अन्य ब्लॉग
पहचान
विधवा की बिंदी
बिट्टन की शादी में कम्मो बुआ के आते ही जो खसुर-फुसुर शुरू हुई वो विदाई के बाद भी रुकने का नाम नहीं ले रही।
कहीं नन्ही की अम्मा, तो कहीं बड़ी ताई जी, तो कहीं पिताजी की फुआ बराबर एक ही परिचर्चा कर रही हैं, कि "देखो जरा कम्मुईया को आदमी को गुजरे सालो नही बीता औ ई माथे पर बिंदी लगाए, पायल पहने घूम रही है, कौनो रीत रेवाज से इसे मतलब ही नाही है, देखो न चेहरा पै कउनो दुखो नहीं दिखि रहा, अब सहर से आई हैं, तो का एतनो नहीं जनतीं कि आदमी के मरे पे कौनो सिंगार नाही किया जात" ।
रेखा जिधर भी जा रही, यही प्रपंच उसे सुनाई दे रहा, आख़िर उसने देखा कि कम्मो बुआ छत के कोने में अकेली बैठी सुबक रही हैं, उससे रहा नहीं गया । वो दौड़ के उनके पास पहुँची और उन्हें समझाने लगी कि आप इतनी पढ़ी-लिखी होकर इन अनपढ़ी गंवार औरतों की बातों में आ गईं ।
आप खुद ही देखिए इनके हाल, ये सिवाय प्रपंच और बकवास के अलावा कुछ करती भी हैं और आप दिल्ली जैसे शहर में नौकरी करती हैं, वो भी ऑफिस में ।
इतना सुनते ही कम्मो रेखा के गले लग, फफक-फफक के रो पड़ी और कहने लगी कि मैं खुद ही बिंदी नहीं लगा रही थी, मगर मेरी सासू माँ ने पैरों में पायल और बिंदी लगा दी और बोलीं कि तेरी अभी उमर ही क्या है ? बेटा गया तो ये भगवान की मर्ज़ी थी, अब आज से तू ही मेरा बेटा और बहू दोनो है । तू अच्छे से रहा कर, जैसे पहले रहती थी। और यहाँ मेरे मायके वाले हैं, जिन्हें ससुराल वालों से ज्यादा साथ देना चाहिए, वो मेरा मजाक बना रहे हैं । मैं यहाँ अब कभी नहीं आऊँगी । मेरे ससुराल वाले शिक्षित और समझदार हैं । ये भ्रांतियाँ और कुरीतियाँ मेरे बस की नहीं ।
रेखा ने सहमति में सिर हिला दिया और बोली अभी जाकर इन सभी को ठीक करती हूँ, इतना लताड़ूँगी कि आइंदा इनकी ऐसी दकियानूसी बातें करने की हिम्मत नहीं होगी । और पापा को भी बताऊँगी सारी बात, पापा के नाम से तो ये प्रपंच करना भूल जाएँगी । जानती ही हो दीदी पापा कैसे हैं ? आशा की उम्मीद लिए दोनों बहनें दर्द भरी मुस्कराहट रोक नहीं पाईं, और मुस्कुराते हुए एक बार फिर एक दूसरे के गले लग गईं ।
**जिज्ञासा सिंह**
लखनऊ