घर में खुशी का माहौल है, बलि की प्रक्रिया के लिए बकरे को नहला धुला के तैयार कर लिया गया है, आज भरोसे अपनी औलाद के नाम पर बकरे की बलि करेगा, जिससे उसके बच्चे की जान पर कभी कोई आँच न आए और जो आँच आने वाली हो वो इस बकरे की जान पर बीत जाए ।
पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली अपनी इस परम्परा को पूरा करके भरोसे आज निवृत्त होना चाहता है ।
इसी बीच पता चलता है कि खानदान में चौधरी काका की मौत हो गई है, घर में सूतक लग गया है, कोई शुभ काम नहीं हो सकता, छः माह तक ।
अब बकरा छः माह के लिए घर की देहरी पर बंध जाता है, भरोसे का बेटा रग्घू बकरे के साथ खेल खेल में दोस्ती कर लेता है, चूमता है, सहलाता है और धीरे धीरे बकरे से घुल मिल जाता है, नाम रखता है, रुस्तम । दोनों ऐसे दोस्त हैं, कि क्या कहने ?
बकरा रुस्तम का "रु" सुनते ही रग्घू पर जान न्योछावर करने को तैयार है, औ रग्घू तो रुस्तम के बिना जिंदा ही नहीं रह सकता..
..रग्घू रुस्तम.. रुस्तम रग्घू..का खेल चालू है, गूलर की पत्ती रुस्तम का प्रिय भोजन है और रग्घू दिनभर गूलर पे चढ़ा दिखाई देता है रग्घू दौड़ता है, रुस्तम दौड़ाता है, दोनों छः महीने की लंबी छलांग लगा समय को पार कर लेते हैं ।
फिर से शुभदिन लग गए हैं, रुस्तम की बलि का दिन आ गया है । आखिर मनौती का बकरा घर में बंधा है, बलि तो देनी ही है । उसे फिर नहलाया गया । तेल, काजल, सिंदूर लगाया गया । रग्घू से कोई कुछ नहीं बताता । छोटा है, न ।
रग्घू पेड़ पर पत्तियाँ तोड़ रहा है, बगीचे में गोबर से लिपे स्थान पर कई लोग बैठे हैं, जैसे किसी का इंतजार कर रहे हों, अचानक रुस्तम रुस्तम की आवाज आती है,आवाज़ सुनकर रग्घू रुस्तम की तरफ़ देखता है, रुस्तम में..में.. करता हुआ दौड़ता दिखाई देता है, दो-तीन लोग पकड़ते हैं उसे, और एक आदमी लाल रंग के कपड़े से उसका मुंह ढक देता है ।
दूसरा आदमी बड़ी सी गड़ांस निकालता है, अचानक कुछ ऐसा महसूस होता है, जैसे कि कोई कह रहा हो, एक ..दो ..तीन और रुस्तम का सिर एक कराहती हुई मेंऽऽऽ.. के साथ धड़ से अलग हो जाता है, गूलर के पेड़ पर चढ़ा हुआ रग्घू यह सब देखता है, उसके हाथ से डाल छूट जाती है, वह डाल से टूटे हुए बेल की तरह गिरता है और भेहराकर फूटकर बिखर जाता है.. बलि की रस्म पूरी हो जाती है ।
**जिज्ञासा सिंह**
ओह! बहुत ही दर्दनाक हादसे पर आधारित कथा आत्मा को झझकोर कर रख गयी प्रिय जिज्ञासा जी!
जवाब देंहटाएंबेजुबान जानवरों की बलि की प्रथा जितनी वीभत्स है उतनी घोर निन्दनीय है।यूँ तो मांसाहार के नाम पर प्रतिदिन दुनिया में ना जाने कितने मासूम और निरीह पशु मारे जाते हैं, पर एक जानवर को बलि के लिये पालना उसके साथ विश्वासघात से कम नहीं।भरोसे एक असहाय जानवर की पीड़ ना जान सका, शायद इसीलिए उससे उसके अपने बेटे को छीन कर, प्रकृति ने अपनी न्याय तुला को बराबर रखने का संकेत दिया। बहुत प्रभावी ढंग से लिखी भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए निशब्द हूँ।😔🙁
समीक्षात्मक सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार और अभिनंदन।
हटाएंये रचना एक घटना का प्रतिबिम्ब है।
आपको मेरा नमन ।
प्रसंगवश कहना चाह्ती हूँ जिज्ञासा जी, हमारे क्षेत्र में मैने कहीं भी किसी मन्दिर अथवा किसी अन्य पूजास्थल पर अपने जीवन में कोई भी बलि की परम्परा का निर्वहन होते हुए नहीं देखा या सुना ।ये मेरा सौभाग्य ही है ,यही कहूँगी!!
जवाब देंहटाएंआम तौर पर यही कहा जाता है कि देवी माँ बलि से प्रसन्न होती है पर कौन माँ किसी अन्य माँ के लाल की बलि लेकर प्रसन्न होती होगी ये बात समझ में नहीं आती!!
सही कहा आपने, मुझे भी ये बात आज तक समझ नहीं आई ।
हटाएंओह!!!!
जवाब देंहटाएंबली का बकरा !!! बहुत ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी कहानी....
मैंने देखा है इस तरह बलि चढ़ाते हुये देवताओं पर बकरों की...और स्वयं के पाले हुए बकरों की भी...सच में समझ नहीं आता कैसे करते हैं ऐसा ...मजबूरी है या आस्था ? और कैसी...?
रघु रुस्तम की एकसाथ विदाई बहुत ही दर्दनाक! दिल को छूती भावपूर्ण कहानी ।
ऐसा ही कुछ दृश्य बचपन में देखा और वर्षों तक आहत हूं,सुधा जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका ।
मर्मान्तक पीड़ा महसूस करवाती लघु कथा अपने उद्देश्य में पूर्ण हुई । न जाने ऐसी मान्यताएँ क्यों और कैसे पुष्ट हो गईं ।
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन ।
आपकी इस महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया ने मेरे लघुकथा लेखन को सार्थक कर दिया । आपको मेरा विनम्र मन और वंदन ।
जवाब देंहटाएंमर्मांतक! लेकिन अद्भुत इत्तफ़ाक़ है कि हमारी भी एक अप्रकाशित लघुकथा के प्रारूप की काया कुछ ऐसी ही है।
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपकी उपस्थिति सदैव प्रेरक होती है।
जवाब देंहटाएंये लघुकथाएं हमारे जीवन के अनुभवों से उपजती हैं, हर संवेदनशील मन आहत होता है।
कहीं न कहीं हम सभी एक ही मिट्टी और एक जैसी जड़ों से उपजे हुए लोग हैं।
तो निश्चित रूप से ऐसे दृश्यों से सामना होता है या सुनने में भी आते हैं।