा के काफ़ी नज़दीक पहुँच चुके थे, मेरा मन बालगीत गा रहा था…

चला गड़रिया लेकर भेड़, खाईं-खंदक, टेढ़ी मेड़  

दो कुत्ते हैं काले साथ, खूब रहे हैं उनको छेड़  

कहीं कहीं मैदान हरा, तो कहीं खड़े हैं चीड़ के पेड़ 

देखो भेड़ा बीच-बीच में, मार रहा है रह-रह गेड़ 

दौड़ा लिया गड़रिए ने फिर, उसकी मारी जमकर रेड़

भागा में-में कर फिर भेड़ा, टाँग हो गई उसकी टेढ़॥


 जिज्ञासा सिंह                

ऐतिहासिक रामलीला … करनैलगंज गोंडा

 रामलीला प्रसंग”

‘कलावसुधा’ प्रदर्शकारी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका के जनवरी-मार्च विशेषांक में मेरा आलेख “करनैलगंज गोंडा की रामलीला - सांस्कृतिक धरोहर और सामाजिक संदेश” प्रकाशित है। प्रस्तुत आलेख में करनैलगंज की ऐतिहासिक रामलीला के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित करने की कोशिश की है। आशा है, मित्रगण रामलीला के संदर्भों को पढ़कर अपनी राय अवश्य देंगे। 






  • करनैलगंज गोंडा की रामलीला— सांस्कृतिक धरोहर और सामाजिक संदेश

  •  उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद के करनैलगंज के रामलीला मैदान में, दशहरे से एक दिन पहले एक बड़े से हिस्से को मंच में तब्दील कर दिया गया है और उस मंच पर एक प्रहसन चल रहा है, जिसमें एक युवक को, जिसका चेहरा नक़ाब से ढँका हुआ है, दो पुलिस वाले मोटरसाइकिल पर बीच में बैठाए हुए दाख़िल होते हैं, मंच पर पहुँचकर दोनों पुलिसवाले युवक को उतारते हैं और मंच पर पहले से सज्जित न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत कर देते हैं, न्यायालय की कुर्सी पर विराजमान जज साहब के सामने उस युवक की सुनवाई होती है, जज साहब युवक को दोषी करार देते हैं और उसे फाँसी की सजा सुनाते हैं, न्यायालय की कार्यवाही पूर्ण होते ही जल्लाद, युवक के चेहरे को एक मोटे कपड़े से गर्दन तक ढँक देता है, तथा दो खंभे के बीच झूलते फाँसी के फंदे पर लटका देता है, युवक फाँसी पर झूल रहा है, दर्शक दीर्घा में तड़-तड़ तड़-तड़ तालियाँ गूँज रही हैं और लोग वाह-वाह कर रहे हैं, वहीं उसी भीड़ में फाँसी के मूल भाव से अनभिज्ञ लोग आश्चर्य में हैं, कि किसी को फाँसी देते समय आख़िर तालियाँ क्यों बज रही हैं, लोगों का आश्चर्य कुछ ही मिनटों में उस समय और बढ़ जाता है, जब फाँसी पर लटकी हुई लाश धीरे से नीचे उतारी जाती है और वह अचानक ज़िंदा हो, झुक-झुक लोगों का अभिवादन करने लगती है, लोगों की तालियाँ आसमान छूने लगती हैं, महिलाएँ भाव-विभोर हो जाती हैं और मंच के लाउडस्पीकर में बज रहा गीत उनके भावों को परवान चढ़ाने में आग में घी का काम करता है ...

  • “इंसान का इंसान से हो भाईचारा 
  • यही पैग़ाम हमारा यही पैग़ाम हमारा”

  •  फाँसी की असलियत बाद में माइक पर अनाउंस होती है, असल में ये फाँसी सचमुच की फाँसी न होकर केवल प्रतीकात्मक फाँसी थी, ये केवल फाँसी का प्रहसन था जिसने तमाम दर्शकों को द्रवित और अचंभित कर दिया। इस फाँसी के प्रहसन का मंचन आज से नहीं बल्कि लगभग एक शताब्दी से हो रहा है, जिसे एक रामलीला कमेटी आयोजित करती है, प्रहसन में कमेटी के ही कलाकार न्यायाधीश, कोतवाल, सिपाही, मुंशी- दीवान और जल्लाद आदि का किरदार निभाते हैं, यह प्रहसन दशहरे के एक दिन पहले नवमी तिथि को मंचित किया जाता है, जिसमें दिखाते हैं, कि किसी दूसरे शहर से एक व्यापारी अपने बेटे के साथ यहाँ व्यापार करने आया है, एक स्थानीय व्यक्ति उसको अपने झाँसे में फँसाकर उसका सारा सामान लूटकर, उसके बेटे को अगवा कर लेता हैं, वह रोता है, चिल्लाता है, लोगों से अपनी मदद की गुहार लगाता है, जब लोगों को उसके साथ हुए दुर्व्यवहार का पता चलता है, तो वे उसे न्यायालय कमेटी में न्याय के लिए दरख्वास्त देने को कहते हैं, तत्पश्चात कमेटी व्यापारी के साथ हुए अन्याय को घोर अपराध की श्रेणी में रखकर, पूरे प्रकरण की तहक़ीक़ात करती है और अपराध सिद्ध होने पर फाँसी की सज़ा सुनाती है, फाँसी का उद्देश्य है कि अगर किसी के साथ अन्याय करोगे तो उसका दण्ड भी भुगतोगे। यह फाँसी का प्रहसन स्थानीय लोगों के साथ-साथ कई जिलों के लोग देखने आते हैं, तथा अपने साथ यह संदेश लेकर जाते हैं कि ग़लत काम का नतीजा ग़लत ही होता है।

  • फाँसी की सज़ा का मूल उद्देश्य जनमानस में जागरूकता फ़ैलाना तथा समाज को भय मुक्त करना है, इसके अतिरिक्त बाहर से होने वाले व्यापार को बढ़ावा देते हुए लोगों को आपसी संबंधों को मज़बूत बनाने की प्रेरणा देना एवं व्यापार द्वारा आर्थिक स्थिति को संबल प्रदान करना भी है। 

  •  यह प्रहसन करनैलगंज की रामलीला को विशिष्ट बनाते हुए अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की नींव को रेखांकित भी करता है कि जिस तरह त्रेता में श्रीराम ने रावण को दंड दिया था उन्हीं पदचिह्नों पर चलते हुए, हमारे समाज में आज भी न्यायाधिकारी द्वारा उचित माकूल दंड देने वाला प्रावधान है।

  • यह ऐतिहासिक रामलीला उत्तर-प्रदेश के गोंडा जनपद के करनैलगंज कस्बे में आयोजित की जाती है, जिसका इतिहास लगभग 200 वर्ष पुराना है, करनैलगंज के एक शिक्षाविद् श्री आशीष कुमार सिंह जी के अनुसार पुरानी रामलीला जो करनैलगंज के गुड़ाही बाज़ार के श्रीराम जानकी मंदिर से प्रारंभ हुई थी, वह वर्ष के बारहों महीने चलती ही रहती थी, रामचरितमानस के विभिन्न प्रसंगों, कथाओं का मंचन कस्बे के लोगों द्वारा होता रहता था, उनके अनुसार उस रामलीला द्वारा जनता मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों का प्रचार-प्रसार होता था इसके अतिरिक्त लोगों में अपने संस्कृत-साहित्य का प्रचार भी मुख्य विषय था, उस समय रामलीलाएँ मनोरंजन का प्रमुख स्रोत हुआ करती थीं, विशेषतः यह रामलीला इन्हीं मूलभावों से प्रारम्भ हुई थी।

  •   पारंपरिक रामलीला लोगों के रोम-रोम में बसी थी, मंचन भी अच्छा होता था, परंतु कमेटी के कुछ सदस्य उसमें वृहद बदलाव लाकर रामलीला का विस्तार कर, उसका स्तर और ऊँचा उठाना चाह रहे थे, जिससे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों का जन-जन में प्रचार-प्रसार हो सके। बहुत विमर्शों के बाद इसका बीड़ा उठाया लाला बिहारी लाल पुरवार ने। 

  • अधिकांश प्रमाणित स्रोतों और जनश्रुतियों के अनुसार वर्ष 1933 में लाला बिहारी लाल पुरुवार ने रामलीला को नए स्वरूप में विकसित करने के लिए अपने मित्रों को साथ लेकर एक योजना बनाई और जनमानस के सम्मुख अपना प्रस्ताव रखा, प्रस्ताव पर आम सहमति के बाद करनैलगंज के ही एक व्यापारी ने रामजानकी मंदिर के सामने स्थित अपनी ज़मीन, रामलीला भवन बनाने के लिए दान कर दी। यह मंदिर करनैलगंज के गुडा़ही बाजार मोहल्ले में बना हुआ बहुत पुराना वही मंदिर है, जहाँ वर्षों से रामलीला होती आ रही थी। ज़मीन का अधिग्रहण होते ही लाला बिहारी लाल पुरवार ने रामलीला भवन बनवाने का कार्य प्रारंभ किया। एक तरफ़ भवन बनता रहा, साथी ही साथ सामने मंदिर में रामलीला भी होती रही। वर्ष 1954 में शानदार रामलीला भवन बनकर तैयार हो गया। उस वर्ष बहुत दिव्य-भव्य रामलीला हुई और प्रतिवर्ष होती रही। कुछ वर्षों बाद लाला बिहारीलाल पुरवार का निधन हो गया। उनके निधन के बाद उनके भाई साँवल प्रसाद पुरवार, उनके बाद उनके बेटे शिवकुमार पुरुवार ने रामलीला कमेटी का गठन करके पाटनदीन वर्मा, रघुनाथ प्रसाद शुक्ल, राममनोहर वैश्य सहित कई अन्य लोगों को कमेटी का पदाधिकारी बनाकर उन्हें जिम्मेदारी सौंप दी। तभी से रामलीला कमेटी पूरी जिम्मेदारी से रामलीला करवाती आ रही है। प्रतिवर्ष कमेटी में कुछ नए पदाधिकारियों का चयन होता है, जबकि कुछ पदाधिकारी पुराने ही होते हैं। 

  • 80 के दशक में यह रामलीला अपने चरम पर थी उन्हीं दिनों मैं भी करनैलगंज में शिक्षा ग्रहण कर रही थी उन दिनों रामलीला का बहुत आकर्षण था। पितृपक्ष के पहले दिन से ही रामलीला प्रारंभ हो जाती थी। जिसकी शुरुआत कलश पूजन से होती थी, उसके उपरांत एक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती थी लोग सज-धजकर शोभायात्रा में सम्मिलित होते थे, रामलीला भवन से प्रारंभ शोभायात्रा पूरे कस्बे का चक्कर लगाते हुए वापस फिर रामलीला भवन लौट आती थी।
  •  नवरात्र दशहरा के बाद तक संपूर्ण श्री रामचरितमानस के प्रसंगों के घटना दृश्य के अनुसार लगभग एक माह तक, अलग-अलग लीलाओं का मंचन किया जाता रहा है, जिसमें राम जन्म, गुरुकुल प्रसंग, सीता स्वयंवर, राम बारात, राज्याभिषेक, वन गमन, भरत मिलाप आदि विभिन्न प्रसंग रामलीला भवन में मंचित होते हैं।

  • जबकि राम-रावण युद्ध, लंका विजय तथा अयोध्या वापसी का मंचन रामलीला मैदान में आयोजित होता था।
  • प्रवचन तथा सत्संग भी होते थे, जिनके माध्यम से लोग आध्यात्मिक ऊर्जा का संचयन करते थे। 
  • मनोरंजन के लिए नृत्य नाटिका भी आयोजित की जाती थी।
  • आज के समय में तो कानपुर लखनऊ से भी नाटक कंपनियाँ आती है।

  • आज की अपेक्षा उस समय मनोरंजन के संसाधनों की कमी होती थी, अतः रामलीला का विशेष आकर्षण था। घरों में उत्सव का माहौल होता था। लोगों की दिनचर्या रामलीला के अनुसार ही चलती थी, लोग जल्दी-जल्दी अपना कार्य पूर्ण करके रामलीला देखने चल देते थे,  यह रामलीला करनैलगंज कस्बे के साथ-साथ जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में साल दर साल बहुत लोकप्रिय होती गई, यहाँ आने वाले दर्शकों की संख्या लगातार बढ़ती रही और वर्ष 1989 में दशहरे के दिन दर्शकों की संख्या तीन लाख तक पहुंच गई थी। 

  • चूँकि करनैलगंज, जनपद का एक प्रमुख कस्बा है, रामलीला व्यापारी वर्ग ही आयोजित करवाते थे अतः किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होती थी, कस्बे के हर घर से सहयोग मिलता था, यहाँ तक कि कस्बे में रहने वाले मुस्लिम और सिख समुदाय के लोगों द्वारा भी रामलीला की तैयारियों में सहयोग किया जाता था, सभी वर्ग के लोग रामलीला देखने आते थे। मुझे याद आता है कि एकबार भारत मिलाप की “लाग” निकल रही थी जिसमें मेरी मुस्लिम और सिख सहेलियाँ भी साथ चल रही थीं, “लाग” विशेष प्रकार की शोभायात्रा होती थी जिसमें सबसे आगे रामलीला के सजे-धजे पात्र चलते थे, उनके बाद विशिष्टजन, फिर आम जनमानस की टोलियाँ होती थीं जिनमें हमारे परिवार के लोग शामिल होते थे।
  •  कस्बे के लोगों के साथ-साथ आसपास के गाँवों के लोग भी उनमें शामिल होते थे।
  • “लागें” रामलीला भवन से निकालकर पूरे कस्बे का चक्कर लगाती हुई रामलीला मैदान तक जाती थी।
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  •  रामलीला मैदान के बारे में मौजूदा कमेटी के महामंत्री श्री कन्हैयालाल वर्मा जिनके पिता जी श्री पाटनदीन वर्मा जो कि रावण का पात्र निभाते थे, उन्हीं के नक्शेकदम पर चलते हुए आज वे खुद रावण के पात्र का जीवंत अभिनय करते हैं, उन्होंने बताया कि रामलीला मैदान भी लगभग 200 वर्ष पुराना है, पहले इसके किनारे-किनारे पीपल, बरगद, पाकड़ के बहुत पुराने पेड़ लगे हुए थे। जो चहारदीवारी का काम करते थे जिससे मैदान भी चिह्नित होता था। यहाँ पर अंग्रेजों के जमाने में परेड हुआ करती थी। राजनीतिक रैलियाँ होती थीं। इस रामलीला मैदान में बहुत भव्य द्वार हैं, एकबार रैली के दौरान रामलीला मैदान का द्वार गिर गया था जिसका पुनरुद्धार कटरा क्षेत्र के स्व. श्रीराम सिंह और नरसिंघ दत्त शुक्ला जी के सहयोग से हुआ था। मैदान में चार स्तंभ हैं, जो अशोक वाटिका, राम चबूतरा, लंका और नरसिंह नाम के हैं और चारों दिशाओं में स्थापित हैं, मैदान की चहारदीवारी से लगी हुई चारों तरफ़ दर्शक दीर्घा है, मैदान के बीच में रामलीला की लीलाओं का मंचन होता है, राम-रावण युद्ध तथा राम जानकी की अयोध्या वापसी का भव्य और विशेष मंचन यहीं इसी मैदान पर होता आ रहा है।

  • प्रत्येक दिन के अनुसार प्रसंगों को  नाटक की विधा में लिखा जाता है, पात्रों का चयन होता है , उनकी वेशभूषा, आभूषण और अस्त्र-शस्त्र निश्चित किए जाते हैं, चुने हुए पात्रों को अभिनय की बारीकियाँ सिखाई जाती हैं। पूरा-पूरा दिन रिहर्सल चलता रहता है। कमेटी में आज भी कई सदस्य ऐसे हैं जिनके परिवार के सदस्य कई पीढ़ियों से रामलीला का मंचन करवाते आ रहे हैं और पुरानी परंपरा का अनुसरण करते हुए विरासत की गरिमा को आगे बढ़ा रहे हैं।

  • रामलीला के पात्रों के चयन और वेशभूषा के संबंध में जो जानकारी मिली उसके अनुसार, रामलीला में जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता था वह था पात्रों का चयन और उनकी साज-सज्जा।

  • पात्रों का चयन उनकी कद काठी, तथा रंग-रूप के आधार पर होता था, जैसे श्रीराम के लिए सुगठित शरीर, साँवला-सलोना रंग, लक्ष्मण के लिए राम से थोड़े कम लम्बे युवक का चयन, हनुमान जी के लिए मोटा भरा हुआ शरीर और रावण सहित सभी राक्षसों के लिए हट्टा-कट्टा भारी-भड़कना पुरुष चयनित किए जाते थे।

  • सबसे मुश्किल था स्त्री पात्रों का चयन। रामलीला स्थापना के साथ ही स्त्री पात्रों का अभिनय आज तक पुरुष वर्ग ही करता आ रहा है, जिसके लिए स्त्री समतुल्य कद-काठी के लड़कों जा चयन होता है, सूर्पनखा, सुरसा आदि राक्षसियों के लिए कुछ मोटे लड़कों को चुना जाता रहा है।

  • रामलीला के पात्रों के लिए वस्त्र और शस्त्र तैयार करने की प्रक्रिया पारंपरिक और हस्तनिर्मित होती थी, जो कि स्थानीय कारीगरों, दर्जियों और लोहारों द्वारा की जाती थी, जिसे वे लोग अपनी कला और कौशल द्वारा सुंदर तथा जीवंत बनाते थे।

  • पात्रों के हिसाब से कपड़े का चयन, किया जाता था जिनमें रेशमी, साटन, मखमल, बनारसी आदि प्रमुख कपड़े होते थे, उसके बाद उनकी रंगाई होती थी, रंगों का चयन पात्र के हिसाब से होता था, परंतु ज्यादातर गहरे और चमकीले रंगों का प्रयोग होता था जिससे पहनने वाले पात्र मंच पर आकर्षक दिखें। भव्यता लाने के लिए रंगे हुए कपड़ों की सुनहरे और चमकीले धागों से कढ़ाई की जाती थी, अलग पात्र अलग वस्त्र जैसे राम-लक्ष्मण के लिए पीला-केसरिया, सीता जी के लिए गुलाबी, नारंगी या लाल तथा रावण, कुंभकरण के लिए नीले, भूरे, बैंगनी जैसे गहरे रंगों का प्रयोग किया जाता था।

  • उसके पश्चात उन वस्त्रों को सजाने के लिए गोटा पट्टी, मोती की झालरें, लड़ियों द्वारा अलंकृत किया जाता था।

  • वस्त्रों के उपरांत बारी आती थी मुकुट और आभूषणों की, जिन्हें बनाने और सजाने का कार्य बहुत ही धैर्यपूर्वक, हाथों द्वारा किया जाता था, मुकुट और आभूषण विशेष रूप से लकड़ी, कागज़ और थर्माकोल से बनाए जाते थे, तैयार होने के बाद उन्हें मोतियों, शीशों, चमकीले पत्थरों और गोटों द्वारा सजाया जाता था।

  • रामलीला के पात्रों के लिए जो सबसे विशेष और आवश्यक वस्तु की व्यवस्था करनी होती थी वह थी हर पात्र का अलग तरह का अस्त्र-शस्त्र। इसके लिए धातु और लकड़ी का प्रयोग किया जाता था और इन्हें भी हाथों द्वारा बनाया जाता था, जिसके लिए बढ़ई और लुहार की मदद ली जाती थी, रामलीला में उपयोग होने वाले धनुष, बाण, तलवार, गदा आदि विशेषतः लकड़ी और बाँस से बनाए जाते थे, अक्सर हल्के और पतले लोहे और पीतल का प्रयोग होता था जिससे कलाकार इन्हें आसानी से संभाल सकें। ये मुख्यतः सजावटी और दिखावटी ही होते थे, जो असली हथियारों के जैसे ही दिखाई पड़ते थे।
  • इन हथियारों को ऐसे पत्थरों और शीशों से सजाया जाता था कि वे मंच पर चमकते हुए दिखाई दें और दर्शकों पर अपना प्रभाव डाल सकें।

  • कलाकारों की सजावट में उनकी विशेष जूते-जूतियों का भी महत्व होता था वे ज्यादातर पारंपरिक कढ़े हुए होते थे और कारीगरों द्वारा बनाए जाते थे।

  • कलाकारों के साज-सज्जा करने की ज़िम्मेदारी स्थानीय कारीगरों और उनके परिजनों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी निभाई जाती रही है। इस कला को आज भी कई परिवार सँजो रहे हैं, वस्त्रों और शस्त्रों की जो भी सामग्री स्थानीय बाज़ार में नहीं मिलती थी वह बाहर से मँगाई जाती थी।

  • इसके अतिरिक्त वेशभूषा को सज्जित करने में प्राकृतिक रंगों जैसे हल्दी, चंदन, नीबू और फूलों के रंग का उपयोग किया जाता था।

  • बीती सदी में करनैलगंज की रामलीला अपने सुंदर और भव्य स्वरूप में विख्यात थी।
  • पिछले कुछ वर्षों में, जब से डिजिटल युग का समय आया, लोगों को धर्म, अध्यात्म और मनोरंजन सभी कुछ सोशल मीडिया पर मिलने लगा, जिसकी वजह से करनैलगंज की रामलीला की भव्यता में कुछ कमी आ गई थी। लोगों में रामलीला के प्रति उत्साह और उमंग की भावना कुछ कम हो रही थी, लोगों के अनुसार रामलीला कमेटी भी उतार महसूस कर रही थी, कुल मिलाकर रामलीला संकट की स्थिति में थी। वह संकट कोरोनाकाल में अपने चरम पर पहुँच गया, जब लोगों का आपस में मिलना-जुलना बंद हो गया, फिर भी कुछ सदस्यों ने केवल सांकेतिक रूप से ही सही पूजा-अर्चना के माध्यम से रामलीला को जीवित रखा। यूँ लगने लगा कि अब रामलीला कभी नहीं हो पाएगी परंतु मनुष्य का जीवन ही उत्साह और उद्देश्य की तलाश के लिए हमेशा व्यग्र रहता है, वह व्यग्रता दिखाई दे या न दिखाई दे, स्वभावतः मनुष्य प्रेरक ऊर्जा और उत्साह का समीकरण खोजता रहता है, वही कुछ करनैलगंज की ऐतिहासिक रामलीला के साथ भी हुआ। करोनाकाल खत्म होने के बाद कमेटी के सदस्यों और क्षेत्र के कुछ लोगों द्वारा ये मुद्दा उठाया गया कि इस ऐतिहासिक रामलीला का पुराना दिव्य-भव्य स्वरूप कैसे फिर से जीवित किया जाए, किस तरह रामलीला का वैभव लौटे। विचार-विमर्श और सार्थक मंथन के पश्चात करनैलगंज रामलीला कमेटी ने, मोहित कुमार पांडे के निर्देशन में एकबार फिर एक कर्मठ और जागरूक कमेटी गठित की है तथा नई तकनीक, नए संसाधनों के साथ रामलीला को पुनर्जीवित करने का सजीव प्रयास किया है और अब हर वर्ष एक दिव्य-भव्य रामलीला का आयोजन हो रहा है। जिसमें पहले दिन कलश पूजन के पश्चात भगवान श्रीराम के जन्म से लेकर रावण वध, लवकुश वीरता तथा भगवान श्रीराम के सरयू नदी के गुप्तार घाट से वैकुण्ठ धाम प्रस्थान होने तक यह रामलीला चल रही है।

  •  करनैलगंज को ऐसे ही नहीं “छोटी अयोध्या” कहा जाता है, यहाँ की रामलीला सिर्फ़ लीला न होकर पूरे करनैलगंज का गौरव थी और kअब फिर अपने गौरवशाली इतिहास को दोहरा रही है, जिसका मुख्य कारण इसका शानदार संचालन है, जिसमें रामलीला कमेटी कस्बे के किसी भी दुराग्रह और वैमनस्य को परे हटाकर आपसी मेलभाव को बढ़ाते हुए रामलीला आयोजित करती है। लोगों के मुख से रामलीला के भव्य आयोजन का प्रसंग अक्सर सुनने को मिल ही जाता है। परंतु आम दिनों में रखरखाव के बिना रामलीला मैदान आवारा पशुओं और गंदगी से बेहाल न हो जाए, इसके लिए प्रशासन को ध्यान देने की ज़रूरत है, जिससे रामलीला जैसे आयोजनों में लोगों का विश्वास दृढ़ हो और वे उत्साह के साथ अपनी ऐतिहासिक रामलीला को देखने जाएँ तथा आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक ऊर्जा को अपने अंदर समाहित करते हुए आनंद का अनुभव करें।

  • संदर्भ:
  • साक्षात्कार- श्री कन्हैयालाल वर्मा (महामंत्री रामलीला कमेटी, करनैलगंज)
  • वार्तालाप- कविता वैश्य, रंजना सिंह (करनैलगंज निवासी)
  • सूत्र- विकिपीडिया, दैनिक भास्कर, पत्रिका न्यूज़, जागरण डॉट कॉम आदि!
जिज्ञासा सिंह