"छोड़ने को तो बहुत कुछ छोड़ा जा सकता है पर.."
"सच्च ! सच कह रही हो माँ !"
"हाँ ! बिल्कुल सच । सच कह रही हूँ.. बेटा ।"
"एक सुंदर नई दुनिया भी बसाई जा सकती है ।"
"कुव्वत भी होती है कई लोगों में.."
"हमारा सब कुछ किसी के बंधन में हो सकता है, परंतु हमारी सोच पर तो केवल और केवल हमारा ही अधिकार होता है न । छोड़ना सोच पर आधारित फ़ैसला है.. और सोच पर किसी दूसरे का हक़ कैसे हो सकता है ?"
"हम तो बस अपनी स्मृतियों से बँधे होते हैं, बीते जीवन की खट्टी मीठी स्मृतियाँ अपने से अलग नहीं होने देतीं।
फिर उन्हें छोड़ना… जिसे आप अपना तन मन धन सौंप चुके होते हैं , और भी संघर्ष है ।"
"शायद तुम्हें पता नहीं कि सब कुछ छोड़ा जा सकता है सिवाय यादों के ।"
"सिवाय यादों के ! क्या मतलब माँ !"
"मतलब ये है बेटा जी ! ये जो हमारे साथ चलता फिरता यादों का चलचित्र है न.. उसे छोड़ना बड़ा मुश्किल है । क्योंकि यादें हमारे अंतर्मन से जुड़ी होती हैं, और अंतर्मन तो साथ ही रहता है, हम उसे कहाँ छोड़ सकते हैं ।"
**जिज्ञासा सिंह**
बेटा जी नादान और माताजी विद्वान !
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका आदरणीय सर।
हटाएंआपकी यह रचना जैसे मेरे ही विचारों एवं भावों का प्रतिबिंब है जिज्ञासा जी। अंतिम परिच्छेद में जो कहा गया है, वही जीवन का अंतिम सत्य भी है।
जवाब देंहटाएंजी, जितेन्द्र भाई ये लघुकथा आपके मन तक पहुंचने में कामयाब रही ।ये मेरा परम सौभाग्य है । आपका बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंसही बात । यादें तो साथ ही चलती हैं ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी ।
जवाब देंहटाएं