लब्धप्रतिष्ठ पत्रिका रचना उत्सव में प्रकाशित लघुकथा.. इतनी सी बात…
इतनी सी बात
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गाँव में बड़े मास्टर साहब के घर के पीछे झोपड़ियों में रहने वाली शीतला आज सुबह-सुबह मास्टर जी जी के ड्योढ़ी पर खड़ी थी। उसे देखते ही शहर से आई मास्टर जी की बेटी, पूछने लगी,
”क्या है? काकी! क्या रात नींद नहीं आई? सुबह हीं आ गईं आप, कोई ख़ास काम है क्या?”
“नाहीं बिटिया, कुछ बात नाहीं न! बस ऊ तुम्हरे रसोई की लालटेन आज पूरी रात जली। हम अपनी छप्परिया म लेटे-लेटे बार-बार तुम्हरे जंगला म रोसनी टिमटिमात निहारें औ सोचें कि हाय दैया! लागत है, बड़ी मालकिन लालटेन बुझावे का भूल गईं। केतना तेल जलिगा होई, सोच-सोच हमें रात चैन ही नहीं पड़ रहा था कि कब सबेरा हो और हम बताईं जाके.. कि अब तो बत्ती बुझाओ, रात भर जली है, ताही से आईं हम बिटिया!
“बस इतनी सी बात पर आप यहाँ उठते ही चली आईं।” ख़ुश्बू ने हुँकारी भरते हुए काकी से कहा ही था, कि माँ ने टोंक दिया।”
“ये इतनी सी बात नहीं बेटा, हमारे घर में लाइट आ नहीं रही थी, हमने इसलिए लालटेन जलाई परंतु काकी के घर लाइट का कनेक्शन ही नहीं है, वो हमारे घर से एक शीशी मिट्टी का तेल माँग ले गई है, और उसे बचत कर के महीनों जलाएगी।”
जिज्ञासा सिंह
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