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पहचान

       अखबार का पन्ना पलटते ही विमला की दृष्टि अचानक उसमें छपी, हुई एक फोटो पर गई,और वो पहचानने की कोशिश में लगने ही वाली थी, कि उसे याद आ गया चित्र में दिखता चेहरा कौन है ? और फिर बड़े जोर से अपने पति को पुकारते हुए वह बोली देखो तुम्हारी कांति की बिटिया की फोटो अखबार में निकली है और वो इनाम ले रही है, मुख्यमंत्री जी के हाथ से ।
       रामबाबू भी जल्दी से आए और आँख फाड़के अखबार में झांकने लगे, कहाँ कहाँ कहते हुए ? आखिर कांति उनकी चचेरी बहन है और ननकई उनकी भांजी।
       विमला ने पट्ट उंगली रख फोटो दिखा दी और अपनी विश्वविजयी कहानी भी सुना दी कि याद है न कैसे कांति एक दिन हमारे पास इसी बिटिया के समय लिंग पता करने आई थी कि लड़का होगा तभी इसे जन्मेंगे नहीं तो गर्भपात करा देंगे, काहे से उसके पहले से तीन बिटिया हैं, सास ससुर बोली मारते हैं, आदमी भी उसका कोई कम नहीं था । तब हम्ही उसको समझाए थे कि बच्चा चार महीने का है, मर जाओगी गर्भपात कराके। अब चाहे लड़की है या लड़का संतोष करो । लड़की लड़का से कम नहीं होती। अब देखो दोनो माँ बाप मुख्यमंत्री के बगल खड़े कैसे फोटो खिंचा रहे ? आख़िर बिटिया नाम रोशन कर दी  न।
       रामबाबू से न रहा गया कहने लगे अरे कांति का नम्बर है हमारे पास । तनिक फोन करो । विमला ने भी देर न करते हुए फोन लगा दिया उधर से फोन उठते ही कांति तो लगा जैसे खुशी के मारे फूट पड़ेगी । बोली "जिज्जी सवेरे से ई पचासवां फोन है, सब ननकई को बधाई दे रहे । हमरा तो गोड़े जमीन पर नाई है, तुमका जल्दी मिठाई खवइबे ।
मुखमंत्री जी हमहू का "पहचान" गए और बधाई दिए रहें, हमसे कहें कि सब तुमरी मेहनत का नतीजा है बिटिया डी यम की नौकरी पाई है। हमार दिन बहुर गै जिज्जी" । विमला को कांति की मेहनत याद आते ही हँसी फूट गई । उसने रामबाबू की तरफ़ आश्चर्य से देखा, रामबाबू ने फ़ोन ले लिया और बधाई देकर फोन रख दिया ।

**जिज्ञासा सिंह**

विधवा की बिंदी

 बिट्टन की शादी में कम्मो बुआ के आते ही जो खसुर-फुसुर शुरू हुई वो विदाई के बाद भी रुकने का नाम नहीं ले रही।

   कहीं नन्ही की अम्मा, तो कहीं बड़ी ताई जी, तो कहीं पिताजी की फुआ बराबर एक ही परिचर्चा कर रही हैं, कि "देखो जरा कम्मुईया को आदमी को गुजरे सालो नही बीता औ ई माथे पर बिंदी लगाए, पायल पहने घूम रही है, कौनो रीत रेवाज से इसे मतलब ही नाही है, देखो न चेहरा पै कउनो दुखो नहीं दिखि रहा, अब सहर से आई हैं, तो का एतनो नहीं जनतीं कि आदमी के मरे पे कौनो सिंगार नाही किया जात" ।

रेखा जिधर भी जा रही, यही प्रपंच उसे सुनाई दे रहा, आख़िर उसने देखा कि कम्मो बुआ छत के कोने में अकेली बैठी सुबक रही हैं, उससे रहा नहीं गया । वो दौड़ के उनके पास पहुँची और उन्हें समझाने लगी कि आप इतनी पढ़ी-लिखी होकर इन अनपढ़ी गंवार औरतों की बातों में आ गईं ।

     आप खुद ही देखिए इनके हाल, ये सिवाय प्रपंच और बकवास के अलावा कुछ करती भी हैं और आप दिल्ली जैसे शहर में नौकरी करती हैं, वो भी ऑफिस में ।

इतना सुनते ही कम्मो रेखा के गले लग, फफक-फफक के रो पड़ी और कहने लगी कि मैं खुद ही बिंदी नहीं लगा रही थी, मगर मेरी सासू माँ ने पैरों में पायल और बिंदी लगा दी और बोलीं कि तेरी अभी उमर ही क्या है ? बेटा गया तो ये भगवान की मर्ज़ी थी, अब आज से तू ही मेरा बेटा और बहू दोनो है । तू अच्छे से रहा कर, जैसे पहले रहती थी। और यहाँ मेरे मायके वाले हैं, जिन्हें ससुराल वालों से ज्यादा साथ देना चाहिए, वो मेरा मजाक बना रहे हैं । मैं यहाँ अब कभी नहीं आऊँगी । मेरे ससुराल वाले शिक्षित और समझदार हैं । ये भ्रांतियाँ और कुरीतियाँ मेरे बस की नहीं ।

    रेखा ने सहमति में सिर हिला दिया और बोली अभी जाकर इन सभी को ठीक करती हूँ, इतना लताड़ूँगी कि आइंदा इनकी ऐसी दकियानूसी बातें करने की हिम्मत नहीं होगी । और पापा को भी बताऊँगी सारी बात, पापा के नाम से तो ये प्रपंच करना भूल जाएँगी । जानती ही हो दीदी पापा कैसे हैं ? आशा की उम्मीद लिए दोनों बहनें दर्द भरी मुस्कराहट रोक नहीं पाईं, और मुस्कुराते हुए एक बार फिर एक दूसरे के गले लग गईं ।

           **जिज्ञासा सिंह**

                  लखनऊ